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"कल नौ बजे तुम चाँद देखना..."- चाँद है आज भी प्रेम गीतों के लिए गीतकारों की प्रेरणा

ताजा सुर ताल (8) ९० के दशक के शुरुआत में एक बेहद कामियाब फिल्म आई थी "क़यामत से क़यामत तक" जिसने युवाओं को अपना दीवाना बना दिया था. इस फिल्म में नायक जब पहली बार नायिका से जुदा होता है तो कहता है कि जब भी शाम ढले तो तुम डूबते सूरज को देखना मैं भी देखूंगा और इस तरह हम एक दूजे को याद करेंगें. इस खूबसूरत से ख्याल ने बहुत से युवा प्रेमी-प्रेमिकाओं के दिल को धड्काया था उस दौर में. करीब २० साल बाद जावेद अख्तर साहब उसी संवाद में छुपे ख्याल को एक गीत रूप में लेकर हाज़िर हुए हैं आज के "ताजा सुर ताल" गीत में. आवाजें हैं गायक सोनू निगम और और गायिका अलका याग्निक की. दोनों ही फनकार प्रेम गीतों को निभाने में महारत रखते हैं, तो जाहिर है इन दो मधुर आवाजों में ढलने से गीत की शोभा और बढ़ी ही है. संगीतकार तिकडी है शंकर एहसान लॉय की. शंकर एहसान और लॉय जब सामूहिक रूप से संगीतकार टीम बन कर नहीं आये थे और तब जब शंकर महादेवन बतौर गायक अपनी पहचान बनाने की कोशिश कर रहे थे, तभी से जावेद अख्तर का साथ उन्हें मिला, शंकर की एल्बम "ब्रेथलेस" के लिए जावेद साहब ने ही गीत लिखे, जहाँ शंकर ने

खुदाया खैर...एक बार फ़िर शाहरुख़ की आवाज़ बने अभिजीत

"बड़ी मुश्किल है, खोया मेरा दिल है..." शाहरुख़ खान के उपर फिल्माए गए इस गीत में आवाज़ थी अभिजीत भट्टाचार्य की. जब ये गीत आया तो श्रोताओं को लगा कि यही वो आवाज़ है जो शाहरुख़ के ऑन स्क्रीन व्यक्तित्व को सहज रूप से उभरता है. पर शायद वो ज़माने लद चुके थे जब नायक अपनी फिल्मों के लिए किसी ख़ास आवाज़ की फरमाईश करता था. जहाँ शाहरुख़ के शुरूआती दिनों में कुमार सानु ने उनके गीतों को आवाज़ दी (कोई न कोई चाहिए..., और काली काली ऑंखें...), वहीँ बाद में उनकी रोमांटिक हीरो की छवि पर उदित नारायण की आवाज़ कुछ ऐसे जमी की सुनने वाले बस वाह वाह कर उठे, "डर" और "दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगें" के गीत आज तक सुने और याद किए जाते हैं. फ़िर हीरो की छवि बदली, पहले जिस नायक का लक्ष्य नायिका को पाना मात्र होता था, वह अब अपने कैरिअर के प्रति भी सजग हो चुका था. वो चाँद तारे तोड़ने के ख्वाब सजाने लगा और ऐसे नायक को परदे पर साकार किया शाहरुख़ ने एक बार फ़िर अपनी फ़िल्म "येस् बॉस" में और यहाँ फ़िर से मिला उन्हें अभिजीत की आवाज़ का साथ और इस फ़िल्म के गीतों ने इस नायक-गायक की जोड़

मैं शायर बदनाम, महफिल से नाकाम

( पिछली कड़ी से आगे... ) बक्षी साहब ने फ़िल्म मोम की 'गुड़िया(1972)' में गीत 'बाग़ों में बहार आयी' लता जी के साथ गाया था। इस पर लता जी बताती हैं कि 'मुझे याद है कि इस गीत की रिकार्डिंग से पहले आनन्द मुझसे मिलने आये और कहा कि मैं यह गीत तुम्हारे साथ गाने जा रहा हूँ 'इसकी सफलता तो सुनिश्चित है'। इसके अलावा 'शोले(1975)', 'महाचोर(1976)', 'चरस(1976)', 'विधाता(1982)' और 'जान(1996)' में भी पाश्र्व(प्लेबैक)गायक रहे। आनन्द साहब का फिल्म जगत में योगदान यहीं सीमित नहीं, 'शहंशाह(1988)', 'प्रेम प्रतिज्ञा(1989)', 'मैं खिलाड़ी तू आनाड़ी(1994)', और 'आरज़ू(1999)' में बतौर एक्शन डायरेक्टर भी काम किया, सिर्फ यही नहीं 'पिकनिक(1966)' में अदाकारी भी की। लता की दिव्या आवाज़ में सुनिए फ़िल्म अमर प्रेम का ये अमर गीत - बक्षी के गीतों की महानता इस बात में है कि वह जो गीत लिखते थे वह किसी गाँव के किसान और शहर में रहने वाले किसी बुद्धिजीवी और ऊँची सोच रखने वाले व्यक्तिव को समान रूप से समझ आते हैं। वह कुछ ऐस

वो जब याद आए बहुत याद आए...

जब सोनू निगम ने जलाए गीतों के दीप एल पी के लिए हिन्दी फ़िल्म संगीत के सबसे सफलतम संगीत जोड़ी के लक्ष्मीकांत और प्यारेलाल का एक साधारण स्तर से उठ कर इतने बड़े मुकाम तक पहुँचने की दास्तान भी कम दिलचस्प नही है. दोनों लगभग १०-१२ साल के रहे होंगे जब मंगेशकर परिवार द्वारा बच्चों के लिए चलाये जाने वाले संगीत संस्थान, सुरील कला केन्द्र में वो पहली बार एक दूसरे के करीब आए (हालांकि वो एक स्टूडियो में पहले भी मिल चुके थे). दरअसल लक्ष्मीकांत को एक कंसर्ट में मँडोलिन बजाते देख प्रभावित हुई लता दी ने ही उन्हें इस संस्था में दाखिल करवाया था. वहीँ प्यारेलाल ने अपने गुरु पंडित राम प्रसाद शर्मा से trumpet और गोवा के अन्थोनी गोंसाल्विस (जी हाँ ये वही हैं जिनके लिए उन्होंने फ़िल्म अमर अकबर एंथोनी का वो यादगार गीत समर्पित किया था) से वोयालिन बजाना सीखा वो भी मात्र ८ साल की उम्र में. वोयालिन के लिए उनका जनून इस हद तक था कि वो दिन में ८ से १२ घंटे इसका रियाज़ करते थे. दोनों बहुत जल्दी दोस्त बन गए दोनों का जनून संगीत था और दोनों के पारिवारिक और वित्तीय हालात भी लगभग एक जैसे थे. लता जी ने उन्हें नौशाद साहब, एस