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वर्षा ऋतु के रंग : लोक-रस-रंग में भीगी कजरी के संग

स्वरगोष्ठी – 132में आज कजरी गीतों का लोक स्वरूप ‘कैसे खेले जइबू सावन में कजरिया, बदरिया घेरि आइल ननदी...’     ‘स्वरगोष्ठी’ के एक नए अंक में मैं कृष्णमोहन मिश्र आप सब संगीत प्रेमियों का मनभावन वर्षा ऋतु के परिवेश में एक बार फिर हार्दिक स्वागत करता हूँ। पिछले अंक से हमने वर्षा ऋतु की मनभावन गीत विधा कजरी पर लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के रंग : कजरी के संग’ के माध्यम से एक चर्चा आरम्भ की थी। आज के अंक में हम उस चर्चा को आगे बढ़ाते हुए कजरी गीतों के मूल लोक स्वरूप को जानने का प्रयास करेंगे और कुछ पारम्परिक कजरियों का रसास्वादन भी करेंगे। कुछ फिल्मों में भी कजरी गीतों का प्रयोग किया गया है। आज के अंक में ऐसी ही एक मधुर फिल्मी कजरी का रसास्वादन करेंगे। भा रतीय लोक-संगीत के समृद्ध भण्डार में कुछ ऐसी संगीत शैलियाँ हैं, जिनका विस्तार क्षेत्रीयता की सीमा से बाहर निकल कर, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हुआ है। उत्तर प्रदेश के वाराणसी और मीरजापुर जनपद तथा उसके आसपास के पूरे पूर्वाञ्चल क्षेत्र में कजरी गीतों की बहुलता है। वर्षा ऋतु के परिवेश और इस म

स्वरगोष्ठी – 116 में आज : चैती गीतों के रंग

साप्ताहिक स्तम्भ स्वरगोष्ठी’ के एक नये अंक के साथ मैं, कृष्णमोहन मिश्र अपने संगीत-प्रेमी पाठकों-श्रोताओं के बीच एक बार पुनः उपस्थित हूँ। आज के अंक में हम संगीत की एक ऐसी शैली पर चर्चा करेंगे जो लोक संगीत की विधा में उतनी ही लोकप्रिय है, जितनी उप-शास्त्रीय में। ऋतु के अनुकूल इस गायकी को हम चैती के नाम से सम्बोधित करते हैं। होली के अगले दिन से भारतीय पंचांग का चैत्र मास और एक पखवारे के बाद पंचांग का नया वर्ष आरम्भ हो जाता है। इस अवसर पर और इस ऋतु विशेष में गाँव की चौपालों से लेकर शास्त्रीय मंचों पर चैती गीतों का गायन बेहद सुखदायी होता है।     प रम्परागत भारतीय संगीत शैलियों को आज़ादी के बाद, जाने-माने संगीतविद् ठाकुर जयदेव सिंह ने चार श्रेणी- शास्त्रीय, उप-शास्त्रीय, सुगम और लोक संगीत के रूप में वर्गीकृत किया था। इन विधाओं के अलग-अलग रंग हैं और इन्हें पसन्द करने वालों के अलग-अलग वर्ग भी हैं। लोक संगीत, वह चाहे किसी भी क्षेत्र का हो, उनमें ऋतु के अनुकूल गीतों का समृद्ध खज़ाना होता है। लोक संगीत की एक ऐसी ही विधा है, चैती। उत्तर भारत के पूरे ब्रज, बुन्देलखण्ड, अ

विविध संगीत शैलियों में राग-रस-रंग से परिपूर्ण होली

स्वरगोष्ठी – 113 में आज   होली अंक ‘चोरी चोरी मारत हो कुमकुम...’ : संगीत की विविध शैलियों में होली भारतीय पर्वों में होली एक ऐसा पर्व है, जिसमें संगीत-नृत्य की प्रमुख भूमिका होती है। जनसामान्य अपने उल्लास की अभिव्यक्ति के लिए मुख्य रूप से देशज संगीत का सहारा लेता है। इस अवसर पर विविध संगीत शैलियों के माध्यम से भी होली की उमंग को प्रस्तुत करने की परम्परा है। इन सभी भारतीय संगीत शैलियों में होली की रचनाएँ प्रमुख रूप से उपलब्ध हैं। आज के अंक में हम आपके लिए कुछ संगीत शैलियों में रंगोत्सव के कुछ चुने हुए गीतों पर चर्चा करेंगे।  इ न्द्रधनुषी रंगों में भींगे तन-मन लिये ‘स्वरगोष्ठी’ के अपने समस्त पाठकों-श्रोताओं का, मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः अबीर-गुलाल के साथ स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। होली, उल्लास, उत्साह और मस्ती का प्रतीक-पर्व होता है। इस अनूठे परिवेश का चित्रण भारतीय संगीत की सभी शैलियों में मिलता है। रंगोत्सव के उल्लासपूर्ण परिवेश में आज हम आपसे ध्रुवपद संगीत शैली के अभिन्न अंग ‘धमार’ की चर्चा करेंगे। इसके साथ ही खयाल शैली के अन्तर्गत राग काफी की ठुम

नारी-कण्ठ पर सुशोभित ठुमरी : ‘रस के भरे तोरे नैन...’

स्वरगोष्ठी-१०० में आज   फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी – ११ ‘आ जा साँवरिया तोहे गरवा लगा लूँ, रस के भरे तोरे नैन...’   ‘स्वरगोष्ठी’ के १००वें अंक में मैं कृष्णमोहन मिश्र आप सब संगीत-प्रेमियों का एक बार पुनः हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। मित्रों, आपकी शुभकामनाओं, आपके सुझावों और मार्गदर्शन के बल पर आज हम ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के १००वें अंक तक आ पहुँचे है। इन दिनों इस साप्ताहिक स्तम्भ के अन्तर्गत लघु श्रृंखला ‘फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी’ का हम प्रकाशन कर रहे हैं। आज इस श्रृंखला की ११वीं कड़ी है। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हमने आपको कुछ ऐसी पारम्परिक ठुमरियों का रसास्वादन कराया जिन्हें फिल्मों में शामिल किया गया था। इस लघु श्रृंखला को अब हम आज विराम देंगे और नए वर्ष से आप सब के परामर्श के आधार पर एक नई लघु श्रृंखला आरम्भ करेंगे। आइए, अब आज की कड़ी का आरम्भ करते हैं। ल घु श्रृंखला ‘फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी’ के अन्तर्गत आज हम जिस ठुमरी पर चर्चा करेंगे, वह है- ‘आ जा साँवरिय