पिछले महीने हमने कमला भट्ट द्वारा लिया गया अमीन सयानी का विस्तृत साक्षात्कार सुना. इसी साक्षात्कार में उन्होंने जिक्र किया अपने सबसे प्रिय रेडियो साक्षात्कार का जब हरफनमौला किशोर कुमार उनके स्टूडियो में पधारे. पद्म श्री अमीन खुद मानते हैं कि किशोर कुमार का वह साक्षात्कार उनके विशाल संग्रह की सबसे अनमोल धरोहर है. हमने सोचा कि इस अनमोल इंटरव्यू को अपने श्रोताओं तक हम अवश्य पहुँचायें. तो सुनिए और याद कीजिये किशोर दा के मनमौजी अंदाज़ को -
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हम आपको बता दें कि अमीन भाई के सुपुत्र राजिल हमारे संपर्क में हैं, जिनके सहयोग से शायद अमीन जी से भी हम आपको रूबरू मिलवा पायें जल्दी ही. वैसे अमीन भाई के चाहने वालों के लिए खुश खबर ये है कि अमीन भाई अपनी गीतमाला की यादों को सी डी के रूप में लेकर आये हैं जो निश्चित रूप से रेडियो में उनकी आवाज़ के दीवाने रहे श्रोताओं के लिए संग्रह की वस्तु होगी. आप इस सी डी के बारे अधिक जानकारी यहाँ से प्राप्त कर सकते हैं और खरीद भी सकते हैं.
संतूर को हम, बनारस घराने के पंडित बड़े रामदास जी की खोज कह सकते हैं, जिनके शिष्य रहे जम्मू कश्मीर के शास्त्रीय गायक पंडित उमा दत्त शर्मा को इस वाध्य में आपर संभावनाएं नज़र आयी. इससे पहले संतूर शत तंत्री वीणा यानी सौ तारों वाली वीणा के नाम से जाना जाता था, जिसके इस्तेमाल सूफियाना संगीत में अधिक होता था. उमा दत्त जी ने इस वाध्य पर बहुत काम किया, और अपने बाद अपने इकलौते बेटे को सौंप गए, संतूर को नयी उंचाईयों पर पहुँचने का मुश्किल काम. अब आप के लिए ये अंदाजा लगना बिल्कुल भी कठिन नही होगा की वो होनहार बेटा कौन है, जिसने न सिर्फ़ अपने पिता के सपने को साकार रूप दिया , बल्कि आज ख़ुद उनका नाम ही संतूर का पर्यावाची बन गया. जी हाँ हम बात कर रहे हैं, संतूर सम्राट पंडित शिव कुमार शर्मा जी की. पंडित जी ने १०० तारों में १६ तार और जोड़े, संतूर को शास्त्रीय संगीत की ताल पर लाने के लिए.अनेकों नए प्रयोग किया, अन्य बड़े नामी उस्तादों के साथ मंत्रमुग्ध कर देने वाली जुगलबंदियां की, और इस तरह कश्मीर की वादियों से निकलकर संतूर देश विदेश में बसे संगीत प्रेमियों के मन में बस गया.
पंडित जी ने बांसुरी वादक हरि प्रसाद चौरसिया के साथ मिलकर जोड़ी बनाई और हिन्दी फिल्मों को भी अपने संगीत से संवारकर एक नयी मिसाल कायम की, यशराज फिल्म्स की कुछ बेहतरीन फिल्में जैसे, सिलसिला (१९८१), चांदनी (१९८९), लम्हें (१९९१) और डर (१९९३) का संगीत आज भी हर संगीत प्रेमी के जेहन में ताज़ा है.
पेश है दोस्तों, पदम् विभूषण ( २००१ ) पंडित शिव कुमार शर्मा, संतूर पर बरसते बादलों का जादू बिखेरते हुए, आनंद लें इस विडियो का. १४ अगस्त २००८, को बंगलोर में हुए बरखा ऋतू संगीत समारोह से लिया गया है ये विडियो, जो हमें प्राप्त हुआ है अभिक मजुमदार की बदौलत जिन्हें इस समारोह को प्रत्यक्ष देखने का सौभाग्य मिला. यहाँ पंडित जी राग मेघ बजा रहे हैं, तबले पर संगत कर रहे हैं योगेश सामसी. विडियो ७ हिस्सों में हैं ( ३-३ मिनट की क्लिप ), कृपया एक के बाद एक देखें.
भाग-1
भाग-2
भाग-3
भाग-4
भाग-5
भाग-6
भाग-7
विडियो साभार- अभिक मजूमदार सोत्र - इन्टरनेट लेख संकलन - सजीव सारथी.
गुलज़ार बस एक कवि हैं और कुछ नही, एक हरफनमौला कवि, जो फिल्में भी लिखता है, निर्देशन भी करता है, और गीत भी रचता है, मगर वो जो भी करता है सब कुछ एक कविता सा एहसास देता है. फ़िल्म इंडस्ट्री में केवल कुछ ही ऐसे फनकार हैं, जिनकी हर अभिव्यक्ति संवेदनाओं को इतनी गहराई से छूने की कुव्वत रखती है, और गुलज़ार उन चुनिन्दा नामों में से एक हैं, जो इंडस्ट्री की गलाकाट प्रतियोगी वातावरण में भी अपना क्लास, अपना स्तर कभी गिरने नही देते.
गुलज़ार का जन्म १९३६ में, एक छोटे से शहर दीना (जो अब पाकिस्तान में है) में हुआ, शायरी, साहित्य और कविता से जुडाव बचपन से ही जुड़ गया था, संगीत में भी गहरी रूचि थी, पंडित रवि शंकर और अली अकबर खान जैसे उस्तादों को सुनने का मौका वो कभी नही छोड़ते थे.
(चित्र में हैं सम्पूरण सिंह यानी आज के गुलज़ार)
गुलज़ार और उनके परिवार ने भी भारत -पाकिस्तान बँटवारे का दर्द बहुत करीब से महसूस किया, जो बाद में उनकी कविताओं में बहुत शिद्दत के साथ उभर कर आया. एक तरफ़ जहाँ उनका परिवार अमृतसर (पंजाब , भारत) आकर बस गया, वहीँ गुलज़ार साब चले आए मुंबई, अपने सपनों के साथ. वोर्ली के एक गेरेज में, बतौर मेकेनिक वो काम करने लगे और खाली समय में कवितायें लिखते. फ़िल्म इंडस्ट्री में उन्होंने बिमल राय, हृषिकेश मुख़र्जी, और हेमंत कुमार के सहायक के तौर पर काम शुरू किया. बिमल राय जो हमेशा नई प्रतिभाओं को आगे बढ़ने का मौका देते थे उनकी फ़िल्म ‘बंदनी’ के लिए गुलज़ार ने अपना पहला गीत लिखा. संगीत था, एस डी बर्मन का. धीरे धीरे गुलज़ार ने फिल्मों के लिए लिखना शुरू किया, हृषी दा और असित सेन के लिए, कुछ बहतरीन फिल्में उन्होंने लिखी जो कालजयी मानी जा सकती हैं, जिनमे आनंद (१९७०), गुड्डी (१९७१), बावर्ची (१९७२), नमक हराम (१९७३), दो दुनी चार (१९६८), खामोशी (१९६९) और सफर (१९७०) जैसी फिल्में शामिल हैं.
१९७१ में ही "मेरे अपने" से उन्होंने बतौर निर्देशक अपना सफर शुरू किया, १९७२ में आयी "परिचय" और "कोशिश" जो एक गूंगे बहरे दम्पति के जीवन पर आधारित कहानी थी, जिसमे अद्भुत काम किया संजीव कुमार और जाया भादुरी ने, इतना संवेदनशील विषय को इतने उत्कृष्ट रूप में परदे पर साकार कर गुलज़ार ने अपने आलोचकों को भी हैरान कर दिया. इस फ़िल्म के बाद शुरुवात हुई गुलज़ार और संजीव कुमार की दोस्ती की, इस दोस्ती ने हमें दीं, आंधी(१९७५), मौसम(1975), अंगूर(१९८१)और नमकीन(१९८२) जैसी नायाब फिल्में, जो यकीनन संजीव कुमार के अभिनय जीवन की बहतरीन फिल्में रहीं हैं. गुलज़ार ने जीतेन्द्र, विनोद खन्ना, हेमा मालिनी, डिम्पल कपाडिया जैसे व्यवसायिक सिनेमा के अभिनेताओं को उनके जीवन के बहतरीन किरदार जीना का मौका दिया, इन्ही फिल्मों की बदौलत इन कलाकारों की असली प्रतिभा जग जाहिर हुई, खुशबू, किनारा, परिचय, मीरा, अचानक, लेकिन जैसी फिल्में भला कौन भूल सकता है.
छोटे परदे पर भी गुलज़ार ने अपनी छाप छोडी, शुरुवात की धारावाहिक "मिर्जा ग़लिब" से, कहते हैं कि इस धारावाहिक के बजट को बनाये रखने के लिए गुलज़ार ने अपना पारिश्रमिक भी लेना छोड़ दिया था. नसीरुद्दीन शाह, ग़लिब बन कर आए, जगजीत सिंह के संगीत ने ग़लिब की शायरी को नया आकाश दे दिया, गुलज़ार ने जैसे अपने पसंदीदा शायर को फ़िर से जिंदा कर दिया. जंगल बुक, और पोटली बाबा की जैसे बहुत से धारावाहिकों में गुलज़ार साब के योगदान याद कीजिये ज़रा.
काफी समय तक गुलज़ार पार्श्व में रहे और लौटे १९९६ में फ़िल्म "माचिस" के साथ. आज भी गुलज़ार का नाम जिस फ़िल्म के साथ जुड़ जाता है, वो ढेरों फिल्मों की भीड़ में भी अलग पहचान बना जाती है.
गुलज़ार को अब तक ५ राष्ट्रीय पुरस्कार जिसमे फ़िल्म "कोशिश" में बहतरीन स्क्रीन प्ले, "मौसम" में सर्वश्रेष्ट निर्देशक, और फ़िल्म "इजाज़त" में सर्वश्रेष्ट गीतकार के लिए शामिल है मिल चुके हैं. १७ फिल्मफयेर पुरस्कार भी हैं खाते में, कहानी संग्रह "धुवाँ" के लिए साहित्य अकेडमी सम्मान, हस्ताक्षर है साहित्य में उनके योगदान का. बच्चों के लिए लिखी उनकी पुस्तक "एकता" को NCERT ने १९८९ में पुरुस्कृत किया. उनकी कविताओं की किताबें हम सब की लाईब्ररी का हिस्सा हैं, भला कैसे कोई बच सकता है इस जादूगर कलमकार से.
आज हम सब के प्रिये गुलज़ार साहब अपना ७२ वां जन्मदिन मना रहें हैं, क्यों न आज हम सुनें उनका वो सबसे पहला गीत जिसका जिक्र हमने उपर किया है, फ़िल्म "बंदनी" में यह गुलज़ार का एकमात्र गीत है, नूतन पर फिल्माया गए इस गीत के बारे में अब हम क्या कहें, बस सुनें देखें और आनंद लें. गीत की पृष्ठभूमि भी है साथ में, फ़िल्म की सिचुअशन के साथ कितना जबरदस्त न्याय किया है, गुलज़ार ने, ख़ुद ही देखिये.
आवाज़ पर हम गुलज़ार साहब पर निरंतर नयी जानकारियां आपके सामने लाते रहेंगे, फिलहाल तो बस इतना ही कहने का मन है कि - जन्मदिन मुबारक हो गुलज़ार साहब.