ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 704/2011/144 "उ मड़ घुमड़ कर आई रे घटा" श्रृंखला की चौथी कड़ी में एक और वर्षागीत लेकर मैं कृष्णमोहन मिश्र आपके बीच उपस्थित हूँ| दोस्तों; श्रृंखला की दूसरी कड़ी में हमने आपके लिए राग "वृन्दावनी सारंग" का परिचय और इसी राग पर आधारित गीत प्रस्तुत किया था| आज के गीत में हम आपको राग "वृन्दावनी सारंग" का एक दूसरा पहलू दिखाने का प्रयत्न कर रहे हैं| हम यह चर्चा कर चुके हैं कि यह राग गम्भीर प्रकृति का होने के कारण विरह भाव की सृष्टि करता है| ऐसे परिवेश के सृजन के लिए राग "वृन्दावनी सारंग" का गायन-वादन पूर्वांग में किया जाता है| परन्तु जब राग के स्वर-समूहों को हम पूर्वांग से उत्तरांग में ले जाते हैं, तब राग का भाव बदल जाता है और हमें उल्लास, उत्साह और प्रकृति के आनन्द की सार्थक अनुभूति होने लगती है| दोस्तों; आज हम आपको राग "वृन्दावनी सारंग" पर आधारित जो गीत सुनवाने जा रहे हैं, उसमे आपको प्रकृति का नैसर्गिक आनन्द तो मिलेगा ही, साथ ही आलस्य त्याग कर कर्म करने की प्रेरणा देने में भी यह गीत सक्षम है| कविवर सूर्यकान्त त्रिपाठी &