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भैरवी के सुरों में कृष्ण ने राह चलती राधा की चुनरी रंग डारी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 690/2011/130 आ ज सप्ताहान्त की प्रस्तुति में एक बार फिर आप सभी संगीत प्रेमियों का स्वागत है| पिछले सप्ताह आपसे किये वायदे का पालन करते हुए आज भी हम एक मनमोहक ठुमरी भैरवी के साथ उपस्थित हैं| उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशक में जब "बनारसी ठुमरी" के विकास के साथ-साथ लखनऊ से पूर्व की ओर, बनारस से लेकर बंगाल तक विस्तृत होती जा रही थी, वहीं दूसरी ओर लखनऊ से पश्चिम दिशा में दिल्ली तक "पछाहीं अंग" की "बोल-बाँट" और "बन्दिशी" ठुमरी का प्रचलन बढ़ता जा रहा था| 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद लखनऊ के सनदपिया रामपुर दरबार चले गए थे, जहाँ कुछ समय रह कर उन्होंने ठुमरी का चलन शुरू किया| रामपुर दरबार के सेनिया घराने के संगीतज्ञ बहादुर हुसेन खाँ और उस्ताद अमीर खाँ इस नई गायन शैली से बहुत प्रभावित हुए और इसके विकास में अपना योगदान किया| इसी प्रकार ठुमरी शैली का दिल्ली के संगीत जगत में न केवल स्वागत हुआ, बल्कि अपनाया भी गया| उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दो दशकों में दिल्ली में ठुमरी के कई गायक और रचनाकार हुए, जिन्होंने इस शैली को स

सजन संग काहे नेहा लगाए...उलाहना भाव में करुण रस की अनुभूति कराती ठुमरी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 689/2011/129 श्रृं खला "रस के भरे तोरे नैन" की नौवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सभी संगीत-प्रेमियों का स्वागत करता हूँ| कल के अंक में आपने रईसों और जमींदारों की छोटी-छोटी महफ़िलों में फलती-फूलती ठुमरी शैली की जानकारी प्राप्त की| इस समय तक ठुमरी गायन की तीन प्रकार की उप-शैलियाँ विकसित हो चुकी थी| नृत्य के साथ गायी जाने वाली ठुमरियों में लय और ताल का विशेष महत्त्व होने के कारण ऐसी ठुमरियों को "बन्दिश" या "बोल-बाँट" की ठुमरी कहा जाने लगा| इस प्रकार की ठुमरियाँ छोटे ख़याल से मिलती-जुलती होती हैं, जिसमे शब्द का महत्त्व बढ़ जाता है| ऐसी ठुमरियों को सुनते समय ऐसा लगता है, मानो तराने पर बोल रख दिए गए हों| ठुमरी का दूसरा प्रकार जो विकसित हुआ उसे "बोल-बनाव" की ठुमरी का नाम मिला| ऐसी ठुमरियों में शब्द कम और स्वरों का प्रसार अधिक होता है| गायक या गायिका कुछ शब्दों को चुन कर उसे अलग-अलग अन्दाज़ में प्रस्तुत करते हैं| धीमी लय से आरम्भ होने वाली इस प्रकार की ठुमरी का समापन द्रुत लय में कहरवा की लग्गी से किया जाता है| ठुमरी के यह

"भर भर आईं अँखियाँ..." - जब महफ़िलों की शान बनी ठुमरी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 688/2011/128 क ल की कड़ी में हमने आपसे ठुमरी शैली के अत्यन्त प्रतिभाशाली कलासाधक और प्रचारक भैया गणपत राव के बारे में जानकारी बाँटी थी| फिल्मों में ठुमरी विषय पर जारी श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन.." की आज की आठवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र आपका पुनः स्वागत करता हूँ और भैया गणपत राव के एक शिष्य मौज़ुद्दीन खां के विषय में कुछ जानकारी देता हूँ| जिस प्रकार भैया जी अपने गुरु सादिक अली खां की ठुमरी का पाठान्तर करते थे, उसी तरह मौज़ुद्दीन खां अपने गुरु भैया जी की ठुमरी की अपने ढंग से व्याख्या करते थे| मौज़ुद्दीन खां ठुमरी के विलक्षण कलाकार थे| मात्र 33 वर्ष की उम्र में दिवंगत होने से पहले मौज़ुद्दीन खां ने ठुमरी शैली को इतना समृद्ध कर दिया था कि आज के ठुमरी गायक भी सम्मान के साथ उनकी गायन शैली को स्वीकार करते हैं| आइए आपको मौज़ुद्दीन खां से जुड़ा एक रोचक प्रसंग सुनाते हैं| बात 1909 की है, बनारस (अब वाराणसी) के प्रसिद्ध रईस और संगीत-प्रेमी मुंशी माधवलाल की विशाल कोठी में संगीत की महफ़िल का आयोजन हुआ था जिसमे उस समय की प्रसिद्ध गायिकाएँ राजेश्वरी बाई, हुस्ना