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न जाना न जाना मेरे बाबू दफ़्तर न जाना....सुनिए लता का शरारती अंदाज़ इस दुर्लभ गीत में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 484/2010/184 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों आप सुन रहे हैं श्री अजय देशपाण्डेय जी के चुने हुए लता मंगेशकर के कुछ बेहद दुर्लभ गीतों पर केन्द्रित लघु शृंखला 'लता के दुर्लभ दस'। ये वो गानें हैं दोस्तों जिन्हें लता जी ने अपने पार्श्वगायन करीयर के शुरुआती सालों में गाया था। अभी तक हमने इस शृंखला में 'हीर रांझा' ('४८), 'मेरी कहानी' ('४८) और 'गर्ल्स स्कूल' ('४९) फ़िल्मों के गानें सुनें। आज हम क़दम रख रहे हैं साल १९५० में। आपको यह बता दें कि अगले पाँच अंकों तक हमारे क़दम जमे रहेंगे इसी साल १९५० में और एक के बाद एक हम सुनेंगे कुल पाँच दुर्लभ गीत जिन्हें लता जी ने अपनी कमसिन आवाज़ से सजाया था इस साल। आज के गीत में लता जी के जिस अंदाज़ का मज़ा आप लेंगे, वह है छेड़-छाड़ वाला अंदाज़। फ़िल्म 'छोटी भाभी' का यह गीत है "न जाना न जाना मेरे बाबू दफ़्तर न जाना"। फ़िल्मकार के बैनर तले निर्मित इस फ़िल्म के निर्देशक थे शांति कुमार। फ़िल्म में अभिनय किया करण दीवान, नरगिस, श्याम, कुलदीप कौर, गुलाब, श्यामा, सुरैया, याकू

महफ़िल-ए-ग़ज़ल की १००वीं कड़ी में जगजीत सिंह लेकर आए हैं राजेन्द्रनाथ रहबर की "तेरे खुशबू में बसे खत"

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०० हं स ले 'रहबर` वो आये हैं, रोने को तो उम्र पड़ी है राजेन्द्रनाथ ’रहबर’ साहब के इस शेर की हीं तरह हम भी आपको खुश होने और खुशियाँ मनाने का न्यौता दे रहे हैं। जी हाँ, आज बात हीं कुछ ऐसी है। दर-असल आज महफ़िल-ए-ग़ज़ल उस मुकाम पर पहुँच गई है, जिसके बारे में हमने कभी भी सोचा नहीं था। जब हमने अपनी इस महफ़िल की नींव डाली थी, तब हमारा लक्ष्य बस यही था कि "आवाज़" पर "गीतों" के साथ-साथ "ग़ज़लों" को भी पेश किया जाए.. ग़ज़लों को भी एक मंच मुहैया कराया जाए.. यह मंच कितने दिनों तक बना रहेगा, वह हमारी मेहनत और आप सभी पाठकों/श्रोताओं के प्रोत्साहन पर निर्भर होना था। हमें आप पर पूरा भरोसा था, लेकिन अपनी मेहनत पर? शायद नहीं। ऐसा इसलिए क्योंकि महफ़िल की शुरूआत करने से पहले मैं ग़ज़लों का उतना बड़ा मुरीद नहीं था, जैसा अब हो चुका हूँ। हाँ, मैं ग़ज़लें सुनता जरूर था, लेकिन कभी भी ग़ज़लगो या शायर के बारे में पता करने की कोशिश नहीं की थी। इसलिए जब शुरूआत में सजीव जी ने मुझे यह जिम्मेवारी सौंपी तो मैंने उनसे कहा भी था कि मुझे इन सबके बारे में कुछ भी जानकारी न

कुछ शर्माते हुए और कुछ सहम सहम....सुनिए लता की आवाज़ में ये मासूमियत से भरी अभिव्यक्ति

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 483/2010/183 'ल ता के दुर्लभ दस' शृंखला की तीसरी कड़ी में आप सभी का स्वागत है। १९४८ की दो फ़िल्मों - 'हीर रांझा' और 'मेरी कहानी' - के गानें सुनने के बाद आइए अब हम क़दम रखते हैं १९४९ के साल में। १९४९ का साल भी क्या साल था साहब! 'अंदाज़', 'बड़ी बहन', 'बरसात', 'बाज़ार', 'एक थी लड़की', 'दुलारी', 'लाहोर', 'महल', 'पतंगा', और 'सिपहिया' जैसी फ़िल्मों में गीत गा कर लता मंगेशकर यकायक फ़िल्म संगीत के आकाश का एक चमकता हुआ सितारा बन गईं। इन नामचीन फ़िल्मों की चमक धमक के पीछे कुछ ऐसी फ़िल्में भी बनीं इस साल जिसमें भी लता जी ने गीत गाए, लेकिन अफ़सोस कि उन फ़िल्मों के गानें ज़्यादा लोकप्रिय नहीं हुए और वो आज भूले बिसरे और दुर्लभ गीतों में शुमार होता है। ऐसी ही एक फ़िल्म थी 'गर्ल्स स्कूल'। लोकमान्य प्रिडक्शन्स के बैनर तले बनी इस फ़िल्म के निर्देशक थे अमीय चक्रबर्ती। फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे सोहन, गीता बाली, शशिकला, मंगला, सज्जन, राम सिंह और वशिष्ठ प्रमुख। फ़िल्म का सं