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रफ़ी साहब- एक ऐसी आवाज़ जिसने जाने कितनी बार हम सब के जज़्बात अपने स्वरों में उकेरे है

ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # ४१ क ल ही हम यह बात कर रहे थे कि शक़ील साहब ने ज़्यादातर काम नौशाद साहब के साथ किया है, तो लीजिए इस मशहूर जोड़ी के नाम करते हैं आज की 'ओल्ड इज़ गोल्ड रिवाइवल' कड़ी को। मुस्लिम सबजेक्ट पर बनी फ़िल्मों में 'मेरे महबूब' का शुमार उल्लेखनीय फ़िल्मों में होता है। इस फ़िल्म का गीत संगीत का पक्ष बेहद मज़बूत रहा और आज भी इसके गीतों इज़्ज़त से सुने जाते हैं। लीजिए आज इसी फ़िल्म का शीर्षक गीत पेश-ए-ख़िदमत है। क्योंकि आज हम इस गीत के रफ़ी साहब वाले वर्ज़न का रिवाइव्ड रूप सुनेंगे, इसलिए आइए एक बार फिर से रुख़ करते हैं नौशाद साहब द्वारा प्रस्तुत दो कार्यक्रमों की ओर जिनमें वो रफ़ी साहब की तारीफ़ कर रहे हैं अपने अंदाज़ में। विविध भारती के 'संगीत के सितारे' कार्यक्रम में नौशाद साहब ने रफ़ी साहब की तारीफ़ कुछ इस तरह से की थी - "एक फ़नकार को जो अहसासात होने चाहिये, वो रफ़ी साहब में भरपूर था। एक गीत था राग मधुमंती पर। गाना रिकार्ड होने के बाद रफ़ी साहब ने उसे सुना और बार बार सुनते रहे। बोले कि 'शोरगुल से हट कर यह गाना सितना सुकून दे रहा है!'

जितने अच्छे गायक थे, उतने ही बढ़िया संगीतकार भी थे हेमंत दा

ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # ४० युं तो शक़ील बदायूनी ने ज़्यादातर संगीतकार नौशाद साहब के लिए ही गीत लिखे, लेकिन दूसरे संगीतकारों के लिए लिखे उनके गानें भी उतने ही मक़बूल हुए थे। उन संगीतकारों में से कुछ नाम शक़ील साहब ने ख़ुद बताए थे अमीन सायानी के एक पुराने इंटरव्यू में जो रिकार्ड हुआ था १९६९ में, जब अमीन भाई ने उनसे पूछा था कि उनकी ज़बरदस्त कामयाबी का सब से ख़ास, सब से अहम राज़ क्या है। शक़ील साहब का जवाब था - "सन् '४६ का गीतकार होकर आज सन् '६९ में भी वही दर्जा हासिल किए हुए हूँ, इसका राज़ इसके सिवा कुछ नहीं अमीन साहब कि मैने हमेशा क्वांटिटी के मुक़ाबले क्वालिटी पर ज़्यादा ध्यान दिया। हालाँकि इस बात से मुझे कुछ माली क़ुरबानियाँ भी करनी पड़ी, मगर मेरा ज़मीर मुतमैन है कि मैने फ़िल्म इंडस्ट्री की ज़्यादा से ज़्यादा ख़िदमत की है, और मुझे फ़क्र है मैने बड़े बड़े पुराने संगीतकारों यानी कि खेमचंद प्रकाश, श्यामसुंदर, ग़ुलाम मोहम्मद, ख़ुर्शीद अनवर, सी. रामचन्द्र, सज्जाद, और नौशाद से लेकर रवि, हेमंत कुमार, कल्याणजी, एस. डी. बर्मन, सोनिक ओमी तक के साथ काम किया।" दोस्तों, आइए सुन

कुदरत के नज़रों की खूबसूरती का बयां करते हुए भी बने कई नायाब गीत

ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # ३९ दि लीप कुमार के पार्श्वगायन की अगर बात करें तो सब से पहले उनके लिए गाया था अरुण कुमार ने उनकी पहली फ़िल्म 'ज्वार भाटा' में। उसके बाद कुछ वर्षों के लिए तलत महमूद बने थे दिलीप साहब की आवाज़। बाद में रफ़ी साहब की आवाज़ ही ज़्यादा सुनाई दी थी दिलीप साहब के होठों से। लेकिन ५० के दशक में कुछ ऐसे गीत बनें हैं जिनमें दिलीप कुमार का प्लेबैक दिया था मुकेश ने, और ख़ास बात यह कि मुकेश की आवाज़ भी उन पर बहुत जचीं और ये तमाम गानें ख़ूब चले भी, फ़िल्म 'यहूदी' का 'ये मेरा दीवानापन है" कह लीजिए या फिर फ़िल्म 'अंदाज़' का "झूम झूम के नाचो आज, गायो ख़ुशी के गीत", या फिर 'मधुमती' का "सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं" और "दिल तड़प तड़प के कह रहा है आ भी जा"। लेकिन कहा जाता है कि दिलीप साहब नहीं चाहते थे कि मुकेश उनके लिए गाए क्योंकि उनका ख़याल था कि मुकेश की आवाज़ उन पर फ़िट नहीं बैठती। यह बात है १९४८ की जब 'अंदाज़' बन रही थी। फ़िल्म के संगीतकार नौशाद साहब ने उन्हे समझाया कि ऐसे गीतों के लिए मुकेश की आवाज़