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गुनगुनाते लम्हे में इस बार गौरव शर्मा की कहानी

दोस्तो, हर महीने के पहले और तीसरे मंगलवार को आवाज़ लेकर आता है एक कहानी-गीतों की जुबानी। इस कार्यक्रम के माध्यम से हम अपने श्रोताओं को रेडियो के उसी जमाने में पहुँचा देना चाहते हैं जब पूरा हिन्दुस्तान एक साथ एक कहानी को फिल्मों गीतों के माध्यम से ग्रहण करता था। 19वाँ पुस्तक मेला में हमने अपनी विवरण पुस्तिका में इस बात का ज़िक्र किया कि जल्द ही हम एक वेबरेडियो लॉन्च करेंगे। यह पाक्षिक वेबरेडियो उसी की एक टेस्टिंग है। आज की कहानी गौरव शर्मा की है। आवाज़ हमेशा की तरह अपराजिता कल्याणी की है और तकनीक खुश्बू की है। नीचे के प्लेयर से सुनें- आप भी चाहें तो भेज सकते हैं कहानी लिखकर गीतों के साथ, जिसे दूंगी मैं अपनी आवाज़! जिस कहानी पर मिलेगी शाबाशी (टिप्पणी) सबसे ज्यादा उनको मिलेगा पुरस्कार हर माह के अंत में 500 / नगद राशि। हाँ यदि आप चाहें खुद अपनी आवाज़ में कहानी सुनाना तो आपका स्वागत है.... 1) कहानी मौलिक हो। 2) कहानी के साथ अपना फोटो भी ईमेल करें। 3) कहानी के शब्द और गीत जोड़कर समय 35-40 मिनट से अधिक न हो, गीतों की संख्या 7 से अधिक न हो।। 4) आप गीतों की सूची और साथ में उनका mp3 भी भेजें।

दिया जलाकर आप बुझाया तेरे काम निराले...याद करें नूरजहाँ और उनकी सुरीली आवाज़ को इस गीत में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 346/2010/46 इ न दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के अंतर्गत हम आपको ४० के दशक के हर साल का एक सुपरहिट गीत सुनवा रहे हैं अपनी ख़ास लघु शृंखला 'प्योर गोल्ड' में। आज इसकी छठी कड़ी में बारी है साल १९४५ की। ८ सितंबर १९४५। द्वितीय विश्व युद्ध का समापन। जापान के दो शहरों हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिरा कर विश्व के मानचित्र से उनका अस्तित्व ही मिटा दिया गया। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का रहस्यात्मक तरीक़े से ग़ायब हो जाना और संभवत: ताइपेइ के एक विमान दुर्घटना में उनकी मृत्यु के चर्चे ही १९४५ के मुख्य विषय थे। भारत का स्वाधीनता संग्राम भी पूरे शबाब पर थी। फ़िल्म उद्योग भी इससे बेअसर नहीं रह पाई। कारखानों में बंदूक, बम, और हथियार का उत्पादन इतना ज़्यादा बढ़ चुका था कि जिससे बहुत ज़्यादा मात्रा में आर्थिक लाभ हो रहे थे। इस विशाल धन राशी को कई गुणा और बढ़ाने के उद्येश्य से इन्हे फ़िल्म निर्माण में लगाया जाने लगा। फ़िल्मस्टार्स के पारिश्रमिक कई गुणा बढ़ गए, जिसका एक हिस्सा आयकर से मुक्त भी किया जाने लगा। इस वजह से वो बड़ी हस्तियाँ जो कभी फ़िल्म स्टुडियोज़ के कर्मच

उन सगीत प्रेमियों के लिए जिन्हें आज का संगीत शोर शराबा लगता है उनके लिए है "रोड टू संगम" का संगीत

ताज़ा सुर ताल ०७/ 2010 सुजॊय - सजीव, बहुत ही अफ़सोस की यह बात है कि आजकल कला को लेकर भी हमरे देश में राजनीति और साम्प्रदायिक मनमुटाव हो रही है। मेरा इशारा मुंबई में 'माइ नेम इज़ ख़ान' के प्रदर्शन के ख़िलाफ़ हो रहे विरोध की तरफ़ है। क्या आपको नहीं लगता कि फ़िल्म निर्माण एक कला है और किसी भी कला को इस तरफ़ की चीज़ों से दूर रखी जानी चाहिए? सजीव - बिल्कुल! अगर किसी को किसी के ख़िलाफ़ जाना हो तो न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया जा सकता है, ना कि उसके फ़िल्म के प्रदर्शन को रोक कर अपनी शक्ति का परिचय देनी चाहिए। ख़ैर, यह सब तो चलता ही रहेगा। अच्छा सुजॊय, हम अफ़सोस की बात कर रहे हैं तो एक अफ़सोस यह भी रहा है कि बहुत सी फ़िल्में हैं जो बेहद उत्कृष्ट होते हुए भी आम जनता तक सही रूप से नहीं पहुँच पाती है, क्योंकि फ़िल्म के निर्माता के पास उतना आर्थिक ज़ोर नहीं होता है कि अपनी फ़िल्म का ढोल पीट पीट कर प्रचार करें। कई फ़िल्में तो किसी थिएटर पर भी नहीं लगती, बल्कि सिर्फ़ फ़िल्म महोत्सवों में ही दिखाई जाती है। ऐसे में फ़िल्म लोगों तक नहीं पहुँचती है और उनका संगीत भी गुमनामी के अंधेरे में खो जाता