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हाय हम क्या से क्या हो गए....लज्जत-ए-इश्क़ महसूस करें जावेद अख़्तर और अल्का याज्ञनिक के साथ

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #६० आ ज की महफ़िल में हम हाज़िर हैं शरद जी की पसंद की तीसरी और अंतिम नज़्म लेकर। गायकी के दो पुराने उस्तादों(मन्ना डे और मुकेश) को सुनने-सुनाने के बाद आज हमने रूख किया है १९९० और २००० के दशक की ओर और इस सफ़र में हमारा साथ वह दे रही हैं जो आज भी उसी शिद्दत से सुनी जाती हैं जिस शिद्दत से ३० साल पहले सुनी जाती थीं। नए दौर में कई सारी नई गायिकाएँ आईं, लेकिन इनके जादू को दुहरा न सकीं। इन्होंने अपना पहला गाना १९७९ की फिल्म "पायल की झनकार" में गाया था, वह गाना ज्यादा मशहूर तो नहीं हुआ, लेकिन हाँ उस गाने ने यह घोषणा तो कर दी कि एक लम्बे दौर का घोड़ा मैदान में उतर चुका है। फिर १९८१ में आई "लावारिस" जिसमें अमिताभ बच्चन का गाया "मेरे अंगने में" बच्चे-बच्चे की जुबान पर चढ गया। लेकिन हाँ अमित जी के गाए इस गाने का एक रूप और था, जिसे परदे पर "राखी" गाती हैं और परदे के पीछे हमारी आज की फ़नकारा। यह गाना भी खूब चला, लेकिन अगर कोई यह पूछे कि इन्हें सही मायने में सफ़लता कब मिली, तो निर्विरोध एक हीं जवाब होगा और वह जवाब है १९८८ में रीलिज हुई फिल्म &quo

इचक दाना बिचक दाना....पहेलियों में गुंथा एक अनूठा गाना

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 265 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' पर आप लगातार सुन रहे हैं बच्चों वाले गानें एक के बाद एक। दोस्तों, हर रोज़ गीत के आख़िर में हम आप से एक पहेली पूछते हैं, आज भी पूछेंगे, लेकिन आज का जो गीत है ना वो भरा हुआ है पहेलियों से। पहेली बूझना बच्चों का एक मनपसंद खेल रहा है हर युग में। हिंदी फ़िल्मों में कई गीत ऐसे हैं जो पहेलियों पर आधारित हैं, जैसे कि उदाहरण के तौर पर फ़िल्म 'ससुराल' का गीत "एक सवाल मैं करूँ एक सवाल तुम करो", 'मिलन' फ़िल्म का गीत "बोल गोरी बोल तेरा कौन पिया"। और भी कई गीत हैं इस तरह के, लेकिन इन सब में जो सब से ज़्यादा प्रोमिनेंट है वह है राज कपूर की फ़िल्म 'श्री ४२०' का "ईचक दाना बीचक दाना दाने उपर दाना"। इस गीत का मुखड़ा और सारे के सारे अंतरे पहेलियों पर आधारित है। लता मंगेशकर, मुकेश और बच्चों के गाए इस गीत का फ़िल्मांकन कुछ इस तरह से हुआ है कि नरगिस एक स्कूल टीचर बच्चों को पहेलियों के माध्यम से पाठ पढ़ा रही हैं, और छत पर खड़े दूर दूर से राज कपूर ख़ुद भी उन पहेलियों को सुलझाने की कोशिश कर रहे हैं। हर प

मास्टरजी की आ गयी चिट्टी, चिट्टी में से निकली बिल्ली....गुलज़ार और आर डी बर्मन का "मास्टर" पीस

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 264 ब च्चों पर जब फ़िल्म बनाने या गीत लिखने की बात आती है तो गुलज़ार साहब का नाम बहुत उपर आता है। बच्चों के किरदारों या गीतों को वो इस तरह का ट्रीटमेंट देते हैं कि वो फ़िल्में और वो गानें कालजयी बन कर रह जाते हैं। फिर चाहे वह 'परिचय' हो या 'किताब', या फिर १९८३ की फ़िल्म 'मासूम'। हर फ़िल्म में उन्होने बच्चों के किरदारों को बहुत ही समझकर, बहुत ही नैचरल तरीके से प्रस्तुत किया है। बड़े फ़िल्मकार की यही तो निशानी है कि किस तरह से छोटे से छोटे बच्चो से उनका बेस्ट निकाल लिया जाए! आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर हम ज़िक्र करेंगे एक ऐसी ही फ़िल्म का जिसका निर्माण किया था प्राणलाल मेहता और गुलज़ार ने। पटकथा, निर्देशन और गीत गुलज़ार साहब के थे और संगीत था राहुल देव बर्मन का। जी हाँ, यह फ़िल्म थी 'किताब'। मुख्य भुमिकाओं में थे उत्तम कुमार, विद्या सिंहा, श्रीराम लागू, केष्टो मुखर्जी, असीत सेन, और दो नन्हे किरदार - मास्टर राजू और मास्टर टीटो। 'किताब' की कहानी एक बच्चे के मनोभाव पर केन्द्रित थी। बाबला (मास्टर राजू) अपनी माँ (दीना पाठक) क