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मगर चादर से बाहर पाँव फैलाना नहीं आता....उस्ताद शायर "यास" यगाना चंगेजी की ग़ज़ल, शिशिर पारखी की आवाज़ में

शिशिर पारखी हिंद युग्म संगीत परिवार के अहम् स्तम्भ हैं. अपनी मखमली आवाज़ और बेजोड़ ग़ज़ल गायन से पिछले लगभग ९-१० महीनों से आवाज़ के श्रोताओं का दिल जीतते रहे हैं. अपनी ग़ज़लों के माध्यम से उन्होंने कई बड़े और उस्ताद शायरों के कलामों को बेहद खूबसूरत अंदाज़ में हमारे रूबरू रखा है. "एहतराम" की सफलता के बाद आजकल शिशिर अपनी दूसरी एल्बम की तैयारी में हैं. देश विदेश के विभिन्न शहरों में कार्यक्रमों में शिरकत के दौरान भी वो आवाज़ पर आना नहीं भूलते, और बीच बीच में अपनी रिकॉर्डइंग हमें भेज कर अपनी आवाज़ के बदलते रूपों से हमें अवगत भी कराते रहते हैं. ऐसी ही उनकी भेजी एक ग़ज़ल आज हम आप सब के साथ बाँट रहे हैं जिसे उन्होंने धुन और अपनी आवाज़ देकर सजाया है. आज जिस शायर को शिशिर हमारे रूबरू लेकर आये हैं वो उस्ताद शायर हैं, मिर्जा यास यगाना चंगेजी (शायर के बारे में अधिक जानकारी जल्द ही उपलब्ध होगी) मुझे दिल की खता पर 'यास' शर्माना नहीं आता. पराया जुर्म अपने नाम लिखवाना नहीं आता बुरा हो पा-ए-सरकश का कि थक जाना नहीं आता कभी गुम राह हो कर राह पर आना नहीं आता मुझे ऐ नाखुदा आखिर किसी

ये मेरा दीवानापन है या मोहब्बत का सरूर.... एक सदाबहार गीत मुकेश का गाया

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 148 रो म में एक समय ऐसा था जब यहूदियों के साथ बड़ी ज़्यादतियाँ की जाती थी। फ़िल्म 'यहूदी' की कहानी भी इसी समय को आधार बनाकर लिखी गयी 'पीरियड फ़िल्म' थी। यह कहानी थी एक यहूदी लड़की की, कि किस तरह से उसे एक रोमन राजकुमार से प्यार हो जाता है, और फिर रोमन समाज उस प्यार को क्या अंजाम देता है। बिमल राय निर्देशित यह फ़िल्म आयी थी सन् १९५८ में। फ़िल्म में कई बड़े कलाकार थे जैसे कि सोहराब मोदी (एज़रा), दिलीप कुमार (प्रिंस मारकस), मीना कुमारी (हना), नासिर हुसैन (ब्रूटस) और निगार सुल्ताना (औक्टाविया)। हृषिकेश मुखर्जी ने इस फ़िल्म की एडिटिंग की थी। एक विदेशी पीरियड फ़िल्म होने की वजह से इस फ़िल्म के गीत संगीत की ज़िम्मेदारी एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी थी। किसी भी पीरियड फ़िल्म में उस समय के संगीत का होना बेहद ज़रूरी हो जाता है वर्ना फ़िल्म की आत्मा ही ख़त्म हो जाती है। और अगर कहानी विदेशी हो तो मामला और भी गम्भीर हो जाता है। इस मामले में यह ज़रूर कहना पड़ेगा कि इस फ़िल्म के संगीतकार शंकर जयकिशन ने गीतों में वही रंग भरने की पूरी पूरी कोशिश की है। इससे पहले शंकर

गुल हुई जाती है अफ़सुर्दा सुलगती हुई शाम....... महफ़िल-ए-नौखेज़ और "फ़ैज़"

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #३१ आ ज की महफ़िल बड़ी हीं खुश-किस्मत है। आज हमारी इस महफ़िल में एक ऐसे शम्म-ए-चरागां तशरीफ़फ़रमां हैं कि उनकी आवभगत के लिए अपनी जबानी कुछ कहना उनकी शान में गुस्ताखी के बराबर होगा। इसलिए हमने यह निर्णय लिया है कि इनके बारे में या तो इन्हीं का कहा कुछ पेश करेंगे या फिर इनके जानने वालों का कहा। इनकी शायरी के बारे में उर्दू के एक बुजुर्ग शायर "असर" लखनवी फ़रमाते हैं: "इनकी शायरी तरक़्की के मदारिज (दर्जे) तय करके अब इस नुक्ता-ए-उरूज (शिखर-बिन्दु) पर पहुंच गई है, जिस तक शायद ही किसी दूसरे तरक्क़ी-पसंद (प्रगतिशील) शायर की रसाई हुई हो। तख़य्युल (कल्पना) ने सनाअत (शिल्प) के जौहर दिखाए हैं और मासूम जज़्बात को हसीन पैकर (आकार) बख़्शा है। ऐसा मालूम होता है कि परियों का एक ग़ौल (झुण्ड) एक तिलिस्मी फ़ज़ा (जादुई वातावरण) में इस तरह मस्ते-परवाज़ (उड़ने में मस्त) है कि एक पर एक की छूत पड़ रही है और क़ौसे-कुज़ह (इन्द्रधनुष) के अक़्कास (प्रतिरूपक) बादलों से सबरंगी बारिश हो रही है।" पंजाब के सियालकोट में जन्मे इस बेमिसाल शायर को "उर्दू" अदब और "उर्दू&qu