जब रंजना भाटिया "रंजू" ,रूबरू हुई गुलज़ार की कलम के तिलिस्म से ... मैं जब छांव छांव चला था अपना बदन बचा कर कि रूह को एक खूबसूरत जिस्म दे दूँ न कोई सिलवट .न दाग कोई न धूप झुलसे, न चोट खाएं न जख्म छुए, न दर्द पहुंचे बस एक कोरी कंवारी सुबह का जिस्म पहना दूँ, रूह को मैं मगर तपी जब दोपहर दर्दों की, दर्द की धूप से जो गुजरा तो रूह को छांव मिल गई है . अजीब है दर्द और तस्कीं [शान्ति ] का साँझा रिश्ता मिलेगी छांव तो बस कहीं धूप में मिलेगी ... जिस शख्स को शान्ति तुष्टि भी धूप में नज़र आती है उसकी लिखी एक एक पंक्ति, एक एक लफ्ज़ के, साए से हो कर जब दिल गुजरता है, तो यकीनन् इस शख्स से प्यार करने लगता है सुबह की ताजगी हो, रात की चांदनी हो, सांझ की झुरमुट हो या सूरज का ताप, उन्हें खूबसूरती से अपने लफ्जों में पिरो कर किसी भी रंग में रंगने का हुनर तो बस गुलजार साहब को ही आता है। मुहावरों के नये प्रयोग अपने आप खुलने लगते हैं उनकी कलम से। बात चाहे रस की हो या गंध की, उनके पास जा कर सभी अपना वजूद भूल कर उनके हो जाते हैं और उनकी लेखनी में रचबस जाते है। यादों और सच को वे एक नया रूप दे देते है। उदासी