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कलाकार की कोई पार्टी नही होती - दलेर मेहंदी

सप्ताह की संगीत सुर्खियाँ (६) टेलंट शो कितने कारगर एक ज़माने में हुए एक बड़ी "प्रतिभा खोज" के फलस्वरूप हमें मिले थे महेंद्र कपूर, सुरेश वाडकर जिनका हमने पिछले दिनों आवाज़ पर जिक्र किया था वो भी इसी रास्ते से फ़िल्म इंडस्ट्री में आए. १९९६ में "मेरी आवाज़ सुनो" की विजेता थी हम सब की प्रिय सुनिधी चौहान. इसी प्रतियोगिता में दूसरे स्थान पर रही वैशाली सावंत मानती है कि टेलंट शो मात्र आपको दुनिया के सामने प्रस्तुत कर देते हैं असली संघर्ष तो उसके बाद ही शुरू होता है. ख़ुद वैशाली को सात साल लगे प्रतियोगिता के बाद "आइका दाजिबा" तक का सफर तय करने में. रॉक ऑन ने गायन की शुरुआत करने वाली गायिका केरालिसा मोंटेरियो भी मानती हैं कि "आज भी बहुत से नए कलाकार पारंपरिक तरीके से शुरुआत करना पसंद करते हैं. अनुभव आपको इसी से मिलता है कि आप संगीतकारों से मिलें, बात करें और गानों के बनने की प्रक्रिया और उसका मर्म समझें. अक्सर इन प्रतियोगिताओं के विजेता ये मान बैठते हैं कि बस अब मंजिल मिल गई. पर ऐसा नही होता. एक बार शो खत्म होने के बाद उन्हें राह दिखाने वाला कोई नही होता." ज