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रंगमहल के दस दरवाज़े न जाने कौन सी खिडकी खुली थी...शोभा गुर्टू

सुर संगम - 22 - शोभा गुर्टू वे न केवल अपने गले की आवाज़ से बल्कि अपनी आँखों से भी गाती थीं। एक गीत से दूसरे में जैसे किसी कविता के चरित्रों की भांति वे भाव बदलती थीं, चाहे वह रयात्मक या प्रेमी द्वारा ठुकराया हुआ हो अथवा नख़रेबाज़ या इश्क्बाज़ हो। सु र-संगम के २२वें साप्ताहिक अंक में मैं सुमित चक्रवर्ती आप सभी संगीत प्रेमियों का अभिनन्दन करता हूँ। आज रविवार की आपकी सुबह को मनमोहक बनाने के लिए हम एक ऐसी गायिका के बारे में चर्चा करेंगे जिनकी आवाज़ को सुनते ही आपका मन प्रसन्न हो उठेगा। एक ऐसी शास्त्रीय शिल्पी जिन्होंनें ठुमरी शैली को विश्व भर में प्रसिद्ध किया, जिन्हें "ठुमरी क्वीन" (ठुमरियों की रानी) कहा जाता है। जी, आपने ठीक पहचाना, मेरा इशारा श्रीमति शोभा गुर्टू की ओर ही है! शोभा गुर्टू(असली नाम भानुमति शिरोडकर) का जन्म कर्णाटक के बेलगाम ज़िले में १९२५ को हुआ था| उनकी माताजी श्रीमती मेनेकाबाई शिरोडकर स्वयं एक नृत्यांगना थीं तथा जयपुर-अतरौली घराने के उस्ताद अल्लादिया ख़ाँ से गायकी सीखती थीं| शास्त्रीय संगीत सीखने की प्रेरणा उन्हें अपनी माँ से ही मिली| शोभा जी ने संगीत की प्राथ

खुसरो कहै बातें ग़ज़ब, दिल में न लावे कुछ अजब... शोभा गुर्टू ने फिर से ज़िंदा किया खुसरो को

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #६४ पि छली ग्यारह कड़ियों से हम आपको आपकी हीं फ़रमाईश सुनवा रहे थे। सीमा जी की पसंद की पाँच गज़लें/नज़्में, शरद जी और शामिख जी की तीन-तीन पसंदीदा गज़लों/नज़्मों को सुनवाने के बाद हम वापस अपने पुराने ढर्रे पर लौट आए हैं। तो हम आज जिस गज़ल को लेकर इस महफ़िल में हाज़िर हुए हैं, उसका अंदाज़ कुछ अलहदा है। अलहदा इसलिए है क्योंकि इसे लिखा हीं अलग तरीके से गया है और जिसने लिखा है उसकी तारीफ़ में कुछ कहना बड़े-बड़े ज्ञानियों को दुहराने जैसा हीं होगा। फिर भी हम कोशिश करेंगे कि उनके बारे में कुछ जानकारियाँ आपको दे दें..वैसे हम उम्मीद करते हैं कि आप सब उनसे ज़रूर वाकिफ़ होंगे। इस गज़ल के गज़लगो हीं नहीं बल्कि इस गज़ल की गायिका भी बड़ी हीं खास हैं। यह अलग बात है कि गज़लगो मध्य-युग से ताल्लुक रखते हैं तो गायिका बीसवीं शताब्दी से..फिर भी दोनों अपने-अपने क्षेत्र में बड़ा हीं ऊँचा मुकाम रखते हैं। हम गज़लगो के बारे में कुछ कहें उससे पहले क्यों न गायिका से अपना और आप सबका परिचय करा दिया जाए। इन्हें "ठुमरी क़्वीन" के नाम से जाना जाता रहा है। ८ फरवरी १९२५ को कर्नाटक के बेलगाम में ज