स्मृतियों के स्वर - 08
"फिर जाए जो उस पार कभी लौट के न आए..."
मुकेश का अन्तिम दिन बेटे नितिन मुकेश की स्मृतियों में
मुकेश का अन्तिम दिन बेटे नितिन मुकेश की स्मृतियों में
'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार! दोस्तों, एक ज़माना था जब घर बैठे प्राप्त होने वाले मनोरंजन का एकमात्र साधन रेडियो हुआ करता था। गीत-संगीत सुनने के साथ-साथ बहुत से कार्यक्रम ऐसे हुआ करते थे जिनमें कलाकारों से साक्षात्कार करवाये जाते थे और जिनके ज़रिये फ़िल्म और संगीत जगत के इन हस्तियों की ज़िन्दगी से जुड़ी बहुत सी बातें जानने को मिलती थी। गुज़रे ज़माने के इन अमर फ़नकारों की आवाज़ें आज केवल आकाशवाणी और दूरदर्शन के संग्रहालय में ही सुरक्षित हैं। मैं ख़ुशक़िस्मत हूँ कि शौकिया तौर पर मैंने पिछले बीस वर्षों में बहुत से ऐसे कार्यक्रमों को लिपिबद्ध कर अपने पास एक ख़ज़ाने के रूप में समेट रखा है। 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' पर, महीने के हर दूसरे और चौथे शनिवार को इसी ख़ज़ाने में से मैं निकाल लाता हूँ कुछ अनमोल मोतियाँ हमारे इस स्तम्भ में, जिसका शीर्षक है- स्मृतियों के स्वर। इस स्तम्भ में हम और आप साथ मिल कर गुज़रते हैं स्मृतियों के इन हसीन गलियारों से। आज प्रस्तुत है 27 अगस्त 1976 की उस दुखद घटना का ब्योरा जब हमारे प्रिय गायक मुकेश इस दुनिया को छोड़ गये थे। अपने पिता के अन्तिम दिन की दास्तान बता रहे हैं नितिन मुकेश।
सूत्र : अमीन सायानी द्वारा प्रस्तुत 'सरगम के सितारों की महफ़िल' कार्यक्रम
"मैं जानता हूँ कि आप सब मेरे पापा को इतना प्यार करते हैं, इसलिए मैं कुछ ऐसी बातें कहना चाहता हूँ उन दिनों की जो उनकी ज़िंदगी के आ़ख़िरी दिन थे। 27 जुलाई की रात मैं और पापा रवाना हुए न्यूयार्क के लिए। न्यूयार्क से फिर हम कनाडा गये, वैन्कोवर। वहाँ हमें दीदी मिलने वाली थीं। दीदी हैं लता मंगेशकर जी, दुनिया की, हमारे देश की महान कलाकार, मगर हमारे लिए तो बहन, दीदी, बहुत प्यारी हैं। वो हमें वैन्कोवर में मिलीं। फिर शोज़ शुरु हुए, पहली अगस्त को पहला शो आरम्भ हुआ। और उसके बाद 10 शोज़ और होने थे। एक के बाद एक शो बहुत बढ़िया हुए, लोगों को बहुत पसंद आए। लोगों ने बहुत प्यार बरसाया, ऐसा लगा कि शोहरत के शिखर पर पहुँच गए हैं दोनों। दीदी तो बहुत महान कलाकार हैं, मगर उनके साथ जा के, उनके साथ एक मंच पर गा के पापा को भी बहुत इज़्ज़त मिली और बहुत शोहरत मिली। इसी तरह से 6 शोज़ बहुत अच्छी तरह हो गए। फिर सातवाँ शो था मोनट्रीयल में। वहाँ एक ऐसी घटना घटी, जिससे पापा बहुत ख़ुश हुए मगर मैं ज़रा घबरा गया। वहाँ उन दो महान कलाकारों के साथ मुझे भी गाने को कहा गया, और आप यकीन मानिए, मेरे में हिम्मत बिल्कुल नहीं थी मगर दीदी ने मुझे बहुत साहस दिया, बहुत हिम्मत दी, और इस वजह से मैं स्टेज पर आया। मेरा गाना सुन के, दीदी के साथ खड़ा हो के मैं गा रहा हूँ, यह देख के पापा बहुत ख़ुश हुए, बहुत ज़्यादा ख़ुश हुए, और मुझे बहुत प्यार किया, बहुत आशिर्वाद दिए।
फिर वह दिन आया, 27 अगस्त, उस दिन शाम को डेट्रायट में शो था। उस दिन मुझे इतना प्यार किया, इतना छेड़ा, इतना लाड़ किया कि जब मैं आज सोचता हूँ कि 26 साल की उम्र में शायद कभी इतना प्यार नहीं किया होगा। 4-30 बजे दोपहर को कहने लगे कि 'हारमोनियम मँगवायो बेटे, मैं ज़रा रियाज़ करूँगा', मैने हारमोनियम निकाल के उनके सामने रखा, वो रियाज़ करने लगे। मुझे ऐसा लग रहा था कि आवाज़ बहुत ख़ूबसूरत लग रही थी, और बहुत ही मग्न हो गए थे अपने ही संगीत में। जब रियाज़ कर चुके तो मुझसे बोले कि 'एक प्याला चाय मँगवा, मैं आज एक दम फ़िट हूँ', और हँसने लगे। कहने लगे कि 'जल्दी जल्दी तैयार हो जाओ, कहीं देर न हो जाए शो के लिए'। कह कर वो स्नान करने चले गए। मुझे ज़रा भी शक़ नहीं था कि कुछ होने वाला है, इसलिए मैं ख़ुद रियाज़ करने बैठ गया। कुछ देर के बाद बाथरूम का दरवाज़ा खुला तो मैने देखा कि पापा वहाँ हाँफ़ रहे थे, उनका साँस फूल रहा था, मैं एकदम घबरा गया, और घबरा के होटल के औपरेटर से कहा कि डाक्टर को जल्दी भेजो। फिर मैने दीदी (लता) को फ़ोन करने लगा तो बहुत प्यार से धुतकारने लगे, कहने लगे कि 'दीदी को परेशान मत करो, मैं इंजेक्शन ले लूँगा, ठीक हो जाउँगा, फिर शाम की शो में हम चलेंगे'। पर मैं उनकी नहीं सुनने वाला था, मैने दीदी को जल्दी बुला लिया, और 5-7 मिनट में दीदी भी आ गयीं, डाक्टर भी आ गए, और ऐम्बुलैन्स में ले जाने लगे। तब मैने उनके जीवन की जो सब से प्यारी चीज़ थी, उनके पास रखी, तुल्सी रामायण। उसके बाद हम ऐम्बुलैन्स में बैठ के अस्पताल की ओर चले। अब वो मेरा हौसला बढ़ाने लगे, 'बेटा, मुझे कुछ नहीं होगा, मैं बिल्कुल ठीक हूँ, मैं बिल्कुल ठीक हो जाउँगा', ये सब कहते हुए अस्पताल पहुँचे। पहुँचने के बाद जब उन्हे पता चला कि उन्हे 'आइ.सी.यू' में ले जाया जा रहा है, जितना प्यार, जितनी जान बाक़ी थी, मेरी तरफ़ देख के मुस्कुराये, और बहुत प्यार से, अपना हाथ उठा के मुझे 'बाइ बाइ' किया। इसके बाद उन्हे अंदर ले गए, और इसके बाद मैं उन्हे कभी नहीं देख सका।"
लता मंगेशकर, जो अपने मुकेश भइया के उस अंतिम घड़ी में उनके साथ थीं, उनके गुज़र जाने के बाद अपने शोक संदेश में कहा था:
"मुकेश, जो आप सब के प्रिय गायक थे, उनमें बड़ी विनय थी। मुकेश के स्वर्गवास पे दुनिया के कोने कोने में संगीत के लाखों प्रेमियों के आँखों से आँसू बहे। मेरी आँखों ने उन्हे अमरीका में दम तोड़ते हुए देखा। आँसू भरी आँखों से मैने मुकेश भइया के पार्थिव शरीर को अमरीका से विदा होते देखा। मुकेश भइया को श्रद्धांजली देने के लिए तीन शब्द हैं, जिनमें एक उनकी भावना कह सकते हैं कि जिसमें एक कलाकार दूसरे कलाकार की महान कला की प्रशंसा करते हैं। उनकी मधुर आवाज़ ने कितने लोगों का मनोरंजन किया, जिसकी गिनती करते करते न जाने कितने वर्ष बीत जाएँगे। जब जब पुरानी बातें याद आती हैं तो आँखें भर जाती हैं।"
"दे दे के ये आवाज़ कोई हर घड़ी बुलाए,
फिर जाए जो उस पार कभी लौट के न आए,
है भेद ये कैसा कोई कुछ तो बताना,
ओ जानेवाले हो सके तो लौट के आना।"
लीजिए, अब आप यही गीत सुनिए-
"मैं जानता हूँ कि आप सब मेरे पापा को इतना प्यार करते हैं, इसलिए मैं कुछ ऐसी बातें कहना चाहता हूँ उन दिनों की जो उनकी ज़िंदगी के आ़ख़िरी दिन थे। 27 जुलाई की रात मैं और पापा रवाना हुए न्यूयार्क के लिए। न्यूयार्क से फिर हम कनाडा गये, वैन्कोवर। वहाँ हमें दीदी मिलने वाली थीं। दीदी हैं लता मंगेशकर जी, दुनिया की, हमारे देश की महान कलाकार, मगर हमारे लिए तो बहन, दीदी, बहुत प्यारी हैं। वो हमें वैन्कोवर में मिलीं। फिर शोज़ शुरु हुए, पहली अगस्त को पहला शो आरम्भ हुआ। और उसके बाद 10 शोज़ और होने थे। एक के बाद एक शो बहुत बढ़िया हुए, लोगों को बहुत पसंद आए। लोगों ने बहुत प्यार बरसाया, ऐसा लगा कि शोहरत के शिखर पर पहुँच गए हैं दोनों। दीदी तो बहुत महान कलाकार हैं, मगर उनके साथ जा के, उनके साथ एक मंच पर गा के पापा को भी बहुत इज़्ज़त मिली और बहुत शोहरत मिली। इसी तरह से 6 शोज़ बहुत अच्छी तरह हो गए। फिर सातवाँ शो था मोनट्रीयल में। वहाँ एक ऐसी घटना घटी, जिससे पापा बहुत ख़ुश हुए मगर मैं ज़रा घबरा गया। वहाँ उन दो महान कलाकारों के साथ मुझे भी गाने को कहा गया, और आप यकीन मानिए, मेरे में हिम्मत बिल्कुल नहीं थी मगर दीदी ने मुझे बहुत साहस दिया, बहुत हिम्मत दी, और इस वजह से मैं स्टेज पर आया। मेरा गाना सुन के, दीदी के साथ खड़ा हो के मैं गा रहा हूँ, यह देख के पापा बहुत ख़ुश हुए, बहुत ज़्यादा ख़ुश हुए, और मुझे बहुत प्यार किया, बहुत आशिर्वाद दिए।
लता मंगेशकर, जो अपने मुकेश भइया के उस अंतिम घड़ी में उनके साथ थीं, उनके गुज़र जाने के बाद अपने शोक संदेश में कहा था:
"दे दे के ये आवाज़ कोई हर घड़ी बुलाए,
फिर जाए जो उस पार कभी लौट के न आए,
है भेद ये कैसा कोई कुछ तो बताना,
ओ जानेवाले हो सके तो लौट के आना।"
लीजिए, अब आप यही गीत सुनिए-
फिल्म - बंदिनी : 'ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना...' : मुकेश : संगीत - सचिनदेव बर्मन : गीतकार - शैलेन्द्र
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ज़रूरी सूचना:: उपर्युक्त लेख 'SARGAM KE SITAARON KI MEHFIL' कार्यक्रम का अंश है। इसके सभी अधिकार AMEEN SAYANI के पास सुरक्षित हैं। किसी भी व्यक्ति या संस्था द्वारा इस प्रस्तुति का इस्तमाल व्यावसायिक रूप में करना कॉपीराइट कानून के ख़िलाफ़ होगा, जिसके लिए 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' ज़िम्मेदार नहीं होगा।
तो दोस्तों, आज बस इतना ही। आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आयी होगी। अगली बार ऐसे ही किसी स्मृतियों की गलियारों से आपको लिए चलेंगे उस स्वर्णिम युग में। तब तक के लिए अपने इस दोस्त, सुजॉय चटर्जी को अनुमति दीजिये, नमस्कार! इस स्तम्भ के लिए आप अपने विचार और प्रतिक्रिया नीचे टिप्पणी में व्यक्त कर सकते हैं, हमें अत्यन्त ख़ुशी होगी।
प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी