ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 693/2011/133
फिल्मों में ठुमरी के प्रयोग पर केन्द्रित श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" की तेरहवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार फिर आपका स्वागत करता हूँ| कल की कड़ी में हमने "पछाहीं ठुमरी" की कुछ प्रमुख विशेषताओं और रचनाकारों से आपका परिचय कराया था| आज हम इसी प्रसंग को आगे बढ़ाते हुए ठुमरी के क्रमशः विस्तृत होते क्षेत्र पर भी चर्चा करेंगे| उन्नीसवी शताब्दी के अन्तिम दशक में नज़र अली और उनके भाई कदर अली ठुमरी के बड़े प्रवीण गायक हुए| ये दोनों भाई संगीतजीवी वर्ग के थे और मूलतः लखनऊ-निवासी थे| बाद में दोनों भाई ग्वालियर जाकर बस गए| नज़र अली ने "नज़रपिया" नाम से अनेक ठुमरियों की रचना की| इनकी अधिकतर ठुमरियाँ बोल-बाँट की हैं| ग्वालियर के सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ राजभैया पुँछवाले ने भी नज़रपिया से ठुमरी गायन सीखा था|
उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक जनसामान्य में ठुमरी गायन इतना लोकप्रिय हो चला था कि तवायफों के अतिरिक्त उस समय देश के अनेक घरानेदार और प्रतिष्ठित ध्रुवपद तथा ख़याल गायकों ने इसे बड़े शौक से अपनाया| ध्रुवपद गायकों में मथुरा के चन्दन चौबे, ख़याल गायकों में ग्वालियर के रहमत खाँ, शंकरराव पण्डित, महाराष्ट्र के भास्करराव बखले तथा रामकृष्ण बुवा बझे आदि प्रमुख थे| रहमत खाँ और शंकरराव पण्डित की ठुमरियों के ग्रामोफोन रिकार्ड भी बने जिनमें रहमत खाँ द्वारा गायी ठुमरी भैरवी -"यमुना के तीर..." और शंकरराव पण्डित द्वरा गायी राग धानी की ठुमरी -"कृष्णमुरारी विनती करत हारी..." बहुत लोकप्रिय हुई थी| शंकरराव पण्डित की ठुमरी का रिकार्ड सुनकर ही सुप्रसिद्ध गायक राजभैया पुँछवाले अभिभूत हो गए थे| उस समय के घरानेदार ख़याल गायकों में आगरे के प्यारे खाँ और उनके पुत्रगण लतीफ़ खाँ और महमूद खाँ की रुझान भी ठुमरी गायन की ओर अधिक थी और ये लोग ठुमरी गायन में बहुत प्रवीण हुए| यह तीनों गायक राजस्थान के जयपुर, शाहपुर और भदावर रियासतों से सम्बद्ध थे| बीसवीं शताब्दी के दो दशक बीतते-बीतते अपनी कलात्मकता और स्वाभाविक माधुर्य के कारण ठुमरी ने भारतीय जनमानस को इतना प्रभावित किया कि अनेक प्रतिष्ठित गायकों ने संगीत-सभाओं और संगीत-सम्मेलनों में इसे गाना प्रारम्भ कर दिया था| ठुमरी गायन के प्रति प्रतिष्ठित संगीतज्ञों के झुकाव के परिणामस्वरुप संगीत के शास्त्रज्ञ विद्वानों का ध्यान भी इस ओर गया|
आज हम आपको जो ठुमरी सुनवाने जा रहे हैं वह हमने 1966 में प्रदर्शित फिल्म "ममता" से लिया है| यह फिल्म इस वर्ष की श्रेष्ठतम संगीत प्रधान फिल्म थी| फिल्म के संगीतकार रोशन इस फिल्म के दौरान अपने उत्कर्ष पर थे| रोशन ने इस फिल्म में एक से बढ़ कर एक, राग आधारित संगीत रचनाएँ की थीं, चाहे वह -"रहते थे कभी जिनके दिल में..." (मिश्र खमाज") या फिर -"चाहे तो मोरा जिया लईले..." (पीलू), सभी गीत बेहद लोकप्रिय हुए थे| फिल्म के गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी ने तो मानो विविध भावों को अपने गीतों में उड़ेल दिया था| इसे रोशन का दुर्भाग्य कहा जाए या फिर तत्कालीन फिल्म पुरस्कारों में प्रवेश कर चुकी राजनीति, 1966 के सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का पुरस्कार फिल्म "सूरज" के लिए शंकर-जयकिशन को प्राप्त हुआ था, जबकि फिल्म "सूरज" का संगीत "ममता" के आगे कहीं नहीं ठहरता| इन दोनों फिल्मों के बीच फिल्म "गाइड" भी थी, जिसके संगीत का स्तर "सूरज" से तो बेहतर ही था| बहरहाल, "ममता" का संगीत फिल्म के दर्शकों और समीक्षकों की दृष्टि में सर्वश्रेष्ठ था| आज भी ये गीत 'सदाबहार' बने हुए हैं| इस फिल्म में रोशन ने ग़ज़ल-गीत के साथ ठुमरी को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया था| ठुमरी और कव्वाली रोशन की प्रिय शैलियाँ थी| उनकी इस विशेषता का कारण निश्चित रूप से लखनऊ के मैरिस म्यूजिक कालेज (वर्तमान भातखंडे संगीत विश्वविद्यालय) से संगीत की शिक्षा ही थी| रोशन के गुरु और कालेज के तत्कालीन प्रधानाचार्य डा. श्रीकृष्ण नारायण रातनजनकर भी ठुमरी गायकी के विद्वान थे और उनका एक ठुमरी संग्रह भी प्रकाशित हुआ था| आज फिल्म "ममता" की ही राग "पीलू", दादरा ताल में निबद्ध, मान-मनुहार से युक्त ठुमरी -"चाहे तो मोरा जिया लईले..." के साथ हम उपस्थित हुए हैं| इस ठुमरी की एक विशेषता यह भी है कि यह पारम्परिक ठुमरी नहीं है, बल्कि मजरूह सुल्तानपुरी की एक मधुर रचना का ठुमरीकरण है| लीजिए आप भी इस मोहक ठुमरी की रसानुभूति करें -
क्या आप जानते हैं...
कि संगीतकार रोशन बहुत अच्छा दिलरुबा बजाते थे, और उनका दिलरुबा सुन कर ही ज़ेड. ए. बुख़ारी नें ऑल इण्डिया रेडिओ में ७० रुपय के वेतन पर उन्हें नौकरी दे दी, जहाँ रोशन १२ वर्ष तक कार्यरत रहे।
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली 14/शृंखला 19
गीत का ये हिस्सा सुनें-
अतिरिक्त सूत्र - लता जी की आवाज़ है.
सवाल १ - किस राग पर आधारित है रचना - ३ अंक
सवाल २ - किस संगीतकार ने इस पारंपरिक ठुमरी को संयोजित किया था - २ अंक
सवाल ३ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
अमित और क्षिति जो बहुत बधाई, इंदु जी का भी खाता खुल गया
खोज व आलेख- कृष्ण मोहन मिश्र
फिल्मों में ठुमरी के प्रयोग पर केन्द्रित श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" की तेरहवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार फिर आपका स्वागत करता हूँ| कल की कड़ी में हमने "पछाहीं ठुमरी" की कुछ प्रमुख विशेषताओं और रचनाकारों से आपका परिचय कराया था| आज हम इसी प्रसंग को आगे बढ़ाते हुए ठुमरी के क्रमशः विस्तृत होते क्षेत्र पर भी चर्चा करेंगे| उन्नीसवी शताब्दी के अन्तिम दशक में नज़र अली और उनके भाई कदर अली ठुमरी के बड़े प्रवीण गायक हुए| ये दोनों भाई संगीतजीवी वर्ग के थे और मूलतः लखनऊ-निवासी थे| बाद में दोनों भाई ग्वालियर जाकर बस गए| नज़र अली ने "नज़रपिया" नाम से अनेक ठुमरियों की रचना की| इनकी अधिकतर ठुमरियाँ बोल-बाँट की हैं| ग्वालियर के सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ राजभैया पुँछवाले ने भी नज़रपिया से ठुमरी गायन सीखा था|
उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक जनसामान्य में ठुमरी गायन इतना लोकप्रिय हो चला था कि तवायफों के अतिरिक्त उस समय देश के अनेक घरानेदार और प्रतिष्ठित ध्रुवपद तथा ख़याल गायकों ने इसे बड़े शौक से अपनाया| ध्रुवपद गायकों में मथुरा के चन्दन चौबे, ख़याल गायकों में ग्वालियर के रहमत खाँ, शंकरराव पण्डित, महाराष्ट्र के भास्करराव बखले तथा रामकृष्ण बुवा बझे आदि प्रमुख थे| रहमत खाँ और शंकरराव पण्डित की ठुमरियों के ग्रामोफोन रिकार्ड भी बने जिनमें रहमत खाँ द्वारा गायी ठुमरी भैरवी -"यमुना के तीर..." और शंकरराव पण्डित द्वरा गायी राग धानी की ठुमरी -"कृष्णमुरारी विनती करत हारी..." बहुत लोकप्रिय हुई थी| शंकरराव पण्डित की ठुमरी का रिकार्ड सुनकर ही सुप्रसिद्ध गायक राजभैया पुँछवाले अभिभूत हो गए थे| उस समय के घरानेदार ख़याल गायकों में आगरे के प्यारे खाँ और उनके पुत्रगण लतीफ़ खाँ और महमूद खाँ की रुझान भी ठुमरी गायन की ओर अधिक थी और ये लोग ठुमरी गायन में बहुत प्रवीण हुए| यह तीनों गायक राजस्थान के जयपुर, शाहपुर और भदावर रियासतों से सम्बद्ध थे| बीसवीं शताब्दी के दो दशक बीतते-बीतते अपनी कलात्मकता और स्वाभाविक माधुर्य के कारण ठुमरी ने भारतीय जनमानस को इतना प्रभावित किया कि अनेक प्रतिष्ठित गायकों ने संगीत-सभाओं और संगीत-सम्मेलनों में इसे गाना प्रारम्भ कर दिया था| ठुमरी गायन के प्रति प्रतिष्ठित संगीतज्ञों के झुकाव के परिणामस्वरुप संगीत के शास्त्रज्ञ विद्वानों का ध्यान भी इस ओर गया|
आज हम आपको जो ठुमरी सुनवाने जा रहे हैं वह हमने 1966 में प्रदर्शित फिल्म "ममता" से लिया है| यह फिल्म इस वर्ष की श्रेष्ठतम संगीत प्रधान फिल्म थी| फिल्म के संगीतकार रोशन इस फिल्म के दौरान अपने उत्कर्ष पर थे| रोशन ने इस फिल्म में एक से बढ़ कर एक, राग आधारित संगीत रचनाएँ की थीं, चाहे वह -"रहते थे कभी जिनके दिल में..." (मिश्र खमाज") या फिर -"चाहे तो मोरा जिया लईले..." (पीलू), सभी गीत बेहद लोकप्रिय हुए थे| फिल्म के गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी ने तो मानो विविध भावों को अपने गीतों में उड़ेल दिया था| इसे रोशन का दुर्भाग्य कहा जाए या फिर तत्कालीन फिल्म पुरस्कारों में प्रवेश कर चुकी राजनीति, 1966 के सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का पुरस्कार फिल्म "सूरज" के लिए शंकर-जयकिशन को प्राप्त हुआ था, जबकि फिल्म "सूरज" का संगीत "ममता" के आगे कहीं नहीं ठहरता| इन दोनों फिल्मों के बीच फिल्म "गाइड" भी थी, जिसके संगीत का स्तर "सूरज" से तो बेहतर ही था| बहरहाल, "ममता" का संगीत फिल्म के दर्शकों और समीक्षकों की दृष्टि में सर्वश्रेष्ठ था| आज भी ये गीत 'सदाबहार' बने हुए हैं| इस फिल्म में रोशन ने ग़ज़ल-गीत के साथ ठुमरी को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया था| ठुमरी और कव्वाली रोशन की प्रिय शैलियाँ थी| उनकी इस विशेषता का कारण निश्चित रूप से लखनऊ के मैरिस म्यूजिक कालेज (वर्तमान भातखंडे संगीत विश्वविद्यालय) से संगीत की शिक्षा ही थी| रोशन के गुरु और कालेज के तत्कालीन प्रधानाचार्य डा. श्रीकृष्ण नारायण रातनजनकर भी ठुमरी गायकी के विद्वान थे और उनका एक ठुमरी संग्रह भी प्रकाशित हुआ था| आज फिल्म "ममता" की ही राग "पीलू", दादरा ताल में निबद्ध, मान-मनुहार से युक्त ठुमरी -"चाहे तो मोरा जिया लईले..." के साथ हम उपस्थित हुए हैं| इस ठुमरी की एक विशेषता यह भी है कि यह पारम्परिक ठुमरी नहीं है, बल्कि मजरूह सुल्तानपुरी की एक मधुर रचना का ठुमरीकरण है| लीजिए आप भी इस मोहक ठुमरी की रसानुभूति करें -
क्या आप जानते हैं...
कि संगीतकार रोशन बहुत अच्छा दिलरुबा बजाते थे, और उनका दिलरुबा सुन कर ही ज़ेड. ए. बुख़ारी नें ऑल इण्डिया रेडिओ में ७० रुपय के वेतन पर उन्हें नौकरी दे दी, जहाँ रोशन १२ वर्ष तक कार्यरत रहे।
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली 14/शृंखला 19
गीत का ये हिस्सा सुनें-
अतिरिक्त सूत्र - लता जी की आवाज़ है.
सवाल १ - किस राग पर आधारित है रचना - ३ अंक
सवाल २ - किस संगीतकार ने इस पारंपरिक ठुमरी को संयोजित किया था - २ अंक
सवाल ३ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
अमित और क्षिति जो बहुत बधाई, इंदु जी का भी खाता खुल गया
खोज व आलेख- कृष्ण मोहन मिश्र
इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
Comments