सिने पहेली – 82                                   "मुझसे चलता है सर-ए-बज़्म सुखन का जादू  चाँद ज़ुल्फ़ों के निकलते है मेरे सीने से,  मैं दिखाता हूँ ख़यालात के चेहरे सब को  सूरतें आती हैं बाहर मेरे आईने से।   हाँ मगर आज मेरे तर्ज़-ए-बयां का यह हाल  अजनबी कोई किसी बज़्म-ए-सुखन में जैसे,  वो ख़यालों के सनम और वो अल्फ़ाज़ के चाँद  बेवतन हो गए हों अपने ही वतन में जैसे।   फिर भी क्या कम है, जहाँ रंग न ख़ुशबू है कोई  तेरे होंठों से महक जाते हैं अफ़कार मेरे,  मेरे लफ़्ज़ों को जो छू लेती है आवाज़ तेरी  सरहदें तोड़ के उड़ जाते हैं अशार मेरे।   तुझको मालूम नहीं, या तुझे मालूम भी हो  वो सियाह बख़्त जिन्हें ग़म ने सताया बरसों,  एक लम्हे को जो सुन लेते हैं तेरा नग़मा  फिर उन्हें रहती है जीने की तमन्ना बरसों।   जिस घड़ी डूब के आहंग में तू गाती है  आयतें पढ़ती है साज़ों की सदा तेरे लिए,  दम बदम ख़ैर मनाते हैं तेरी चंग-ओ-रबाब  सीने नये से निकलती है दुआ तेरे लिए।   नग़मा-ओ-साज़ के ज़ेवर से रहे तेरा सिंगार  हो तेरी माँग में तेरी ही सुरों की अफ़शां,  तेरी तानों से तेरी आँख में काजल की लकीर  ह...