एक गीत सौ कहानियाँ - 48      "बारूद के धुएँ में तू ही बोल जाएँ कहाँ..."                                              "आज पेशावर पाक़िस्तान में इंसानियत को शर्मिन्दा करने वाला जो हत्याकाण्ड हुआ, जिसमें कई मासूम लोगों और बच्चों को बेरहमी से मारा गया, वह सुन के मेरी रूह काँप गई। उन सभी के परिवारों के दुख में मैं शामिल हूँ"     - लता मंगेशकर, 16 दिसम्बर 2014          "हमसे ना देखा जाए बरबादियों का समा,    उजड़ी हुई बस्ती में ये तड़प रहे इंसान,    नन्हे जिस्मों के टुकड़े लिए खड़ी है एक माँ,    बारूद के धुएँ में तू ही बोल जाएँ कहाँ..."।    क रीब 15 साल पहले फ़िल्म ’पुकार’ के लिए लिखा गया यह गीत उस समय के परिदृश्य में जितना सार्थक था, आज 15 साल बाद भी उतना ही यथार्थ है। हालात अब भी वही हैं। आतंकवाद का ज़हर समूचे विश्व के रगों में इस क़दर फैल चुका है कि करीबी समय में इससे छुटकारा पाने का कोई भी आसार नज़र नहीं आ रहा है। आतंकवाद का रूप विकराल से विकरालतम होता जा रहा है। इससे पहले सार्वजनिक स्थानों पर हमला कर नागरिकों या फिर फ़ौजी जवानों पर हमला करने से बाज़ ना आते हुए अब ला...