स्वरगोष्ठी – ९६ में आज लौकिक और आध्यात्मिक भाव का बोध कराती ठुमरी   ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो जाय...’      चौथे से लेकर छठें दशक तक की हिन्दी फिल्मों के संगीतकारों ने राग आधारित  गीतों का प्रयोग कुछ अधिक किया था। उन दिनों शास्त्रीय मंचों पर या  ग्रामोफोन रेकार्ड के माध्यम से जो बन्दिशें, ठुमरी, दादरा आदि बेहद  लोकप्रिय होती थीं, उन्हें फिल्मों में कभी-कभी यथावत और कभी अन्तरे बदल कर  प्रयोग किये जाते रहे। चौथे दशक के कुछ संगीतकारों ने फिल्मों में  परम्परागत ठुमरियों का बड़ा स्वाभाविक प्रयोग किया था। फिल्मों में आवाज़ के  आगमन के इस पहले दौर में राग आधारित गीतों के गायन के लिए सर्वाधिक यश यदि  किसी गायक को प्राप्त हुआ, तो वह कुन्दनलाल (के.एल.) सहगल ही थे। उन्होने  १९३८ में प्रदर्शित ‘न्यू थियेटर’ की फिल्म ‘स्ट्रीट सिंगर’ में शामिल  पारम्परिक ठुमरी- ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो जाय...’ गाकर उसे कालजयी बना दिया।  ‘स्वरगोष्ठी’ के आज के अंक में आप संगीत-प्रेमियों के बीच, मैं कृष्णमोहन  मिश्र, भैरवी की इसी ठुमरी से जुड़े कुछ तथ्यों पर चर्चा करूँगा।              अ वध  के नवाब वाजिद अली शाह संगीत-नृत...