स्वरगोष्ठी – 180 में आज
वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप
उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’

भारतीय संगीत की प्रत्येक विधाओं में वर्षा ऋतु के गीत-संगीत उपस्थित हैं। लोक संगीत के क्षेत्र में कजरी एक सशक्त विधा है। भारतीय पंचांग के अनुसार आषाढ़ मास से लेकर आश्विन मास तक पूरे चार महीने उत्तर प्रदेश के ब्रज, बुन्देलखण्ड, अवध और पूरे पूर्वांचल और बिहार के प्रायः सभी हिस्से में कजरी गीतों की धूम मची रहती है। मूल रूप से कजरी लोक-संगीत की विधा है, किन्तु उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ में जब बनारस (अब वाराणसी) के संगीतकारों ने ठुमरी को एक शैली के रूप में अपनाया, उसके पहले से ही कजरी परम्परागत लोकशैली के रूप विद्यमान रही। उपशास्त्रीय संगीत के रूप में अपना लिये जाने पर कजरी, ठुमरी का एक अटूट हिस्सा बनी। इस प्रकार कजरी के मूल लोक-संगीत का स्वररोप और ठुमरी के साथ रागदारी संगीत का हिस्सा बने स्वररोप का समानान्तर विकास हुआ। अगले अंक में हमारी चर्चा का विषय कजरी का लोक-स्वरूप होगा, किन्तु आज के अंक में हम आपसे कजरी के रागदारी संगीत के कलासाधकों द्वारा अपनाए गए स्वरूप पर चर्चा करेंगे।
भारतीय लोक-संगीत के समृद्ध भण्डार में कुछ ऐसी संगीत शैलियाँ हैं, जिनका विस्तार क्षेत्रीयता की सीमा से बाहर निकल कर, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हुआ है। उत्तर प्रदेश के वाराणसी और मीरजापुर जनपद तथा उसके आसपास के पूरे पूर्वाञ्चल क्षेत्र में कजरी गीतों की बहुलता है। वर्षा ऋतु के परिवेश और इस मौसम में उपजने वाली मानवीय संवेदनाओं की अभियक्ति में कजरी गीत पूर्ण समर्थ लोक-शैली है। शास्त्रीय और उपशास्त्रीय संगीत के कलासाधकों द्वारा इस लोक-शैली को अपना लिये जाने से कजरी गीत आज राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर सुशोभित है। आज की संगोष्ठी का प्रारम्भ हम विश्वविख्यात गायिका विदुषी गिरिजा देवी की गायी, भक्ति और श्रृंगार रस से अभिसिंचित एक कजरी से करते है। इस प्रस्तुति में आपको कई रागों के झलक मिलेंगे। इस रचना में मुख्य रूप से राग मिश्र माँड का प्रभाव है, किन्तु कजरी सुनते समय राग पीलू और भैरवी के स्वर भी आभासित होंगे। यह कजरी दादरा ताल में निबद्ध है।
कजरी – मिश्र माँड : ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ : विदुषी गिरिजा देवी

कजरी : ‘बरसन लागी बदरिया रूम-झूम के...’ : पण्डित विद्याधर मिश्र

कजरी : ‘नीक सइयाँ बिन भवनवा नाहीं लागे सखिया...’ : गीता दत्त और कौमुदी मजुमदार : संगीत - एस.एन. त्रिपाठी
आज की पहेली
‘स्वरगोष्ठी’ के 180वें अंक की पहेली में आज हम आपको वाद्य संगीत रचना का एक अंश सुनवा रहे हैं। इसे सुन कर आपको दो प्रश्नों के उत्तर देने हैं। इस अंक की पहेली के सम्पन्न होने तक जिस प्रतिभागी के सर्वाधिक अंक होंगे, उन्हें इस श्रृंखला (सेगमेंट) का विजेता घोषित किया जाएगा।
1 – वाद्य संगीत के इस अंश को सुन कर बताइए (क) यह कौन सा वाद्य है? तथा (ख) वाद्य पर क्या बजाया जा रहा है?
2 – संगीत के इस अंश में किस ताल / किन तालों का प्रयोग हुआ है?
आप अपने उत्तर केवल swargoshthi@gmail.com या radioplaybackindia@live.com पर ही शनिवार मध्यरात्रि से पूर्व तक भेजें। comments में दिये गए उत्तर मान्य नहीं होंगे। विजेता का नाम हम ‘स्वरगोष्ठी’ के 182वें अंक में प्रकाशित करेंगे। इस अंक में प्रस्तुत गीत-संगीत, राग अथवा कलासाधक के बारे में यदि आप कोई जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच बाँटना चाहते हैं तो हम आपका इस संगोष्ठी में स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ के नीचे दिये गए comments के माध्यम से तथा swargoshthi@gmail.com अथवा radioplaybackindia@live.com पर भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं।
पिछली पहेली के विजेता
‘स्वरगोष्ठी’ की 178वीं कड़ी की पहेली में हमने आपको उस्ताद अली अकबर खाँ का सरोद पर बजाया राग देस मल्हार का एक अंश सुनवा कर आपसे दो प्रश्न पूछे थे। पहले प्रश्न का सही उत्तर है- राग देस मल्हार और पहेली के दूसरे प्रश्न का सही उत्तर है- सरोद। इस अंक के दोनों प्रश्नों के सही उत्तर पेंसिलवानिया, अमेरिका से विजया राजकोटिया और जबलपुर से क्षिति तिवारी ने ही दिया है। चण्डीगढ़ के हरकीरत सिंह, और हैदराबाद की डी. हरिणा माधवी ने पहले प्रश्न के उत्तर में राग देस मल्हार के स्थान पर राग देस लिखा है। चूँकि राग देस और देस मल्हार के आरोह और अवरोह के स्वर समान होते हैं, इसलिए यह भ्रम स्वाभाविक है। इसी कारण इन दोनों प्रतिभागियों को भी पूरे अंक दिये जाते हैं। चारो प्रतिभागियों को ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की ओर से हार्दिक बधाई।
अपनी बात
मित्रों, ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ पर जारी श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ के अन्तर्गत आज के अंक में हमने आपसे लोक संगीत शैली कजरी के उपशास्त्रीय स्वरूप पर चर्चा की है। आगामी अंक में हम कजरी के लोक संगीत रूप पर चर्चा करेंगे। यह अंक आपको कैसा लगा, हमें अवश्य बताइए। आप भी अपनी पसन्द के विषय और गीत-संगीत की फरमाइश हमें भेज सकते हैं। हमारी अगली श्रृंखलाओं के लिए आप किसी नए विषय का सुझाव भी दे सकते हैं। अगले रविवार को प्रातः 9 बजे ‘स्वरगोष्ठी’ के इसी मंच पर सभी संगीतानुरागियों की हम प्रतीक्षा करेंगे।
प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र
Comments