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सूलियों पे चढ़ के चूमें आफ़ताब को....तन मन में देश भक्ति का रंग चढ़ाता गुलज़ार साहब का ये गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 461/2010/161

'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक नई सप्ताह और एक नई शृंखला के साथ हम हाज़िर हैं। आज रविवार है, यानी कि छुट्टी का दिन। लेकिन यह रविवार दूसरे रविवारों से बहुत ज़्यादा ख़ास बन गया है, क्योंकि आज हम सभी भारतवासियों के लिए है साल का सब से महत्वपूर्ण दिन - १५ अगस्त। जी हाँ, इस देश की मिट्टी को प्रणाम करते हुए हम आप सभी को दे रहे हैं स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ। आज दिन भर आपने विभिन्न रेडियो व टीवी चैनलों में ढेर सारे देशभक्ति के गीत सुनें होंगे जो हर साल आप १५ अगस्त और २६ जनवरी के दिन सुना करते हैं, और सोच रहे होंगे कि शायद उन्ही में से एक हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर भी बजाने वाले हैं। यह बात ज़रूर सही है कि आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर देश भक्ति का रंग ही चढ़ा रहेगा, लेकिन यह गीत उन अतिपरिचित और सुपरहिट देश भक्ति गीतों में शामिल नहीं होता, बल्कि इस गीत को बहुत ही कम सुना गया है, और बहुतों को तो इसके बारे में मालूम ही नहीं है कि ऐसा भी कोई फ़िल्मी देशभक्ति गीत है। इससे पहले कि इस गीत की चर्चा आगे बढ़ाएँ, आपको बता दें कि आज से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर शुरु हो रही है नई लघु शृंखला जो केन्द्रित है फ़िल्म जगत के सब से अलग, सब से अनूठे गीतकार व शायर पर। ये वो गीतकार हैं जो कभी बादलों के पंख पर मोती जड़ने की बात कहते हैं, तो कभी सर से आसमाँ उड़ जाने की बात भी करते हैं; कभी रात को भिखारन और चाँद को उसका कटोरा बना देते हैं तो कभी उनका एक पल रात भर नहीं गुज़रता। जी हाँ, ग़ैर पारम्परिक शब्दों का बेहद सरलता से इस्तेमाल करने वाले इस अनोखे गीतकार, अज़ीम शायर और उम्दा लेखक व फ़िल्मकार गुलज़ार साहब के जन्मदिन के अवसर पर आज से अगले दस अंकों तक सुनिए गुलज़ार साहब के लिखे गीतों पर आधारित लघु शृंखला 'मुसाफ़िर हूँ यारों'। आज इस शृंखला की शुरुआत हम इस देश के शहीदों को समर्पित एक देशभक्ति गीत से कर रहे हैं जिसे गुलज़ार साहब ने ८० के दशक में लिखा था। फ़िल्म थी 'जलियाँवाला बाग़', संगीतकार राहुल देव बर्मन, आवाज़ भूपेन्द्र और साथियों की, और गीत के बोल "सूलियों पे चढ़ के चूमें आफ़ताब को, आवाज़ देंगे आओ आज इंकलाब को"।

यह तो आप सभी को मालूम है कि गुलज़ार साहब की फ़िल्मी यात्रा बतौर गीतकार शुरु हुआ था १९६३ की फ़िल्म 'बंदिनी' में "मोरा गोरा अंग लई ले" गीत लिखकर। ६० और ७० के दशकों में गुलज़ार साहब की फ़िल्मोग्राफ़ी पर जब हम नज़र दौड़ाते हैं तो उनमें से किसी में भी कोई देश भक्ति गीत नज़र नहीं आता। वैसे फ़िल्म 'काबुलीवाला' में उन्होंने "ओ गंगा आए कहाँ से" ज़रूर लिखा था, जिसे हम आपको इस स्तंभ में पिछले साल सुनवा चुके हैं। फिर हम आते हैं ८० के दशक में और हमारे हाथ लगता है सन् १९८७ में बनी फ़िल्म 'जलियाँवाला बाग़' जिसका निर्माण व निर्देशन किया था बलराज ताह ने, और जिसकी पटकथा, संवाद और गीत लिखे थे गुलज़ार साहब ने। फ़िल्म में शहीद उधम सिंह का किरदार निभाया था बलराज साहनी ने और अन्य मुख्य कलाकारों में शामिल थे विनोद खन्ना, शबाना आज़्मी, दीप्ति नवल, परीक्षित साहनी, राम मोहन, ओम शिव पुरी और सुधीर ठक्कर प्रमुख। उल्लेखनीय बात यह कि इस फ़िल्म में गुलज़ार साहब ने भी एक किरदार निभाया था। फ़िल्म के संगीत के लिए चुना गया गुलज़ार साहब के प्रिय मित्र पंचम को। और इन दोनों ने मिलकर रचा प्रस्तुत देश भक्ति गीत। फ़िल्म के ना चलने से यह गीत भी कहीं गुम हो गया, लेकिन गुलज़ार साहब और पंचम के अनन्य भक्त श्री पवन झा के सहयोग से यह गीत हमने प्राप्त की और आज के इस ख़ास मौके पर इसे आप तक पहुँचा रहे हैं। आज यह गीत कहीं भी सुनने को नहीं मिलता, यहाँ तक कि विविध भारती पर भी मैंने आज तक नहीं सुना इस गीत को। तो लीजिए इस देश भक्ति के जस्बे को अपने अंदर महसूस कीजिए 'जलियाँवाला बाग़' फ़िल्म के इस गीत के ज़रिए। अभी पिछले साल मैं अमृतसर की यात्रा पर गया हुआ था और जलियाँवाला बाग़ में भी जाने का अवसर मिला। सच कहूँ दोस्तों, तो आज भी वहाँ एक अजीब सी उदासी छायी हुई है। वहाँ की हर एक चीज़ याद दिलाती है उस जघन्य हत्याकाण्ड की जो हमारी स्वाधीनता संग्राम का एक बेहद महत्वपूर्ण अध्याय बन गया। रोलेट ऐक्ट के ख़िलाफ़ शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन कर रहे मासूम लोगों पर जेनरल डायर की फ़ौज ने अंधाधुंद गोलियाँ चलाईं और करीब १५०० लोग उसमें शहीद हो गए। वह कुआँ आज भी वहाँ मौजूद है जिसमें गोलियों से बचने के लिए लोग कूद गए थे। उस कूयें से १२० शव बरामद हुए थे। वह दीवारें आज भी उन गोलियों की निशान अपने उपर लिए खड़े हैं जो आज भी याद दिलाते अंग्रेज़ों की क्रूरता की। वह बरगद का पेड़ आज भी उस मैदान में शांत खड़ा है जो आज एकमात्र ज़िंदा गवाह है उस भयंकर शाम की। इस हत्याकाण्ड का बदला उधम सिंह ने डायर को मार कर ले ही लिया था, और इसी कहानी पर आधारित है १९८७ की यह फ़िल्म। तो आइए अब सुनते है इस गीत को और आप सभी को एक बार फिर से स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएँ।



क्या आप जानते हैं...
कि सन्‍ १९५३ में 'जलियाँवाला बाग़ की ज्योति' नाम से एक फ़िल्म बनी थी जिसमें नायक थे करण दीवान, और फ़िल्म के संगीतकार थे अनिल बिस्वास।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. जगमगाती फ़िल्मी दुनिया की कहानी है ये फिल्म, नायिका बताएं - ३ अंक.
२. गायिका कौन है इस बेहद गहरे गीत की - २ अंक.
३. एक अंतरे की पहली लाइन में शब्द है -"सहारा", संगीतकार बताएं - २ अंक.
४. फिल्म का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
३ अंकों वाला जवाब मिला किशोर जी से, बहुत बधाई आपको. पवन जी, प्रतिभा जी और नवीन जी भी टेस्ट में खरे उतरे, इन दिनों कनाडा वालों का कब्ज़ा है भाई पहेलियों पर....:)

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Comments

Naayika: Waheeda Rahman


Pratibha K.
Canada
Kishore Sampat said…
एक अंतरे की पहली लाइन में शब्द है -"सहारा", संगीतकार बताएं: Sachin Dev Burman


Kishore S.
Canada
Naveen Prasad said…
गायिका कौन है इस बेहद गहरे गीत की: Geeta Roy-Dutt

Naveen Prasad
Uttranchal, now working in Canada

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