ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 236
यश चोपड़ा की सफलतम फ़िल्म 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे' के बाद चार या उससे अधिक शब्दों वाले शीर्षक से फ़िल्में बनाने की जैसे एक होड़ सी शुरु हो गई थी फ़िल्मकारों के बीच। लेकिन चार शब्दों वाले फ़िल्मी शीर्षक काफ़ी पहले से ही चले आ रहे हैं। हाँ, ये ज़रूर है कि लम्बे नाम वाले फ़िल्मों की संख्या उस ज़माने में कम हुआ करती थी। ९० के दशक में और इस दशक के पहले भाग में सब से ज़्यादा इस तरह के लम्बे नाम वाले फ़िल्मों का निर्माण हुआ। आज फिर से छोटे नाम वाले फ़िल्में ही ज़्यादा बनने लगी हैं। फ़िल्मी इतिहास में ग़ोते लगाने के बाद मेरे हाथ चार शब्दों वाले नाम का जो सब से पुराना फ़िल्म हाथ लगा (अंग्रेज़ी शीर्षक वाले फ़िल्मों को अलग रखते हुए), वह है सन् १९३६ की फ़िल्म 'ममता और मिया बीवी' जिसका निर्माण बॊम्बे टॊकीज़ ने किया था। उसके बाद १९३९ में बनी थी वाडिया मूवीटोन की फ़िल्म 'कहाँ है मंज़िल तेरी'। ४० के दशक में १९४२ में सौभाग्य पिक्चर्स ने बनाई 'हँसो हँसो ऐ दुनियावालों'। १९४४ में दो फ़िल्में आयीं 'चल चल रे नौजवान' और 'पर्बत पे अपना डेरा'। १९४५ में 'स्वर्ग से सुंदर देश हमारा', १९४६ में 'डा. कोटनिस की अमर कहानी', 'माँ बाप की लड़की', और 'फिर भी अपना है', १९४७ में 'घर घर की कहानी', 'समाज को बदल डालो', १९४८ में 'आज़ादी की राह पर', 'बरसत की एक रात', 'हम भी इंसान हैं', १९४९ में 'मैं अबला नहीं हूँ', १९५२ में 'शिन शिनाकी बब्ला बू', १९५३ में 'जलियाँवाला बाग की ज्योति', और 'तीन बत्ती चार रास्ते'। बस्, इसी नाम तक हम पहुँचना चाहते थे। 'तीन बत्ती चार रास्ते' ही वह पहली इस तरह की सफल फ़िल्म थी जिसका शीर्षक एक ट्रेंडसेटर बना। इसके बाद जब भी मौका लगा फ़िल्मकारों ने इस तरह के शीर्षक अपनी फ़िल्मों की रखे। आज हम जिस फ़िल्म का गीत आप को सुनवा रहे हैं उसका नाम है 'काली टोपी लाल रुमाल'। सुनिए इस फ़िल्म से लता मंगेशकर की आवाज़ में एक बड़ा ही चुलबुला सा गीत "दग़ा दग़ा वइ वइ वइ, हो गई उनसे उल्फ़त हो गई"।
१९५९ में बनी थी फ़िल्म 'काली टोपी लाल रुमाल' जिसका निर्देशन तारा हरीश ने किया था। फ़िल्म कम बजट की थी, जिसके मुख्य कलाकार थे चन्द्रशेखर, शक़ीला, आग़ा, मुकरी और के. एन. सिंह। फ़िल्म के संगीतकार थे चित्रगुप्त और गीत लिखे थे मजरूह सुल्तानपुरी साहब ने। प्रस्तुत गीत शक़ीला और आग़ा पर फ़िल्माया गया है। गीत को सुनते ही दिल और पाँव दोनों ही थिरकने लगते हैं, मचलने लगते हैं। युं तो चित्रगुप्त ने ज़्यादातर पौराणिक, और स्टंट फ़िल्मों में संगीत दिया हैं, लेकिन समय समय पर उन्होंने कई सामाजिक फ़िल्मों में भी संगीत दिया जिनके संगीत ने ख़ूब व्यापार किया। 'काली टोपी लाल रुमाल' एक ऐसी ही फ़िल्म थी। प्रस्तुत गीत के अलावा लता-रफ़ी का गाया "लागी छूटे ना अब तो सनम" एक बेहद हिट गीत रहा है। आशा-रफ़ी का गाया युगल गीत "ओ काली टोपी वाले तेरा नाम तो बता" गीत से ही कहीं प्रेरीत हो कर ९० के दशक में 'आँखें' फ़िल्म का वह गीत "ओ लाल दुपट्टे वाली तेरा नाम तो बता" तो नहीं बना था? ख़ैर, अब आपको गीत सुनवाते हैं, लेकिन उससे पहले जान लीजिए कि विविध भारती के विशेष जयमाला कार्यक्रम में संगीतकार चित्रगुप्त ने बरसों पहले लता जी के बारे में क्या कहा था। "फ़िल्म संगीत के बारे में कोई भी चर्चा लता मंगेशकर को छुए बिना ख़तम नहीं हो सकती। फ़िल्म संगीत का ये दौर भविष्य में लता मंगेशकर के दौर के नाम से जाना जाएगा। एक बार किसी ने मुझसे पूछा कि क्या हमारे देश में दो ही प्लेबैक सिंगर्स हैं, लता जी और आशा जी? मैने कहा कि, हाँ, प्लेबैक जगत में ये ही दो सिंगर्स हैं जिनकी आवाज़ हर संगीतकार चाहते हैं अपने गीतों में।" तो दोस्तों, सुनते हैं चित्रगुप्त और लता जी की सुरीली जोड़ी का यह थिरकता मचलता नग़मा।
दग़ा दग़ा वै वै वै
दग़ा दग़ा वै वै वै
हो गई तुमसे उल्फ़त हो गई) \-२
दग़ा दग़ा वै वै वै
यूँ ही राहों में खड़े हैं तेरा क्या लेते हैं
देख लेते हैं जलन दिल की बुझा लेते हैं |-२
आए हैं दूर से हम
तेरे मिलने को सनम
चेकुनम, चेकुनम, चेकुनम
दग़ा दग़ा वै वै वै ...
जान जलती है नज़र ऐसे चुराया न करो
हम ग़रीबों के दुखे दिल को दुखाया न करो |-२
आए हैं दूर से हम
तेरे मिलने को सनम
चेकुनम, चेकुनम, चेकुनम
दग़ा दग़ा वै वै वै ...
हम क़रीब आते हैं तुम और जुदा होते हो
लो चले जाते हैं काहे को ख़फ़ा होते हो |-२
अब नहीं आएँगे हम
तेरे मिलने को सनम
चेकुनम, चेकुनम, चेकुनम
दग़ा दग़ा वै वै वै ...
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-
१. मनमोहन देसाई का निर्देशन था इस फिल्म में.
२. अभिनेत्री निरूपा राय ने इस धार्मिक फिल्म में मुख्य भूमिका निभाई थी.
३. इस युगल गीत के मुखड़े की अंतिम पंक्ति में आपके इस प्रिय जाल स्थल का नाम है.
पिछली पहेली का परिणाम -
दिलीप जी ने एकदम सही कहा, वाकई शरद जी का कोई जवाब नहीं, दुबारा शुरुआत करने के बाद भी शरद जी 20 अंकों पर पहुँच गए हैं...बधाई जनाब. पूर्वी जी जाने कहाँ खो गयी है, पता नहीं उन तक हमारा सन्देश पहुंचा भी है या नहीं
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
यश चोपड़ा की सफलतम फ़िल्म 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे' के बाद चार या उससे अधिक शब्दों वाले शीर्षक से फ़िल्में बनाने की जैसे एक होड़ सी शुरु हो गई थी फ़िल्मकारों के बीच। लेकिन चार शब्दों वाले फ़िल्मी शीर्षक काफ़ी पहले से ही चले आ रहे हैं। हाँ, ये ज़रूर है कि लम्बे नाम वाले फ़िल्मों की संख्या उस ज़माने में कम हुआ करती थी। ९० के दशक में और इस दशक के पहले भाग में सब से ज़्यादा इस तरह के लम्बे नाम वाले फ़िल्मों का निर्माण हुआ। आज फिर से छोटे नाम वाले फ़िल्में ही ज़्यादा बनने लगी हैं। फ़िल्मी इतिहास में ग़ोते लगाने के बाद मेरे हाथ चार शब्दों वाले नाम का जो सब से पुराना फ़िल्म हाथ लगा (अंग्रेज़ी शीर्षक वाले फ़िल्मों को अलग रखते हुए), वह है सन् १९३६ की फ़िल्म 'ममता और मिया बीवी' जिसका निर्माण बॊम्बे टॊकीज़ ने किया था। उसके बाद १९३९ में बनी थी वाडिया मूवीटोन की फ़िल्म 'कहाँ है मंज़िल तेरी'। ४० के दशक में १९४२ में सौभाग्य पिक्चर्स ने बनाई 'हँसो हँसो ऐ दुनियावालों'। १९४४ में दो फ़िल्में आयीं 'चल चल रे नौजवान' और 'पर्बत पे अपना डेरा'। १९४५ में 'स्वर्ग से सुंदर देश हमारा', १९४६ में 'डा. कोटनिस की अमर कहानी', 'माँ बाप की लड़की', और 'फिर भी अपना है', १९४७ में 'घर घर की कहानी', 'समाज को बदल डालो', १९४८ में 'आज़ादी की राह पर', 'बरसत की एक रात', 'हम भी इंसान हैं', १९४९ में 'मैं अबला नहीं हूँ', १९५२ में 'शिन शिनाकी बब्ला बू', १९५३ में 'जलियाँवाला बाग की ज्योति', और 'तीन बत्ती चार रास्ते'। बस्, इसी नाम तक हम पहुँचना चाहते थे। 'तीन बत्ती चार रास्ते' ही वह पहली इस तरह की सफल फ़िल्म थी जिसका शीर्षक एक ट्रेंडसेटर बना। इसके बाद जब भी मौका लगा फ़िल्मकारों ने इस तरह के शीर्षक अपनी फ़िल्मों की रखे। आज हम जिस फ़िल्म का गीत आप को सुनवा रहे हैं उसका नाम है 'काली टोपी लाल रुमाल'। सुनिए इस फ़िल्म से लता मंगेशकर की आवाज़ में एक बड़ा ही चुलबुला सा गीत "दग़ा दग़ा वइ वइ वइ, हो गई उनसे उल्फ़त हो गई"।
१९५९ में बनी थी फ़िल्म 'काली टोपी लाल रुमाल' जिसका निर्देशन तारा हरीश ने किया था। फ़िल्म कम बजट की थी, जिसके मुख्य कलाकार थे चन्द्रशेखर, शक़ीला, आग़ा, मुकरी और के. एन. सिंह। फ़िल्म के संगीतकार थे चित्रगुप्त और गीत लिखे थे मजरूह सुल्तानपुरी साहब ने। प्रस्तुत गीत शक़ीला और आग़ा पर फ़िल्माया गया है। गीत को सुनते ही दिल और पाँव दोनों ही थिरकने लगते हैं, मचलने लगते हैं। युं तो चित्रगुप्त ने ज़्यादातर पौराणिक, और स्टंट फ़िल्मों में संगीत दिया हैं, लेकिन समय समय पर उन्होंने कई सामाजिक फ़िल्मों में भी संगीत दिया जिनके संगीत ने ख़ूब व्यापार किया। 'काली टोपी लाल रुमाल' एक ऐसी ही फ़िल्म थी। प्रस्तुत गीत के अलावा लता-रफ़ी का गाया "लागी छूटे ना अब तो सनम" एक बेहद हिट गीत रहा है। आशा-रफ़ी का गाया युगल गीत "ओ काली टोपी वाले तेरा नाम तो बता" गीत से ही कहीं प्रेरीत हो कर ९० के दशक में 'आँखें' फ़िल्म का वह गीत "ओ लाल दुपट्टे वाली तेरा नाम तो बता" तो नहीं बना था? ख़ैर, अब आपको गीत सुनवाते हैं, लेकिन उससे पहले जान लीजिए कि विविध भारती के विशेष जयमाला कार्यक्रम में संगीतकार चित्रगुप्त ने बरसों पहले लता जी के बारे में क्या कहा था। "फ़िल्म संगीत के बारे में कोई भी चर्चा लता मंगेशकर को छुए बिना ख़तम नहीं हो सकती। फ़िल्म संगीत का ये दौर भविष्य में लता मंगेशकर के दौर के नाम से जाना जाएगा। एक बार किसी ने मुझसे पूछा कि क्या हमारे देश में दो ही प्लेबैक सिंगर्स हैं, लता जी और आशा जी? मैने कहा कि, हाँ, प्लेबैक जगत में ये ही दो सिंगर्स हैं जिनकी आवाज़ हर संगीतकार चाहते हैं अपने गीतों में।" तो दोस्तों, सुनते हैं चित्रगुप्त और लता जी की सुरीली जोड़ी का यह थिरकता मचलता नग़मा।
दग़ा दग़ा वै वै वै
दग़ा दग़ा वै वै वै
हो गई तुमसे उल्फ़त हो गई) \-२
दग़ा दग़ा वै वै वै
यूँ ही राहों में खड़े हैं तेरा क्या लेते हैं
देख लेते हैं जलन दिल की बुझा लेते हैं |-२
आए हैं दूर से हम
तेरे मिलने को सनम
चेकुनम, चेकुनम, चेकुनम
दग़ा दग़ा वै वै वै ...
जान जलती है नज़र ऐसे चुराया न करो
हम ग़रीबों के दुखे दिल को दुखाया न करो |-२
आए हैं दूर से हम
तेरे मिलने को सनम
चेकुनम, चेकुनम, चेकुनम
दग़ा दग़ा वै वै वै ...
हम क़रीब आते हैं तुम और जुदा होते हो
लो चले जाते हैं काहे को ख़फ़ा होते हो |-२
अब नहीं आएँगे हम
तेरे मिलने को सनम
चेकुनम, चेकुनम, चेकुनम
दग़ा दग़ा वै वै वै ...
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-
१. मनमोहन देसाई का निर्देशन था इस फिल्म में.
२. अभिनेत्री निरूपा राय ने इस धार्मिक फिल्म में मुख्य भूमिका निभाई थी.
३. इस युगल गीत के मुखड़े की अंतिम पंक्ति में आपके इस प्रिय जाल स्थल का नाम है.
पिछली पहेली का परिणाम -
दिलीप जी ने एकदम सही कहा, वाकई शरद जी का कोई जवाब नहीं, दुबारा शुरुआत करने के बाद भी शरद जी 20 अंकों पर पहुँच गए हैं...बधाई जनाब. पूर्वी जी जाने कहाँ खो गयी है, पता नहीं उन तक हमारा सन्देश पहुंचा भी है या नहीं
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
Comments
छुप छुप छलने में क्या राज़ है?
यूँ छुप ना सकेगा परमात्मा,
मेरी आत्मा की यह आवाज़ है...
ज़रा सामने.........
फिल्म- जनम जनम के फेरे / सती अन्नपूर्णा 1957 ( is film ke do naam mile!!!!)
गायक - मो.रफी, लता मंगेशकर
सुजोय जी,
कुछ दिन बहुत व्यस्तता रही थी, इसलिए यहाँ आना संभव नहीं हो पाया था. आपका सन्देश पढ़ लिया है, जल्द ही आपको मेल भेजती हूँ.
छुप छुप छलने में क्या राज़ है
यूँ छुप ना सकेगा परमात्मा
मेरी आत्मा की ये आवाज़ है
ज़रा सामने ...
हम तुम्हें चाहे तुम नहीं चाहो
ऐसा कभी नहीं हो सकता
पिता अपने बालक से बिछुड़ से
सुख से कभी नहीं सो सकता
हमें डरने की जग में क्या बात है
जब हाथ में तिहारे मेरी लाज है
यूँ छुप ना सकेगा परमात्मा
मेरी आत्मा की ये आवाज़ है
ज़रा सामने ...
प्रेम की है ये आग सजन जो
इधर उठे और उधर लगे
प्यार का है ये क़रार जिया अब
इधर सजे और उधर सजे
तेरी प्रीत पे बड़ा हमें नाज़ है
मेरे सर का तू ही सरताज है
यूँ छुप ना सकेगा परमात्मा
मेरी आत्मा की ये आवाज़ है
ज़रा सामने ...
दग़ा दग़ा वै वै वै
मस्त आवाज, मस्त बोल...
धन्यवाद आप ने मस्ती से भरा गीत सुनाया
देर तक सोने की आदत हो गई है क्या ?