स्वरगोष्ठी – ९३ में आज 
रसूलन बाई, जद्दन बाई और मन्ना डे के स्वरों में एक ठुमरी
‘फूलगेंदवा न मारो लगत करेजवा में चोट...’
रसूलन बाई, जद्दन बाई और मन्ना डे के स्वरों में एक ठुमरी
‘फूलगेंदवा न मारो लगत करेजवा में चोट...’
‘स्वरगोष्ठी’
 के मंच पर इन दिनों लघु श्रृंखला ‘फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक 
ठुमरी’ जारी है। इस श्रृंखला की चौथी कड़ी में, मैं कृष्णमोहन मिश्र, एक बार
 पुनः आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। आज के अंक में हम
 आपसे पूरब अंग की एक विख्यात ठुमरी गायिका रसूलन बाई और जद्दन बाई के 
व्यक्तित्व पर और उन्हीं की गायी एक अत्यन्त प्रसिद्ध ठुमरी- ‘फूलगेंदवा न 
मारो, लगत करेजवा में चोट...’ पर चर्चा करेंगे। इसके साथ ही इस ठुमरी के 
फिल्मी प्रयोग पर भी आपसे चर्चा करेंगे। 
बीसवीं
 शताब्दी के पूर्वार्द्ध में पूरब अंग की ठुमरी गायिकाओं में विदुषी रसूलन 
बाई का नाम शीर्ष पर था। पूरब अंग की उप-शास्त्रीय गायकी- ठुमरी, दादरा, 
होरी, चैती, कजरी आदि शैलियों की अविस्मरणीय गायिका रसूलन बाई बनारस के 
निकट स्थित कछवा बाज़ार (वर्तमान मीरजापुर ज़िला) की रहने वाली थीं और उनकी 
संगीत शिक्षा बनारस (अब वाराणसी) में हुई थी। संगीत का संस्कार इन्हें अपनी
 नानी से विरासत में मिला था।  रसूलन बाई  के संगीत को निखारने में उस्ताद 
आशिक खाँ, नज्जू मियाँ और टप्पा गायकी के अन्वेषक मियाँ शोरी के खानदान के 
शम्मू खाँ का बहुत बड़ा योगदान था| पूरब अंग की भावभीनी गायकी की चैनदारी, 
बोल बनाव के लहजे, कहन के खास ढंग और ठहराव, यह सारे गुण रसूलन बाई की 
गायकी में था। टप्पा तो जैसे रसूलन बाई के लिए ही बना था। बारीक मुरकियाँ 
और मोतियों की लड़ियों जैसी तानों पर उन्हें कमाल हासिल था। उप-शास्त्रीय 
संगीत की आजीवन साधनारत रहने वाली इस स्वरसाधिका को खयाल गायन पर भी कमाल 
का अधिकार प्राप्त था, परन्तु उन्होने स्वयं को उप-शास्त्रीय शैलियों तक ही
 सीमित रखा और इन्हीं शैलियों दक्षता पाई। ग्रामोफोन कम्पनी ने रसूलन बाई 
के अनेक लोकप्रिय रिकार्ड बनाए। १९३५ में उनकी गायी ठुमरी- ‘फूलगेंदवा न मारो, लगत करेजवा में चोट...’ उनके सर्वाधिक लोकप्रिय रिकार्ड में से एक है। आइए, रसूलन बाई के स्वर में यह ठुमरी सुनते हैं- 
भैरवी
 की इस ठुमरी को उस दौर की अन्य गायिकाओं ने भी स्वर दिया था। इन्हीं में 
एक थीं, गायिका जद्दन बाई। बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध की ठुमरी 
गायिकाओं में जद्दन बाई का भी एक चर्चित नाम था। पूरब अंग की ठुमरी के 
अलावा गजल गायकी में कुशल जद्दन बाई के जन्म-वर्ष के बारे में मतभेद है। 
कुछ लोग उनका जन्म १८९२ में तो कुछ १९०८ में मानते हैं। उनका जन्म तो 
इलाहाबाद में हुआ था, परन्तु संगीत की शिक्षा कलकत्ता में ठुमरी के बादशाह 
भैया गणपत राव की देख-रेख में आरम्भ हुई। यह सिलसिला अधिक समय तक नहीं चला।
 भैया गणपत राव का १९१९ में निधन हो गया। इसके बाद जद्दन बाई की संगीत 
शिक्षा उस्ताद मोइनुद्दीन खाँ से प्राप्त हुई। कोलम्बिया ग्रामोफोन कम्पनी 
द्वारा बनाए उनके गज़लों के रिकार्ड बेहद लोकप्रिय हुए थे। १९३३ से जद्दन 
बाई फिल्मों में अभिनय, संगीत और निर्माण के क्षेत्र में सक्रिय रहीं। 
सुप्रसिद्ध अभिनेत्री नरगिस, जद्दन बाई की ही पुत्री थीं। अब हम आपको जद्दन
 बाई की आवाज़ में भैरवी की यही ठुमरी सुनवाते हैं। ठुमरी भैरवी : ‘फूलगेंदवा न मारो, लगत करेजवा में चोट...’ : जद्दन बाई
इसी
 परम्परागत ठुमरी को १९६४ में प्रदर्शित फिल्म ‘दूज का चाँद’ में संगीतकार 
रोशन ने शामिल किया था, जिसे बहुआयामी गायक मन्ना डे ने अपने स्वरों से एक 
अलग रंग दिया था। दरअसल संगीतकार रोशन की संगीत शिक्षा लखनऊ के तत्कालीन 
मैरिस कॉलेज ऑफ हिन्दुस्तानी म्यूजिक (वर्तमान भातखण्डे संगीत 
विश्वविद्यालय) में हुई थी। वे तत्कालीन प्रधानाचार्य डॉ. श्रीकृष्ण नारायण
 रातंजनकर के प्रिय शिष्यों में रहे। लखनऊ में रह कर रोशन ने पूरब अंग की 
ठुमरियों का गहराई से अध्ययन किया था। फिल्म ‘दूज का चाँद’ के निर्देशक 
नितिन बोस एक हास्य प्रसंग में ठुमरी का प्रयोग करना चाहते थे। मूल ठुमरी 
श्रृंगार रस प्रधान है, किन्तु मन्ना डे ने अपने बोल बनाव के कौशल से इसे 
कैसे हास्यरस में अभिमंत्रित कर दिया है, इसका सहज अनुभव आपको ठुमरी सुन कर
 हो सकेगा। यह ठुमरी हास्य अभिनेता आगा पर फिल्माया गया है। फिल्म के इस 
दृश्य में आगा अपनी प्रेमिका को रिझाने के लिए गीत के बोल पर ओंठ चलाते हैं
 और उनके दो साथी पेड़ के पीछे छिप कर इस ठुमरी का रिकार्ड बजाते हैं। बीच 
में दो बार रिकार्ड पर सुई अटकती भी है। इन क्षणों में मन्ना डे के गायन 
कौशल का परिचय मिलता है। सुनिए, इस परम्परागत ठुमरी का फिल्मी संस्करण और 
इसी के साथ आज के इस अंक को यहीं विराम देने की हमें अनुमति दीजिए।   फिल्म – दूज का चाँद : ‘फूलगेंदवा न मारो, लगत करेजवा में चोट...’ : मन्ना डे
आज की पहेली
‘स्वरगोष्ठी’ पर आज की संगीत पहेली में एक बार फिर हम आपको एक बेहद 
लोकप्रिय ठुमरी का अंश सुनवा रहे हैं। इसे सुन कर आपको दो प्रश्नों के 
उत्तर देने हैं। पहेली के सौवें अंक तक जिस प्रतिभागी के सर्वाधिक अंक 
होंगे, उन्हें इस श्रृंखला का विजेता घोषित किया जाएगा। 
१ - संगीत के इस अंश को सुन कर पहचानिए कि यह ठुमरी किस राग में निबद्ध है?
२ – यह पारम्परिक ठुमरी एक बेहद चर्चित फिल्म में भी शामिल किया गया था। क्या आप उस फिल्मी गीत की पार्श्वगायिका का नाम बता सकते है?
आप अपने उत्तर केवल swargoshthi@gmail.com पर ही शनिवार मध्यरात्रि तक भेजें। comments
 में दिये गए उत्तर मान्य नहीं होंगे। विजेता का नाम हम ‘स्वरगोष्ठी’ के 
९५वें अंक में प्रकाशित करेंगे। इस अंक में प्रस्तुत गीत-संगीत, राग, अथवा 
कलासाधक के बारे में यदि आप कोई जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच
 बाँटना चाहते हैं तो हम आपका इस संगोष्ठी में स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ 
के नीचे दिये गए comments के माध्यम से अथवा radioplaybackindia@live.com पर भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं। 
पिछली पहेली के विजेता 
‘स्वरगोष्ठी’
 के ९१वें अंक में हमने आपको सुप्रसिद्ध गायक उस्ताद फ़ैयाज़ खाँ की आवाज़ में
 एक दादरा का अंश सुनवा कर आपसे तीन प्रश्न पूछे थे। पहले प्रश्न का सही 
उत्तर है- राग भैरवी, दूसरे प्रश्न का सही उत्तर है- उस्ताद फ़ैयाज़ खाँ और तीसरे का सही उत्तर है- मन्ना डे।
 तीनों प्रश्नो के सही उत्तर जबलपुर की क्षिति तिवारी ने दिया है। जौनपुर, 
उत्तरप्रदेश के डॉ. पी.के. त्रिपाठी ने दो प्रश्नों के सही उत्तर दिये हैं।
 दोनों प्रतिभागियों को ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की ओर से बधाई। 
झरोखा अगले अंक का 
मित्रों, ‘स्वरगोष्ठी’ के आगामी अंक में हम आपसे हम एक बेहद लोकप्रिय ठुमरी
 पर चर्चा करेंगे। आपके सम्मुख हम बीसवीं शताब्दी के आरम्भिक काल से लेकर 
आधुनिक काल तक की अवधि में ठुमरी गायकी में आए बदलाव को भी रेखांकित 
करेंगे। आपकी स्मृतियों में यदि किसी मूर्धन्य कलासाधक की ऐसी कोई 
पारम्परिक ठुमरी या दादरा रचना हो जिसे किसी भारतीय फिल्म में भी शामिल 
किया गया हो तो हमें अवश्य लिखें। आपके सुझाव और सहयोग से इस स्तम्भ को 
अधिक सुरुचिपूर्ण रूप दे सकते हैं। अगले रविवार को प्रातः ९-३० पर आयोजित 
अपनी इस गोष्ठी में आप अवश्य पधारिए। हमें आपकी प्रतीक्षा रहेगी। 
'मैंने देखी पहली फिल्म' : आपके लिए एक रोचक प्रतियोगिता 
दोस्तों,
 भारतीय सिनेमा अपने उदगम के 100 वर्ष पूरा करने जा रहा है। फ़िल्में हमारे 
जीवन में बेहद खास महत्त्व रखती हैं, शायद ही हम में से कोई अपनी पहली देखी
 हुई फिल्म को भूल सकता है। वो पहली बार थियेटर जाना, वो संगी-साथी, वो 
सुरीले लम्हें। आपकी इन्हीं सब यादों को हम समेटेगें एक प्रतियोगिता के 
माध्यम से। 100 से 500 शब्दों में लिख भेजिए अपनी पहली देखी फिल्म का अनुभव
 radioplaybackindia@live.com
 पर। मेल के शीर्षक में लिखियेगा ‘मैंने देखी पहली फिल्म’। सर्वश्रेष्ठ तीन
 आलेखों को 500 रूपए मूल्य की पुस्तकें पुरस्कारस्वरुप प्रदान की जायेगीं। 
तो देर किस बात की, यादों की खिड़कियों को खोलिए, कीबोर्ड पर उँगलियाँ जमाइए
 और लिख डालिए अपनी देखी हुई पहली फिल्म का दिलचस्प अनुभव। प्रतियोगिता में
 आलेख भेजने की अन्तिम तिथि 31अक्टूबर, 2012 है।
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