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फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी



स्वरगोष्ठी – ९० में आज  
‘पिया बिन नाहीं आवत चैन...’ 

‘स्वरगोष्ठी’ के एक नए अंक के साथ मैं, कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों के बीच उपस्थित हूँ और आपका हार्दिक स्वागत करता हूँ। मित्रों, आज से हम आरम्भ कर रहे हैं, एक नई लघु श्रृंखला- ‘फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी’। शीर्षक से आपको यह अनुमान हो ही गया होगा कि इस श्रृंखला में हम आपके लिए कुछ ऐसी पारम्परिक ठुमरियाँ प्रस्तुत करने जा रहे हैं, जिन्हें भारतीय फिल्मों में शामिल किया गया। फिल्मों का हिस्सा बन कर इन ठुमरियों को इतनी लोकप्रियता मिली कि लोग मूल पारम्परिक ठुमरी को प्रायः भूल गए। इस श्रृंखला में हम आपके लिए उप-शास्त्रीय संगीत की इस मनमोहक विधा के पारम्परिक स्वरूप के साथ-साथ फिल्मी स्वरूप भी प्रस्तुत करेंगे। 


घु श्रृंखला- ‘फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी’ के आज के पहले अंक का राग है, झिंझोटी और ठुमरी है- ‘पिया बिन नाहीं आवत चैन...’। परन्तु इस ठुमरी पर चर्चा से पहले ठुमरी शैली पर थोड़ी चर्चा आवश्यक है। ठुमरी भारतीय संगीत की रस, रंग और भाव से परिपूर्ण शैली है, जिसे उन्नीसवीं शताब्दी के मध्यकाल से लेकर अब तक अपार लोकप्रियत मिली। यद्यपि इस शैली के गीत रागबद्ध होते हैं, किन्तु "ध्रुवपद" और "ख़याल" की तरह राग के कड़े प्रतिबन्ध नहीं रहते। रचना के शब्दों के अनुकूल रस और भाव की अभिव्यक्ति के लिए कभी-कभी गायक राग के स्वरों में अन्य स्वरों को भी मिला देते हैं। ठुमरी गीतों में श्रृंगार और भक्ति रस की प्रधानता होती है। कुछ ठुमरियों में इन दोनों रसों का अद्भुत मेल भी मिलता है।

आज के अंक में प्रस्तुत की जाने वाली पारम्परिक ठुमरी- ‘पिया बिन नाहीं आवत चैन...’ के गायक उस्ताद अब्दुल करीम खाँ सम्पूर्ण भारतीय संगीत का प्रतिनिधित्व करते थे। वे उत्तर और दक्षिण भारतीय संगीत के बीच एक सेतु थे। उन्होने दक्षिण के कर्नाटक संगीत के कई रागों को उत्तर भारतीय संगीत में शामिल किया और सरगम के विशिष्ट अन्दाज को उत्तर भारत में प्रचलित किया। किराना घराने के इस महान संगीतज्ञ का जन्म उत्तर प्रदेश के वर्तमान मुजफ्फरनगर जिले में स्थित कैराना नामक कस्बे में वर्ष १८८४ में हुआ था। आज जिसे हम संगीत के किराना घराने के नाम से जानते हैं, वह इसी कस्बे के नाम पर पड़ा था। जन्म से ही सुरीले कण्ठ के धनी अब्दुल करीम खाँ की सीखने की रफ्तार इतनी तेज थी कि मात्र छः वर्ष की आयु में ही संगीत-सभाओं में गाने लगे थे। उनकी प्रतिभा इतनी विलक्षण थी कि पन्द्रह वर्ष की आयु में बड़ौदा दरबार में गायक के रूप में नियुक्त हो गए थे। वहाँ वे १८९९ से १९०२ तक रहे और उसके बाद मिरज चले गए। खाँ साहब खयाल गायकी के साथ ठुमरी, दादरा, भजन और मराठी नाट्य संगीत के गायन में भी दक्ष थे। वर्ष १९२५-२६ में उनकी गायी राग झिंझोटी की अत्यन्त लोकप्रिय ठुमरी- ‘पिया बिन नाहीं आवत चैन....’ का रिकार्ड भी बना था। आइए, उस्ताद अब्दुल करीम खाँ के स्वर में सुनते हैं, राग झिंझोटी यही प्रसिद्ध ठुमरी।

ठुमरी राग झिंझोटी : ‘पिया बिन नाहीं आवत चैन....’ : उस्ताद अब्दुल करीम खाँ

 

इस परम्परागत ठुमरी को १९३६ में हिन्दी भाषा में निर्मित फिल्म "देवदास" में शामिल किया गया था। फिल्म का निर्देशन पी.सी. बरुआ ने किया था। फिल्म में देवदास की भूमिका में कुन्दनलाल सहगल, पारो (पार्वती) की भूमिका में जमुना बरुआ और चन्द्रमुखी की भूमिका में राजकुमारी ने अभिनय किया था। फिल्म के संगीतकार तिमिर बरन (भट्टाचार्य) थे। तिमिर बरन उस्ताद अलाउद्दीन खाँ के शिष्य और संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वानों के कुल के थे। साहित्य और संगीत में कुशल तिमिर बरन के 'न्यू थियेटर्स' में प्रवेश करने पर पहली फिल्म "देवदास" का संगीत निर्देशन सौंपा गया। इस फिल्म में राग "झिंझोटी" की इसी परम्परागत ठुमरी का स्थायी और एक अन्तरा सहगल साहब ने अत्यन्त संवेदनशीलता के साथ गाया था। रिकार्डिंग के बाद सहगल साहब की आवाज़ में इस ठुमरी को अब्दुल करीम खाँ साहब ने सुना और सहगल साहब के गायन-शैली की खूब तारीफ़ करते हुए उन्हें बधाई का एक सन्देश भी भेजा था। सहगल साहब ने परदे पर मदहोश देवदास की भूमिका में इस ठुमरी को गाया था। गायन के दौरान ठुमरी में तालवाद्य (तबला आदि) की संगति नहीं की गई है। पार्श्व-संगीत के लिए केवल वायलिन और सरोद की संगति है। आइए, राग "झिंझोटी" की यह ठुमरी के.एल. सहगल के स्वरों में सुनते हैं।


फिल्म – देवदास : ‘पिया बिन नाहीं आवत चैन....’ : कुन्दनलाल सहगल



इसी ठुमरी गीत के साथ आज के इस अंक को यहीं विराम देने की हमें अनुमति दीजिए। अगले अंक में ऐसी ही एक और परम्परागत ठुमरी पर आपसे चर्चा करेंगे। 


आज की पहेली

आज की संगीत पहेली में हम आपको एक सुविख्यात गायिका के स्वर में ठुमरी का एक अंश सुनवा रहे हैं। इसे सुन कर आपको दो प्रश्नों के उत्तर देने हैं। यह हमारा ९०वाँ अंक है और इस अंक तक जिस प्रतिभागी के सर्वाधिक अंक होंगे, उन्हें इस श्रृंखला का विजेता घोषित किया जाएगा।  



१_यह ठुमरी किस राग में निबद्ध है?  
२_ इस ठुमरी की गायिका कौन हैं?

आप अपने उत्तर केवल swargoshthi@gmail.com पर ही शनिवार मध्यरात्रि तक भेजें। comments में दिये गए उत्तर मान्य नहीं होंगे। विजेता का नाम हम ‘स्वरगोष्ठी’ के ९२वें अंक में प्रकाशित करेंगे। इस अंक में प्रस्तुत गीत-संगीत, राग अथवा कलासाधक के बारे में यदि आप कोई जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच बाँटना चाहते हैं तो हम आपका इस संगोष्ठी में स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ के नीचे दिये गए comments के माध्यम से अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं। हमसे सीधे सम्पर्क के लिए swargoshthi@gmail.com अथवा radioplaybackindia@live.com पर अपना सन्देश भेज सकते हैं।

पिछली पहेली के विजेता  

‘स्वरगोष्ठी’ के ८८वें अंक की पहेली में हमने पं. श्रीकुमार मिश्र द्वारा मयूरवीणा पर प्रस्तुत एक राग-रचना का अंश सुनवा कर आपसे दो प्रश्न पूछे थे। पहले प्रश्न का सही उत्तर है- राग ‘मारूबिहाग’ और दूसरे प्रश्न का सही उत्तर ताल ‘तीनताल’ है। दोनों प्रश्नों के सही उत्तर लखनऊ के प्रकाश गोविन्द, जबलपुर की क्षिति तिवारी और मीरजापुर, उत्तर प्रदेश के डॉ. पी.के. त्रिपाठी और अहमदाबाद, गुजरात के हमारे एक नये प्रतिभागी कश्यप दवे ने दिया है। चारो प्रतिभागियों को रेडियो प्लेबैक इण्डिया की ओर से हार्दिक बधाई।

‘स्वरगोष्ठी’ के ८८वें अंक के प्रकाशन के पहले दिन हम अंक की क्रम संख्या बदलना भूल गए थे। अगले दिन हमने अपनी इस भूल को सुधार दिया था। हमारे कुछ प्रतिभागियों ने पहेली का उत्तर क्रम संख्या ८७ और कुछ ने ८८ क्रमांक अंकित कर भेजा। हमने इन दोनों क्रमांक पड़े हुए उत्तर को स्वीकार किया है। अपनी इस भूल के लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं।

झरोखा अगले अंक का


मित्रों, ‘स्वरगोष्ठी’ के अगले अंक में भी हम फिल्मों के आँगन में विचरती, इठलाती, मचलती और ठुमकती ठुमरियों का सिलसिला जारी रखेंगे। अगले अंक में हम अपने इस मंच पर एक मशहूर हस्ती का जन्मदिन भी मनाएँगे। अगले रविवार को प्रातः ९-३० पर आयोजित आपकी अपनी इस गोष्ठी में आप हमारे सहभागी बनिए। हमें आपकी प्रतीक्षा रहेगी। 


कृष्णमोहन मिश्र 


 
'मैंने देखी पहली फिल्म' : आपके लिए एक रोचक प्रतियोगिता

दोस्तों, भारतीय सिनेमा अपने उदगम के 100 वर्ष पूरा करने जा रहा है। फ़िल्में हमारे जीवन में बेहद खास महत्त्व रखती हैं, शायद ही हम में से कोई अपनी पहली देखी हुई फिल्म को भूल सकता है। वो पहली बार थियेटर जाना, वो संगी-साथी, वो सुरीले लम्हें। आपकी इन्हीं सब यादों को हम समेटेगें एक प्रतियोगिता के माध्यम से। 100 से 500 शब्दों में लिख भेजिए अपनी पहली देखी फिल्म का अनुभव radioplaybackindia@live.com पर। मेल के शीर्षक में लिखियेगा ‘मैंने देखी पहली फिल्म’। सर्वश्रेष्ठ तीन आलेखों को 500 रूपए मूल्य की पुस्तकें पुरस्कारस्वरुप प्रदान की जायेगीं। तो देर किस बात की, यादों की खिड़कियों को खोलिए, कीबोर्ड पर उँगलियाँ जमाइए और लिख डालिए अपनी देखी हुई पहली फिल्म का दिलचस्प अनुभव। प्रतियोगिता में आलेख भेजने की अन्तिम तिथि 31अक्टूबर, 2012 है।



Comments

Sajeev said…
बहुत बढ़िया कृष्णमोहन जी....सुंदर श्रृंखला
ठुमरी के मूल रूप और फ़िल्मी रूप को लेकर आपने शोधपूर्ण काम किया है। मेरी बधाई और हार्दिक शुभकामनाएँ...!

मुकेश गर्ग

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