ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 413/2010/113
'दुर्लभ दस' शृंखला की आज है तीसरी कड़ी। आज इसमें पेश है सुमन कल्याणपुर की आवाज़ में एक बड़ा ही दर्द भरा लेकिन बेहद सुरीला नग़मा जिसे रचा गया था फ़िल्म 'लोहा सिंह' के लिए। गीत कुछ इस तरह से है "बैरन रतिया रे, निंदिया नाही आवे रामा"। आप में से बहुत लोगों ने इस फ़िल्म का नाम ही नहीं सुना होगा शायद। इसलिए आपको बता दें कि यह फ़िल्म आई थी सन् १९६६ में जिसमें मुख्य भूमिकाओं में थे सुजीत कुमार और विजया चौधरी। कुंदन कुमार निर्देशित इस भोजपुरी फ़िल्म में मन्ना डे, मोहम्मद रफ़ी, आशा भोसले, उषा मंगेशकर, सुमन कल्याणपुर जैसे गायकों ने फ़िल्म के गीत गाए थे। संगीत था एस. एन. त्रिपाठी का और फ़िल्म के सभी गीत लिखे गीतकार आर. एस. कश्यप ने। आज के प्रस्तुत गीत के अलावा सुमन जी ने इस फ़िल्म में एक युगल गीत भी गाया था "झूला धीरे से झुलावे" महेन्द्र कपूर के साथ। फ़िल्म के सभी गानें भोजपुरी लोकशैली के थे, और त्रिपाठी जी ने अपने संगीत सफ़र में बहुत सी भोजपुरी फ़िल्मों में संगीत दिया है। जहाँ तक भोजपुरी फ़िल्मों का सवाल है, बहुत सी ऐसी भोजपुरी फ़िल्में आईं हैं जो बेहद मक़बूल रही हैं, और जिन्होने अपने समय के हिंदी फ़िल्मों को ज़बरदस्त टक्कर दिया है। जैसे कि १९५३ में 'लागी नाही छूटे रामा' फ़िल्म ने 'मुग़ल-ए-आज़म' के साथ रिलीज़ होने के बावजूद उत्तरी भारत में ज़बरदस्त कामयाबी हासिल की थी। बिहार के लोक-संगीत में जो मिठास है, जो मधुरता है, उसका परिचय हमें हिंदी फ़िल्मों के कई संगीतकार समय समय पर करवाते आए हैं जिनमें एस. एन. त्रिपाठी, चित्रगुप्त और रवीन्द्र जैन का नाम मेरे ख़याल से सब से उपर आने चाहिए।
कल हमने बातें की थी चित्रगुप्त जी की। आज बात करते हैं एस. एन. त्रिपाठी जी की। त्रिपाठी जी भले ही हिंदी फ़िल्म संगीत जगत में पौराणिक और ऐतिहासिक फ़िल्मों में संगीत देने वाले के नाम से टाइपकास्ट हो गए और हिट सामाजिक फ़िल्मों में संगीत देने का अवसर उन्हे नसीब नहीं हुआ, लेकिन भोजपुरी फ़िल्म जगत में उनका पदार्पण बेहद लोकप्रिय रहा। आइए आज उनके संगीत से संवरे हुए कुछ भोजपुरी फ़िल्मों और उनके लोकप्रिय गीतों पर नज़र डाली जाए। यह तथ्य हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं पंकज राग लिखित किताब "धुनों की यात्रा" के पृष्ठ संख्या २५८ से। "भोजपुरी फ़िल्म 'बिदेसिया' (१९६३) में पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार की पारम्परिक कजरी, चैती और बिदेसिया लोकधुनों पर आधारित गीत बेहद लोकप्रिय हुए और गली गली में बजे। "जान ले के हथेली पे चलिबे", "हँसी हँसी पनवा खिऔले बेइमनवा", बिदेसिया लोकधुन पर सृजित "लेई बदरवा से कजरवा" और "दिनवाँ गिनत मोरी खिसकी उंगरिया", कजरी आधारित "रिमझिम बरसेला" तथा "इसक करै ऊ जिसकी जेब", चैती शैली में "बनि जइहौं बनि के जोगनिया हो रामा पिया के करनवा" और नौटंकी की शैली का "हमें दुनिया करैला बदनाम" जैसे गीतों से एस.एन. त्रिपाठी ने पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के ग्रामीण जनमानस में अपनी विशिष्ट जगह बना ली थी। भोजपुरी फ़िल्म 'जेकरा चरनवा में लगले परनवा' (१९६४) के विदाई गीत "डोलिया सजाव बाबुल" और "ढूंढ़त ढूंढ़त आँख थकि गइले" और "देख ली तोहार जब से बावरी सूरतिया" जैसे गीत, भोजपुरी फ़िल्म 'जोगिन' (१९६४) के "बिरही जोगनिया के" और "गंगिया रे जस तोर धार" तथा 'लोहा सिंह' (१९६६) के "पैंया लागी", "बैरन रतिया रे" तथा "झूला धीरे से झुलावे" जैसे गीत भी इन इलाकों में त्रिपाठी की लोकप्रियता को आगे बढ़ाने में सहायक रहे। अवधी फ़िल्म 'गोस्वामी तुलसीदास' (१९६४) के "आओ हे दुखिहारी शिव त्रिपुरारी", "हे अंतरयामी हरि" और "केहिके गज मस्ते हाथी" भी ख़ूब चर्चित रहे थे।" दोस्तों, उपर हमने जितने भी गीतों का ज़िक्र किया, उनमें से बहुत से गीत सुमन कल्याणपुर की आवाज़ में थे। सुमन जी ने बेशुमार भोजपुरी फ़िल्मों में गीत गाए हैं, तो आइए सुनते हैं आज का यह गीत और बह निकलते हैं पूर्वी यू.पी और बिहार के सुरीली धरती की तरफ़।
क्या आप जानते हैं...
कि एस. एन. त्रिपाठी सन् १९३४ की 'बॊम्बे टॊकीज़' की फ़िल्म 'जीवन नैया' से संगीतकार सरस्वती देवी के सहयक बने थे, और उन्होने ही १९३६ की मशहूर फ़िल्म 'अछूत कन्या' के मशहूर गीत "मैं बन की चिड़िया" को अशोक कुमार और देविका रानी को एक माह तक अभ्यास करवाया था।
पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)
१. दक्षिण की एक सुप्रसिद्ध पार्श्वगायिका का गाया हुआ यह गीत है, जिनके साथ एस. पी. बालासुब्रहमण्यम की जोड़ी दक्षिण में सब से कामयाब व लोकप्रिय जोड़ी मानी जाती है। इस २३ अप्रैल को इस गायिका ने ७२ वर्ष पूरे किए हैं। गायिका का नाम बताएँ। ३ अंक।
२. यह एक मुजरा गीत है जिसके मुखड़े में शब्द है "बेवफ़ा"। गीत बताएँ। ३ अंक।
३. यह एक धार्मिक फ़िल्म का गीत है जो आयी थी १९५९ में। फ़िल्म में संगीत था जी. के. वेंकटेश का। फ़िल्म का नाम बताएँ। २ अंक।
४. इसी फ़िल्म मे मन्ना डे और गीता दत्त का गाया हुआ एक युगल गीत भी था। गीत बताएँ। ३ अंक।
विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।
पिछली पहेली का परिणाम -
अवध जी, लगता है पूरी तैयारी के साथ हैं इस बार, लगातार दूसरी बार सबसे अधिक अंक वाले सवाल का जवाब देकर आपने बाज़ी मारी है, क्या बाकी सवाल बहुत मुश्किल थे, जो अन्य धुरंधर नदारद रहे ?
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
'दुर्लभ दस' शृंखला की आज है तीसरी कड़ी। आज इसमें पेश है सुमन कल्याणपुर की आवाज़ में एक बड़ा ही दर्द भरा लेकिन बेहद सुरीला नग़मा जिसे रचा गया था फ़िल्म 'लोहा सिंह' के लिए। गीत कुछ इस तरह से है "बैरन रतिया रे, निंदिया नाही आवे रामा"। आप में से बहुत लोगों ने इस फ़िल्म का नाम ही नहीं सुना होगा शायद। इसलिए आपको बता दें कि यह फ़िल्म आई थी सन् १९६६ में जिसमें मुख्य भूमिकाओं में थे सुजीत कुमार और विजया चौधरी। कुंदन कुमार निर्देशित इस भोजपुरी फ़िल्म में मन्ना डे, मोहम्मद रफ़ी, आशा भोसले, उषा मंगेशकर, सुमन कल्याणपुर जैसे गायकों ने फ़िल्म के गीत गाए थे। संगीत था एस. एन. त्रिपाठी का और फ़िल्म के सभी गीत लिखे गीतकार आर. एस. कश्यप ने। आज के प्रस्तुत गीत के अलावा सुमन जी ने इस फ़िल्म में एक युगल गीत भी गाया था "झूला धीरे से झुलावे" महेन्द्र कपूर के साथ। फ़िल्म के सभी गानें भोजपुरी लोकशैली के थे, और त्रिपाठी जी ने अपने संगीत सफ़र में बहुत सी भोजपुरी फ़िल्मों में संगीत दिया है। जहाँ तक भोजपुरी फ़िल्मों का सवाल है, बहुत सी ऐसी भोजपुरी फ़िल्में आईं हैं जो बेहद मक़बूल रही हैं, और जिन्होने अपने समय के हिंदी फ़िल्मों को ज़बरदस्त टक्कर दिया है। जैसे कि १९५३ में 'लागी नाही छूटे रामा' फ़िल्म ने 'मुग़ल-ए-आज़म' के साथ रिलीज़ होने के बावजूद उत्तरी भारत में ज़बरदस्त कामयाबी हासिल की थी। बिहार के लोक-संगीत में जो मिठास है, जो मधुरता है, उसका परिचय हमें हिंदी फ़िल्मों के कई संगीतकार समय समय पर करवाते आए हैं जिनमें एस. एन. त्रिपाठी, चित्रगुप्त और रवीन्द्र जैन का नाम मेरे ख़याल से सब से उपर आने चाहिए।
कल हमने बातें की थी चित्रगुप्त जी की। आज बात करते हैं एस. एन. त्रिपाठी जी की। त्रिपाठी जी भले ही हिंदी फ़िल्म संगीत जगत में पौराणिक और ऐतिहासिक फ़िल्मों में संगीत देने वाले के नाम से टाइपकास्ट हो गए और हिट सामाजिक फ़िल्मों में संगीत देने का अवसर उन्हे नसीब नहीं हुआ, लेकिन भोजपुरी फ़िल्म जगत में उनका पदार्पण बेहद लोकप्रिय रहा। आइए आज उनके संगीत से संवरे हुए कुछ भोजपुरी फ़िल्मों और उनके लोकप्रिय गीतों पर नज़र डाली जाए। यह तथ्य हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं पंकज राग लिखित किताब "धुनों की यात्रा" के पृष्ठ संख्या २५८ से। "भोजपुरी फ़िल्म 'बिदेसिया' (१९६३) में पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार की पारम्परिक कजरी, चैती और बिदेसिया लोकधुनों पर आधारित गीत बेहद लोकप्रिय हुए और गली गली में बजे। "जान ले के हथेली पे चलिबे", "हँसी हँसी पनवा खिऔले बेइमनवा", बिदेसिया लोकधुन पर सृजित "लेई बदरवा से कजरवा" और "दिनवाँ गिनत मोरी खिसकी उंगरिया", कजरी आधारित "रिमझिम बरसेला" तथा "इसक करै ऊ जिसकी जेब", चैती शैली में "बनि जइहौं बनि के जोगनिया हो रामा पिया के करनवा" और नौटंकी की शैली का "हमें दुनिया करैला बदनाम" जैसे गीतों से एस.एन. त्रिपाठी ने पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के ग्रामीण जनमानस में अपनी विशिष्ट जगह बना ली थी। भोजपुरी फ़िल्म 'जेकरा चरनवा में लगले परनवा' (१९६४) के विदाई गीत "डोलिया सजाव बाबुल" और "ढूंढ़त ढूंढ़त आँख थकि गइले" और "देख ली तोहार जब से बावरी सूरतिया" जैसे गीत, भोजपुरी फ़िल्म 'जोगिन' (१९६४) के "बिरही जोगनिया के" और "गंगिया रे जस तोर धार" तथा 'लोहा सिंह' (१९६६) के "पैंया लागी", "बैरन रतिया रे" तथा "झूला धीरे से झुलावे" जैसे गीत भी इन इलाकों में त्रिपाठी की लोकप्रियता को आगे बढ़ाने में सहायक रहे। अवधी फ़िल्म 'गोस्वामी तुलसीदास' (१९६४) के "आओ हे दुखिहारी शिव त्रिपुरारी", "हे अंतरयामी हरि" और "केहिके गज मस्ते हाथी" भी ख़ूब चर्चित रहे थे।" दोस्तों, उपर हमने जितने भी गीतों का ज़िक्र किया, उनमें से बहुत से गीत सुमन कल्याणपुर की आवाज़ में थे। सुमन जी ने बेशुमार भोजपुरी फ़िल्मों में गीत गाए हैं, तो आइए सुनते हैं आज का यह गीत और बह निकलते हैं पूर्वी यू.पी और बिहार के सुरीली धरती की तरफ़।
क्या आप जानते हैं...
कि एस. एन. त्रिपाठी सन् १९३४ की 'बॊम्बे टॊकीज़' की फ़िल्म 'जीवन नैया' से संगीतकार सरस्वती देवी के सहयक बने थे, और उन्होने ही १९३६ की मशहूर फ़िल्म 'अछूत कन्या' के मशहूर गीत "मैं बन की चिड़िया" को अशोक कुमार और देविका रानी को एक माह तक अभ्यास करवाया था।
पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)
१. दक्षिण की एक सुप्रसिद्ध पार्श्वगायिका का गाया हुआ यह गीत है, जिनके साथ एस. पी. बालासुब्रहमण्यम की जोड़ी दक्षिण में सब से कामयाब व लोकप्रिय जोड़ी मानी जाती है। इस २३ अप्रैल को इस गायिका ने ७२ वर्ष पूरे किए हैं। गायिका का नाम बताएँ। ३ अंक।
२. यह एक मुजरा गीत है जिसके मुखड़े में शब्द है "बेवफ़ा"। गीत बताएँ। ३ अंक।
३. यह एक धार्मिक फ़िल्म का गीत है जो आयी थी १९५९ में। फ़िल्म में संगीत था जी. के. वेंकटेश का। फ़िल्म का नाम बताएँ। २ अंक।
४. इसी फ़िल्म मे मन्ना डे और गीता दत्त का गाया हुआ एक युगल गीत भी था। गीत बताएँ। ३ अंक।
विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।
पिछली पहेली का परिणाम -
अवध जी, लगता है पूरी तैयारी के साथ हैं इस बार, लगातार दूसरी बार सबसे अधिक अंक वाले सवाल का जवाब देकर आपने बाज़ी मारी है, क्या बाकी सवाल बहुत मुश्किल थे, जो अन्य धुरंधर नदारद रहे ?
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
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पराग
फिल्म का नाम - दुर्गामाता
अवध लाल