महफ़िल-ए-ग़ज़ल #४२
"प्रश्न-पहेली" की यह दूसरी "किश्त" पाठकों को भा रही है, इसी यकीन और इसी उम्मीद के साथ हम पहुँच गए हैं इस पहेली के दूसरे सोपान पर। आज के प्रश्नों का पिटारा खोलने से पहले वक्त है पिछली महफ़िल के विजेताओं और अंकों से परदा हटाने का। पहेली के साथ हीं शरद जी की वापसी तय थी और वैसा हीं हुआ। बस हमें किसी की कमी खली तो वो हैं "दिशा" जी। चलिए कोई बात नहीं, उम्मीद करते हैं कि दिशा जी अगली पहेलियों का जरूर हिस्सा बनेंगी। पिछली कड़ी की पहेलियों का सबसे पहले जवाब दिया शरद जी ने। वैसे तो उन्हें इसके लिए ४ अंक मिलने चाहिए थें, लेकिन चूँकि उन्होंने दूसरे प्रश्न में आधा हीं उत्तर दिया ("मुन्नी बेगम" और "१९७६" ये दो उत्तर थे) , इसलिए कुल मिलाकर उन्हें ३ हीं अंक मिलते हैं। शरद जी के बाद "सीमा" जी जवाबों के साथ हाज़िर हुईं। उन्होंने दोनों प्रश्नों के सही सवाल दिए। इसलिए उन्हें नियम के अनुसार २ अंक मिलते हैं। अब बारी है आज के प्रश्नों की| तो यह रही प्रतियोगिता की घोषणा और उसके आगे दो प्रश्न: ५० वें अंक तक हम हर बार आपसे दो सवाल पूछेंगे जिसके जवाब उस दिन के या फिर पिछली कड़ियों के आलेख में छुपे होंगे। अगर आपने पिछली कड़ियों को सही से पढा होगा तो आपको जवाब ढूँढने में मुश्किल नहीं होगी, नहीं तो आपको थोड़ी मेहनत करनी होगी। और हाँ, हर बार पहला सही जवाब देने वाले को ४ अंक, उसके बाद २ अंक और उसके बाद हर किसी को १ अंक मिलेंगे। इन १० कड़ियों में जो भी सबसे ज्यादा अंक हासिल करेगा, वह महफ़िल-ए-गज़ल में अपनी पसंद की ५ गज़लों की फरमाईश कर सकता है, जिसे हम ५३वीं से ६०वीं कड़ी के बीच में पेश करेंगे। लेकिन अगर ऐसा हो जाए कि १० कड़ियों के बाद हमें एक से ज्यादा विजेता मिल रहे हों तो ५१वीं कड़ी ट्राई ब्रेकर का काम करेगी, मतलब कि उन विजेताओं में से जो भी पहले ५१वीं कड़ी के एकमात्र मेगा-प्रश्न का जवाब दे दे,वह हमारा फ़ाईनल विजेता होगा। एक बात और- जवाब देने वाले को यह भी बताना होगा कि "अमुक" सवाल किस कड़ी से जुड़ा है। तो ये रहे आज के सवाल: -
१) "मैं कोई बर्फ़ नहीं जो पिघल जाऊँगा" यह किसने लिखा है और किसकी फिल्म में इस गाने को स्थान दिया गया है?
२) "शाहनामा-ए-इस्लाम" की रचना करने वाला एक शायर जिसकी एक नज़्म में "अलस्त" शब्द का प्रयोग हुआ है। उस शायर का नाम बताएँ और यह भी बताएँ कि उस नज़्म में अलस्त का किस अर्थ में प्रयोग हुआ है।
आज की गज़ल सुनवाने से पहले हम आपको आपकी अपनी दिल्ली में आयोजित होने वाले एक समारोह से अवगत कराना चाहेंगे जिसके बारे में मुमकिन है कि कईयों को पता न हो। इस समारोह की महत्ता इसलिए भी है कि इसका रिश्ता जहाँ एक तरह सूफ़ी कलामों से जुड़ा है तो वहीं दूसरी तरह सूफ़ी और शास्त्रीय गायकी से। जहान-ए-खुसरो एक पर्व, एक उत्सव है, जो हर साल दिल्ली में मार्च के महीने में मनाया जाता है। इसकी शुरूआत २००१ में प्रसिद्ध सूफ़ी कवि अमिर खुसरो की याद में की गई थी। अमिर खुसरो हज़रत निज़ाम-उद-दीन औलिया, जो कि चिश्ती परंपरा के संत थे, के शिष्य थे। अमिर खुसरो ने हीं तबला और सितार का ईजाद किया था। उर्दू भाषा के जनक के रूप में भी इन्हें याद किया जाता है। जहाँ तक जहान-ए-खुसरो का सवाल है तो तीन दिनों तक चलने वाले इस पर्व की स्थापना हिंदी फिल्मों के जाने-माने फिल्म निर्देशक मुज़फ़्फ़र अली ने की थी। इस महापर्व में पूरी दुनिया से सूफ़ी संगीत के जानकार शिरकत करते हैं। "बुखारा", "शिराज़" और "कुस्तुनतुनिया" तक से आकर लोगों ने इस महापर्व की शोभा बढाई है। इस महापर्व के जो दो मुख्य आकर्षण रहे हैं: वे हैं बेगम आबिदा परवीन और शुभा मुद्गल। हुमायूँ के मकबरे पर आयोजित होने वाले इस पर्व की रंगीनियों के क्या कहने। वसंत ऋतु होने के कारण आसपास का वातावरण बड़ा हीं सुखद रहता है। साथ हीं कृत्रिम सजावट भी मन को मोह लेते हैं। तो यूँ सजता है हर साल "जहान-ए-खुसरो"। इसी सजावट और इसी मदहोशी के आलम से हर साल कई सारी रिकार्डिंग्स उमड़ कर बाहर की दुनिया में आती है। ऐसी हीं एक रिकार्डिंग "जहान-ए-खुसरो(THE REALM OF THE HEART)" से लेकर आए हैं हम आज की गज़ल जिसे अपनी आवाज़ से सजाया है शास्त्रीय संगीत और पॉप संगीत पर बराबर का अधिकार रखने वालीं शोभा मुद्गल ने और जिसकी रचना की है हज़रत ज़हीन शाह ताजी साहब ने। तो चलिए पहले हम बात करते हैं शुभा मुद्गल जी की।
रवीन्द्ग कालिया साहब "ग़ालिब छुटी शराब" शीर्षक से लिखे अपने लेख में अनजाने में हीं शुभा मुद्गल का परिचय दे देते हैं: जब महादेवीजी की अध्यक्षता में फै़ज़ का नागरिक अभिनंदन और विदाई समारोह हो रहा था तो डीपीटी ने मंच से शुभा मुद्गल को फै़ज़ की एक ग़ज़ल पेश करने की दावत दी थी। उन दिनों शुभा मुद्गल शुभा गुप्ता थीं और इलाहाबाद विश्वविद्यालय की छात्रा थीं-अत्यंत दुबली-पतली और छरहरे बदन की छुईमुई सी युवती। तब तक इलाहाबाद इस प्रतिभा से नितांत अपरिचित था। शुभा मुद्गल ने जब अपने सधे कंठ से फै़ज़ की ग़ज़ल पेश की तो हाल में सन्नाटा खिंच गया। उनकी अदायगी में शास्त्रीय संगीत का पुट और गज़ब का कसाव था। फै़ज़ खुद दाद देने लगे। उनकी गायी हुई एक गज़ल आज भी स्मृतियों में कौंध रही है-
गुलों में रंग भरे बादा-ए-नौ बहार चले,
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले।
बहुत कम लोग जानते होंगे, शुभा मुद्गल हिंदी के प्रख्यात प्रगतिशील समीक्षक प्रकाशचंद्र गुप्त की पौत्री हैं। इस बात का उल्लेख करना भी ग़ैरज़रूरी न होगा कि शुभा के पिता स्कंदगुप्त फ़ैज़ के ज़बरदस्त फैन थे और पिता की तरह इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग से सम्बद्ध थे। उन्होंने फै़ज़ के कार्यक्रमों पर मूवी कैमरे से फिल्म बनाई थी। और फै़ज़ की हर गुफ़्तगू और तकरीर का टेप तैयार किया था। वह भारत के मान्यताप्राप्त क्रिकेट कमेंटटर भी थे। शुभा भक्ति संगीत को अपने लिए मार्गदर्शन का एक साधन मानती हैं। इस बाबत उनका कहना है कि जब मैंने संगीत सीखना शुरू किया, तो मुझे बताया गया था कि संगीत और भक्ति एक दूसरे का पर्याय है। मेरे द्वारा कृष्ण संप्रदाय की दीक्षा लेने का एक प्रमुख कारण यह भी रहा है। यह संप्रदाय संगीत को विशेष महत्व देता है। वे भगवान की भक्ति दो प्रकार भोग सेवा और राग सेवा से करते है। यह टिक्का, जिसे लोग स्टाइलिश बिंदी समझते है, इस संप्रदाय से जुड़ने की निशानी है। शुभा मुद्गल ने कुमार गंधर्व के बाद भारत में उनकी गायन-शैली को जीवित रखने का काम किया है। इन्होंने गुरू रामाश्रय झा से संगीत की विधिवत शिक्षा ली है। जब शुभा इलाहाबाद में थीं तो सुमित्रानंदन पंत और फ़िराक़ गोरखपुरी जैसे दिग्गज इनके पड़ोसी हुआ करते थे। फ़िराक को याद करते हुए ये कहती हैं: फ़िराक़ जी कभी भी आकर दरवाजा खटखटा देते थे। एक बार फ़िराक़ जी हमारे घर पर रचना सुनाने आने वाले थे। हम लोग इंतज़ार करते रह गए पर वे आ न सके। फिर एक दिन अचानक दरवाजे की घंटी बजी। फिर एक बुलंद आवाज़ सुनाई पड़ी- स्कंद है? स्कंद यानि मेरे पिता जी। मैने जाकर देखा तो निचुड़े हुए कुरते-पायजामे में फिराक़ जी खड़े थे। मैं उन्हें देख कर ठिठक कर रह गई। बड़ी-बड़ी आँखें, उन आँखों में अद्भुत तेज था। फिर उसी गरजती हुई आवाज़ में कहा -उस दिन नहीं आ पाया इसलिए आज आ पाया हूँ। वैसे क्या आपको पता है कि शुभा जी गायिका बनने से पहले एक कथक नृत्यांगना थी। नहीं पता....कोई बात नहीं, हम किस लिए हैं, लेकिन आज नहीं, कभी दूसरे अंक में। अभी तो आज की गज़ल की ओर रूख करते हैं। उससे पहले आज की गज़ल/नज़्म के शायर ज़हीन साहब का एक शेर पेश-ए-खिदमत है:
निगह-ए-नाज़ से पूछेंगे किसी दिन ये ज़हीन,
तूने क्या-क्या न बनाया, कोई क्या-क्या न बना|
ज़हीन साहब के बारे में अंतर्जाल पर कम हीं जानकारी उपलब्ध है। लेकिन हम आपसे वादा करते हैं कि जब भी इनकी कोई गज़ल या नज़्म अगली बार हमारी महफ़िल का हिस्सा बनेगी तो इनकी ज़िंदगी और इनके कलामों से आपको ज़रूर अवगत करवाएँगे। आज चूँकि शुभा जी की हीं बातें होती रह गईं, इसलिए कुछ अलग लिखने का वक्त न मिला। कोई बात नहीं, वो कहते हैं ना कि "पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त" । इसलिए वक्त के तकाजे को समझते हुए आज की गज़ल/नज़्म का लुत्फ़ उठाते हैं:
मैं होश में हूँ तो तेरा हूँ,
दीवाना हूँ तो तेरा हूँ,
हूँ राज़ अगर तो तेरा हूँ,
अफ़साना हूँ तो तेरा हूँ।
बर्बाद किया, बर्बाद हुआ,
आबाद किया, आबाद हुआ,
वीराना हूँ तो तेरा हूँ,
काशाना हूँ तो तेरा हूँ।
इस तेरी तजल्ली के कुर्बां,
कुर्बान-ए-तजल्ली हर उनवा,
मैं शमा भी हूँ तो तेरा हूँ,
परवाना हूँ तो तेरा हूँ।
तू मेरे कैफ़ की दुनिया है,
तू मेरी मस्ती का आलम,
पैमाना हूँ तो तेरा हूँ,
मैखाना हूँ तो तेरा हूँ।
हर ज़र्रा ज़हीन की हस्ती का,
तस्वीर है तेरी सर-ता-पा,
ओ क़ाबा-ए-दिल ढाहने वाले,
बुतखाना हूँ तो तेरा हूँ।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -
तुझ पे भी बरसा है उस __ से मेह्ताब का नूर
जिस में बीती हुई रातों की कसक बाक़ी है
आपके विकल्प हैं -
a) बाम, b) शाम, c) दरीचे, d) फलक
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "किश्तों" और शेर कुछ यूं था -
भूले है रफ्ता रफ्ता उन्हें मुद्दतों में हम
किश्तों में खुदखुशी का मज़ा हमसे पूछिये..
खुमार साहब के इस शेर को सबसे पहले सही पहचाना "सीमा" जी ने। वाह...क्या बात है सीमा जी....पिछली बार की तरह इस बार भी महफ़िल में आप खुल कर नज़र आईं। धीरे-धीरे शान-ए-महफ़िल बनती जा रहीं हैं आप। कुलदीप जी और शामिख साहब को जबरदस्त टक्कर दिया है आपने। इसका पता इसी बात से चलता है कि जिस गज़ल को शामिख साहब न पहचान पाएँ, आपने न सिर्फ़ उस गज़ल से हमें अवगत कराया, बल्कि यह भी बताया कि उस गज़ल के गज़लगो "अदीम हासमी" साहब हैं। वैसे तो "किश्तों" शब्द पर आपने कई सारे शेर पेश किए, लेकिन हम "जहीर कुरैशी" साहब की वह गज़ल यहाँ उद्धृत करना चाहेंगे, जिसमें रदीफ़ हीं है "किश्तों में":
विष असर कर रहा है किश्तों में
आदमी मर रहा है किश्तों में
उसने इकमुश्त ले लिया था ऋण
व्याज को भर रहा है किश्तों में
एक अपना बड़ा निजी चेहरा
सबके भीतर रहा है किश्तों में
माँ ,पिता ,पुत्र,पुत्र की पत्नी
एक ही घर रहा है किश्तों में
एटमी अस्त्र हाथ में लेकर
आदमी डर रहा है किश्तों में
सीमा जी के बाद महफ़िल में आना हुआ मंजु जी का। यह रहा आपका स्वरचित शेर:
किश्तों पर किया था दिल पर जादू `
अब दर्द का अहसास ही बाकी 'मंजू '
शामिख साहब...जरा संभलिए..महफ़िल में आप तनिक देर से हाज़िर हुए और यह देखिए सीमा जी महफ़िल लूट ले गईं। आपने भी एक से बढकर एक शेर पेश किए। बानगी मौजूद है:
लोग उम्रे दराज़ की दुआएँ करते हैं
यहाँ ये हाल है, किश्तों में रोज़ मरते हैं
एक मुश्त देखा नही तुझे कभी भी
बस किश्तों में देखा है थोड़ा-थोडा
सुमित जी और मनु जी, न जाने आप दोनों किस जल्दीबाजी में थे...आँधी की तरह आए और तूफ़ान की तरह निकल पड़े...महफ़िल में थोड़ा और वक्त गुजारा कीजिए। सुमित जी, पुराना शेर याद दिलाने के लिए शुक्रिया।
कुलदीप जी, खुमार साहब के प्रति आपकी दीवानगी तो हमें तब भी मालूम पड़ गई थी, जब खुमार साहब पर हमने एक अंक पेश किया था। आपने खुमार साहब की कई सारी गज़लें महफ़िल को मुहैया कराईं। इसके लिए धन्यवाद। "किश्तों" पर आपने यह शेर महफ़िल के सुपूर्द किया:
जिंदगी का ज़हर पीना पड़ रहा है
मुझे किश्तों में जीना पड़ रहा है
शन्नो जी..अपनी खास अदा के साथ महफ़िल में नज़र आईं। महफ़िल को विषय बनाकर शेर कहने का आपका अंदाज़ काबिल-ए-तारीफ़ है। यह रही आपकी पेशकश:
किसकी नज़र लग गयी है उनको
की अब बातें भी करते हैं तो किश्तों में.
अंत में शरद जी अपने स्वरचित शेर के साथ महफ़िल की शमा बुझाते दिखे:
जब तक जिया मरता रहा मैं किश्तों में
अब कर दिया शामिल मुझे फ़रिश्तों में ।
श्याम जी, महफ़िल में आपका स्वागत है। यह क्या, आए... एक शेर कहा और उस शेर को बस शरद जी को संभालने को कह कर चल दिए। हम भी तो हैं यहाँ। आप जैसे शायर को महफ़िल में पाकर हम धन्य हो गए:
कभी नींद बेची कभी ख्वाब बेचे
यूं किश्तों मे बिकना पड़ा ‘श्याम’ मुझको
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए विदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
"प्रश्न-पहेली" की यह दूसरी "किश्त" पाठकों को भा रही है, इसी यकीन और इसी उम्मीद के साथ हम पहुँच गए हैं इस पहेली के दूसरे सोपान पर। आज के प्रश्नों का पिटारा खोलने से पहले वक्त है पिछली महफ़िल के विजेताओं और अंकों से परदा हटाने का। पहेली के साथ हीं शरद जी की वापसी तय थी और वैसा हीं हुआ। बस हमें किसी की कमी खली तो वो हैं "दिशा" जी। चलिए कोई बात नहीं, उम्मीद करते हैं कि दिशा जी अगली पहेलियों का जरूर हिस्सा बनेंगी। पिछली कड़ी की पहेलियों का सबसे पहले जवाब दिया शरद जी ने। वैसे तो उन्हें इसके लिए ४ अंक मिलने चाहिए थें, लेकिन चूँकि उन्होंने दूसरे प्रश्न में आधा हीं उत्तर दिया ("मुन्नी बेगम" और "१९७६" ये दो उत्तर थे) , इसलिए कुल मिलाकर उन्हें ३ हीं अंक मिलते हैं। शरद जी के बाद "सीमा" जी जवाबों के साथ हाज़िर हुईं। उन्होंने दोनों प्रश्नों के सही सवाल दिए। इसलिए उन्हें नियम के अनुसार २ अंक मिलते हैं। अब बारी है आज के प्रश्नों की| तो यह रही प्रतियोगिता की घोषणा और उसके आगे दो प्रश्न: ५० वें अंक तक हम हर बार आपसे दो सवाल पूछेंगे जिसके जवाब उस दिन के या फिर पिछली कड़ियों के आलेख में छुपे होंगे। अगर आपने पिछली कड़ियों को सही से पढा होगा तो आपको जवाब ढूँढने में मुश्किल नहीं होगी, नहीं तो आपको थोड़ी मेहनत करनी होगी। और हाँ, हर बार पहला सही जवाब देने वाले को ४ अंक, उसके बाद २ अंक और उसके बाद हर किसी को १ अंक मिलेंगे। इन १० कड़ियों में जो भी सबसे ज्यादा अंक हासिल करेगा, वह महफ़िल-ए-गज़ल में अपनी पसंद की ५ गज़लों की फरमाईश कर सकता है, जिसे हम ५३वीं से ६०वीं कड़ी के बीच में पेश करेंगे। लेकिन अगर ऐसा हो जाए कि १० कड़ियों के बाद हमें एक से ज्यादा विजेता मिल रहे हों तो ५१वीं कड़ी ट्राई ब्रेकर का काम करेगी, मतलब कि उन विजेताओं में से जो भी पहले ५१वीं कड़ी के एकमात्र मेगा-प्रश्न का जवाब दे दे,वह हमारा फ़ाईनल विजेता होगा। एक बात और- जवाब देने वाले को यह भी बताना होगा कि "अमुक" सवाल किस कड़ी से जुड़ा है। तो ये रहे आज के सवाल: -
१) "मैं कोई बर्फ़ नहीं जो पिघल जाऊँगा" यह किसने लिखा है और किसकी फिल्म में इस गाने को स्थान दिया गया है?
२) "शाहनामा-ए-इस्लाम" की रचना करने वाला एक शायर जिसकी एक नज़्म में "अलस्त" शब्द का प्रयोग हुआ है। उस शायर का नाम बताएँ और यह भी बताएँ कि उस नज़्म में अलस्त का किस अर्थ में प्रयोग हुआ है।
आज की गज़ल सुनवाने से पहले हम आपको आपकी अपनी दिल्ली में आयोजित होने वाले एक समारोह से अवगत कराना चाहेंगे जिसके बारे में मुमकिन है कि कईयों को पता न हो। इस समारोह की महत्ता इसलिए भी है कि इसका रिश्ता जहाँ एक तरह सूफ़ी कलामों से जुड़ा है तो वहीं दूसरी तरह सूफ़ी और शास्त्रीय गायकी से। जहान-ए-खुसरो एक पर्व, एक उत्सव है, जो हर साल दिल्ली में मार्च के महीने में मनाया जाता है। इसकी शुरूआत २००१ में प्रसिद्ध सूफ़ी कवि अमिर खुसरो की याद में की गई थी। अमिर खुसरो हज़रत निज़ाम-उद-दीन औलिया, जो कि चिश्ती परंपरा के संत थे, के शिष्य थे। अमिर खुसरो ने हीं तबला और सितार का ईजाद किया था। उर्दू भाषा के जनक के रूप में भी इन्हें याद किया जाता है। जहाँ तक जहान-ए-खुसरो का सवाल है तो तीन दिनों तक चलने वाले इस पर्व की स्थापना हिंदी फिल्मों के जाने-माने फिल्म निर्देशक मुज़फ़्फ़र अली ने की थी। इस महापर्व में पूरी दुनिया से सूफ़ी संगीत के जानकार शिरकत करते हैं। "बुखारा", "शिराज़" और "कुस्तुनतुनिया" तक से आकर लोगों ने इस महापर्व की शोभा बढाई है। इस महापर्व के जो दो मुख्य आकर्षण रहे हैं: वे हैं बेगम आबिदा परवीन और शुभा मुद्गल। हुमायूँ के मकबरे पर आयोजित होने वाले इस पर्व की रंगीनियों के क्या कहने। वसंत ऋतु होने के कारण आसपास का वातावरण बड़ा हीं सुखद रहता है। साथ हीं कृत्रिम सजावट भी मन को मोह लेते हैं। तो यूँ सजता है हर साल "जहान-ए-खुसरो"। इसी सजावट और इसी मदहोशी के आलम से हर साल कई सारी रिकार्डिंग्स उमड़ कर बाहर की दुनिया में आती है। ऐसी हीं एक रिकार्डिंग "जहान-ए-खुसरो(THE REALM OF THE HEART)" से लेकर आए हैं हम आज की गज़ल जिसे अपनी आवाज़ से सजाया है शास्त्रीय संगीत और पॉप संगीत पर बराबर का अधिकार रखने वालीं शोभा मुद्गल ने और जिसकी रचना की है हज़रत ज़हीन शाह ताजी साहब ने। तो चलिए पहले हम बात करते हैं शुभा मुद्गल जी की।
रवीन्द्ग कालिया साहब "ग़ालिब छुटी शराब" शीर्षक से लिखे अपने लेख में अनजाने में हीं शुभा मुद्गल का परिचय दे देते हैं: जब महादेवीजी की अध्यक्षता में फै़ज़ का नागरिक अभिनंदन और विदाई समारोह हो रहा था तो डीपीटी ने मंच से शुभा मुद्गल को फै़ज़ की एक ग़ज़ल पेश करने की दावत दी थी। उन दिनों शुभा मुद्गल शुभा गुप्ता थीं और इलाहाबाद विश्वविद्यालय की छात्रा थीं-अत्यंत दुबली-पतली और छरहरे बदन की छुईमुई सी युवती। तब तक इलाहाबाद इस प्रतिभा से नितांत अपरिचित था। शुभा मुद्गल ने जब अपने सधे कंठ से फै़ज़ की ग़ज़ल पेश की तो हाल में सन्नाटा खिंच गया। उनकी अदायगी में शास्त्रीय संगीत का पुट और गज़ब का कसाव था। फै़ज़ खुद दाद देने लगे। उनकी गायी हुई एक गज़ल आज भी स्मृतियों में कौंध रही है-
गुलों में रंग भरे बादा-ए-नौ बहार चले,
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले।
बहुत कम लोग जानते होंगे, शुभा मुद्गल हिंदी के प्रख्यात प्रगतिशील समीक्षक प्रकाशचंद्र गुप्त की पौत्री हैं। इस बात का उल्लेख करना भी ग़ैरज़रूरी न होगा कि शुभा के पिता स्कंदगुप्त फ़ैज़ के ज़बरदस्त फैन थे और पिता की तरह इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग से सम्बद्ध थे। उन्होंने फै़ज़ के कार्यक्रमों पर मूवी कैमरे से फिल्म बनाई थी। और फै़ज़ की हर गुफ़्तगू और तकरीर का टेप तैयार किया था। वह भारत के मान्यताप्राप्त क्रिकेट कमेंटटर भी थे। शुभा भक्ति संगीत को अपने लिए मार्गदर्शन का एक साधन मानती हैं। इस बाबत उनका कहना है कि जब मैंने संगीत सीखना शुरू किया, तो मुझे बताया गया था कि संगीत और भक्ति एक दूसरे का पर्याय है। मेरे द्वारा कृष्ण संप्रदाय की दीक्षा लेने का एक प्रमुख कारण यह भी रहा है। यह संप्रदाय संगीत को विशेष महत्व देता है। वे भगवान की भक्ति दो प्रकार भोग सेवा और राग सेवा से करते है। यह टिक्का, जिसे लोग स्टाइलिश बिंदी समझते है, इस संप्रदाय से जुड़ने की निशानी है। शुभा मुद्गल ने कुमार गंधर्व के बाद भारत में उनकी गायन-शैली को जीवित रखने का काम किया है। इन्होंने गुरू रामाश्रय झा से संगीत की विधिवत शिक्षा ली है। जब शुभा इलाहाबाद में थीं तो सुमित्रानंदन पंत और फ़िराक़ गोरखपुरी जैसे दिग्गज इनके पड़ोसी हुआ करते थे। फ़िराक को याद करते हुए ये कहती हैं: फ़िराक़ जी कभी भी आकर दरवाजा खटखटा देते थे। एक बार फ़िराक़ जी हमारे घर पर रचना सुनाने आने वाले थे। हम लोग इंतज़ार करते रह गए पर वे आ न सके। फिर एक दिन अचानक दरवाजे की घंटी बजी। फिर एक बुलंद आवाज़ सुनाई पड़ी- स्कंद है? स्कंद यानि मेरे पिता जी। मैने जाकर देखा तो निचुड़े हुए कुरते-पायजामे में फिराक़ जी खड़े थे। मैं उन्हें देख कर ठिठक कर रह गई। बड़ी-बड़ी आँखें, उन आँखों में अद्भुत तेज था। फिर उसी गरजती हुई आवाज़ में कहा -उस दिन नहीं आ पाया इसलिए आज आ पाया हूँ। वैसे क्या आपको पता है कि शुभा जी गायिका बनने से पहले एक कथक नृत्यांगना थी। नहीं पता....कोई बात नहीं, हम किस लिए हैं, लेकिन आज नहीं, कभी दूसरे अंक में। अभी तो आज की गज़ल की ओर रूख करते हैं। उससे पहले आज की गज़ल/नज़्म के शायर ज़हीन साहब का एक शेर पेश-ए-खिदमत है:
निगह-ए-नाज़ से पूछेंगे किसी दिन ये ज़हीन,
तूने क्या-क्या न बनाया, कोई क्या-क्या न बना|
ज़हीन साहब के बारे में अंतर्जाल पर कम हीं जानकारी उपलब्ध है। लेकिन हम आपसे वादा करते हैं कि जब भी इनकी कोई गज़ल या नज़्म अगली बार हमारी महफ़िल का हिस्सा बनेगी तो इनकी ज़िंदगी और इनके कलामों से आपको ज़रूर अवगत करवाएँगे। आज चूँकि शुभा जी की हीं बातें होती रह गईं, इसलिए कुछ अलग लिखने का वक्त न मिला। कोई बात नहीं, वो कहते हैं ना कि "पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त" । इसलिए वक्त के तकाजे को समझते हुए आज की गज़ल/नज़्म का लुत्फ़ उठाते हैं:
मैं होश में हूँ तो तेरा हूँ,
दीवाना हूँ तो तेरा हूँ,
हूँ राज़ अगर तो तेरा हूँ,
अफ़साना हूँ तो तेरा हूँ।
बर्बाद किया, बर्बाद हुआ,
आबाद किया, आबाद हुआ,
वीराना हूँ तो तेरा हूँ,
काशाना हूँ तो तेरा हूँ।
इस तेरी तजल्ली के कुर्बां,
कुर्बान-ए-तजल्ली हर उनवा,
मैं शमा भी हूँ तो तेरा हूँ,
परवाना हूँ तो तेरा हूँ।
तू मेरे कैफ़ की दुनिया है,
तू मेरी मस्ती का आलम,
पैमाना हूँ तो तेरा हूँ,
मैखाना हूँ तो तेरा हूँ।
हर ज़र्रा ज़हीन की हस्ती का,
तस्वीर है तेरी सर-ता-पा,
ओ क़ाबा-ए-दिल ढाहने वाले,
बुतखाना हूँ तो तेरा हूँ।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -
तुझ पे भी बरसा है उस __ से मेह्ताब का नूर
जिस में बीती हुई रातों की कसक बाक़ी है
आपके विकल्प हैं -
a) बाम, b) शाम, c) दरीचे, d) फलक
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "किश्तों" और शेर कुछ यूं था -
भूले है रफ्ता रफ्ता उन्हें मुद्दतों में हम
किश्तों में खुदखुशी का मज़ा हमसे पूछिये..
खुमार साहब के इस शेर को सबसे पहले सही पहचाना "सीमा" जी ने। वाह...क्या बात है सीमा जी....पिछली बार की तरह इस बार भी महफ़िल में आप खुल कर नज़र आईं। धीरे-धीरे शान-ए-महफ़िल बनती जा रहीं हैं आप। कुलदीप जी और शामिख साहब को जबरदस्त टक्कर दिया है आपने। इसका पता इसी बात से चलता है कि जिस गज़ल को शामिख साहब न पहचान पाएँ, आपने न सिर्फ़ उस गज़ल से हमें अवगत कराया, बल्कि यह भी बताया कि उस गज़ल के गज़लगो "अदीम हासमी" साहब हैं। वैसे तो "किश्तों" शब्द पर आपने कई सारे शेर पेश किए, लेकिन हम "जहीर कुरैशी" साहब की वह गज़ल यहाँ उद्धृत करना चाहेंगे, जिसमें रदीफ़ हीं है "किश्तों में":
विष असर कर रहा है किश्तों में
आदमी मर रहा है किश्तों में
उसने इकमुश्त ले लिया था ऋण
व्याज को भर रहा है किश्तों में
एक अपना बड़ा निजी चेहरा
सबके भीतर रहा है किश्तों में
माँ ,पिता ,पुत्र,पुत्र की पत्नी
एक ही घर रहा है किश्तों में
एटमी अस्त्र हाथ में लेकर
आदमी डर रहा है किश्तों में
सीमा जी के बाद महफ़िल में आना हुआ मंजु जी का। यह रहा आपका स्वरचित शेर:
किश्तों पर किया था दिल पर जादू `
अब दर्द का अहसास ही बाकी 'मंजू '
शामिख साहब...जरा संभलिए..महफ़िल में आप तनिक देर से हाज़िर हुए और यह देखिए सीमा जी महफ़िल लूट ले गईं। आपने भी एक से बढकर एक शेर पेश किए। बानगी मौजूद है:
लोग उम्रे दराज़ की दुआएँ करते हैं
यहाँ ये हाल है, किश्तों में रोज़ मरते हैं
एक मुश्त देखा नही तुझे कभी भी
बस किश्तों में देखा है थोड़ा-थोडा
सुमित जी और मनु जी, न जाने आप दोनों किस जल्दीबाजी में थे...आँधी की तरह आए और तूफ़ान की तरह निकल पड़े...महफ़िल में थोड़ा और वक्त गुजारा कीजिए। सुमित जी, पुराना शेर याद दिलाने के लिए शुक्रिया।
कुलदीप जी, खुमार साहब के प्रति आपकी दीवानगी तो हमें तब भी मालूम पड़ गई थी, जब खुमार साहब पर हमने एक अंक पेश किया था। आपने खुमार साहब की कई सारी गज़लें महफ़िल को मुहैया कराईं। इसके लिए धन्यवाद। "किश्तों" पर आपने यह शेर महफ़िल के सुपूर्द किया:
जिंदगी का ज़हर पीना पड़ रहा है
मुझे किश्तों में जीना पड़ रहा है
शन्नो जी..अपनी खास अदा के साथ महफ़िल में नज़र आईं। महफ़िल को विषय बनाकर शेर कहने का आपका अंदाज़ काबिल-ए-तारीफ़ है। यह रही आपकी पेशकश:
किसकी नज़र लग गयी है उनको
की अब बातें भी करते हैं तो किश्तों में.
अंत में शरद जी अपने स्वरचित शेर के साथ महफ़िल की शमा बुझाते दिखे:
जब तक जिया मरता रहा मैं किश्तों में
अब कर दिया शामिल मुझे फ़रिश्तों में ।
श्याम जी, महफ़िल में आपका स्वागत है। यह क्या, आए... एक शेर कहा और उस शेर को बस शरद जी को संभालने को कह कर चल दिए। हम भी तो हैं यहाँ। आप जैसे शायर को महफ़िल में पाकर हम धन्य हो गए:
कभी नींद बेची कभी ख्वाब बेचे
यूं किश्तों मे बिकना पड़ा ‘श्याम’ मुझको
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए विदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
Comments
खुदाया तूने कैसे ये जहां सारा बना डाला.....गुलाम अली की मार्फ़त पूछ रहे हैं
महफ़िल-ए-ग़ज़ल #३७
आनंद बख्शी जी ने लिखा
सुभाष घई साहब ने अपनी एक फ़िल्म में इस्तेमाल किया है।
मैं कोई बर्फ़ नहीं जो पिघल जाऊँगा,
मैं कोई हर्फ़ नहीं जो बदल जाऊँगा,
मैं तो जादू हूँ, मैं जादू हूँ, चल जाऊँगा।
regards
न ग़म कशोद-ओ-बस्त का, न वादा-ए-अलस्त का..........अभी तो मैं जवान हूँ!!
महफ़िल-ए-ग़ज़ल #२५
"शाहनामा-ए-इस्लाम" की रचना करने वाला एक शायर हाफ़िज़ जालंधरी.
अलस्त" का शाब्दिक अर्थ है "नहीं हूँ" ,
regards
आ कि वाबस्ता हैं उस हुस्न की यादें तुझ से
जिसने इस दिल को परीख़ाना बना रखा था
जिसकी उल्फ़त में भुला रखी थी दुनिया हमने
दहर को दहर का अफ़साना बना रखा था
आशना हैं तेरे क़दमों से वह राहें जिन पर
उसकी मदहोश जवानी ने इनायत की है
कारवां गुज़रे हैं जिनसे इसी र’अनाई के
जिसकी इन आंखों ने बेसूद इबादत की है
तुझ से खेली हैं वह मह्बूब हवाएं जिन में
उसके मलबूस की अफ़सुरदा महक बाक़ी है
तुझ पे भी बरसा है उस बाम से मेह्ताब का नूर
जिस में बीती हुई रातों की कसक बाक़ी है
तू ने देखी है वह पेशानी वह रुख़सार वह होंट
ज़िन्दगी जिन के तसव्वुर में लुटा दी हमने
तुझ पे उठी हैं वह खोई खोई साहिर आंखें
तुझको मालूम है क्यों उम्र गंवा दी हमने
हम पे मुश्तरका हैं एह्सान ग़मे उल्फ़त के
इतने एह्सान कि गिनवाऊं तो गिनवा न सकूं
हमने इस इश्क़ में क्या खोया क्या सीखा है
जुज़ तेरे और को समझाऊं तो समझा न सकूं
आजिज़ी सीखी ग़रीबों की हिमायत सीखी
यास ओ हिर्मां के दुख दर्द के म’आनि सीखे
ज़ेर द्स्तों के मसाएब को समझना सीखा
सर्द आहों के, रुख़े ज़र्द के म’आनी सीखे
जब कहीं बैठ के रोते हैं वह बेकस जिनके
अश्क आंखों में बिलकते हुए सो जाते हैं
नातवानों के निवालों पे झपटते हैं उक़ाब
बाज़ू तौले हुए मन्डलाते हुए आते हैं
जब कभी बिकता है बाज़ार में मज़दूर का गोश्त
शाहराहों पे ग़रीबों का लहू बह्ता है
आग सी सीने में रह रह के उबलती है न पूछ
अपने दिल पर मुझे क़ाबू ही नहीं रहता है
regards
जिस में बीती हुई रातों की कसक बाक़ी है
regards
हवा के ज़ोर से पिंदार-ए-बाम-ओ-दार भी गया
चिराग़ को जो बचाते थे उन का घर भी गया
पुकारते रहे महफ़ूज़ किश्तियों वाले
मैं डूबता हुआ दरिया के पार उतर भी गया
अब एहतियात की दीवार क्या उठाते हो
जो चोर दिल में छुपा था वो काम कर भी गया
मैं चुप रहा कि इस में थी आफ़ियत जाँ की
कोई तो मेरी तरह था जो दार पर भी गया
सुलगते सोचते वीराँ मौसमों की तरह
कड़ा था अहद-ए-जवानी मगर गुज़र भी गया
जिसे भुला न सका उस को याद क्या रखता
जो नाम दिल में रहा ज़ेहन से उतर भी गया
फटी-फटी हुई आँखों से यूँ न देख मुझे
तुझे तलाश है जिस की वो शख़्स मर भी गया
मगर फ़लक की अदावत उसी के घर से न थी
जहाँ "फ़राज़" न था सैल-ए-ग़म उधर भी गया
regards
लबरेज़ है शराब-ए-हक़ीक़त से जाम-ए-हिन्द
सब फ़लसफ़ी हैं ख़ित्त-ए-मग़रिब के राम-ए-हिन्द
ये हिन्दियों के फ़िक्र-ए-फ़लक रस का है असर
रिफ़त में आसमाँ से भी ऊँचा है बाम-ए-हिन्द
इस देस में हुए हैं हज़ारों मलक सरिश्त
मशहूर जिन के दम से है दुनिया में नाम-ए-हिन्द
है राम के वजूद पे हिन्दोस्ताँ को नाज
अहल-ए-नज़र समझते हैं इस को इमाम-ए-हिन्द
एजाज़ इस चिराग़-ए-हिदायत का है यही
रोशन तर अज सहर है ज़माने में शाम-ए-हिन्द
तलवार का धनी था, शुजाअत में फ़र्द था
पाकिज़गी में, जोश-ए-मोहब्बत में फ़र्द था
regards
बाम[१] पर आने लगे वो सामना होने लगा
अब तो इज़हारे-महब्बत[२] बरमला होने लगा
regards
हाथ ढलते गये साँचे में तो थकते कैसे
नक़्श के बाद नये नक़्श निखारे हम ने
की ये दीवार बुलन्द, और बुलन्द, और बुलन्द
बाम-ओ-दर और ज़रा, और सँवारे हम ने
regards
ग़मे-आशिक़ी से कह दो रहे–आम तक न पहुँचे ।
मुझे ख़ौफ़ है ये तोहमत मेरे नाम तक न पहुँचे ।।
मैं नज़र से पी रहा था कि ये दिल ने बददुआ दी –
तेरा हाथ ज़िंदगी-भर कभी जाम तक न पहुँचे ।
नयी सुबह पर नज़र है मगर आह ये भी डर है,
ये सहर भी रफ़्ता-रफ़्ता कहीं शाम तक न पहुँचे ।
ये अदा-ए-बेनियाज़ी तुझे बेवफ़ा मुबारिक,
मगर ऐसी बेरुख़ी क्या कि सलाम तक न पहुँचे ।
जो निक़ाबे-रुख उठी दी तो ये क़ैद भी लगा दी,
उठे हर निगाह लेकिन कोई बाम तक न पहुँचे ।
regards
हम को जुनूँ क्या सिखलाते हो हम थे परेशाँ तुमसे ज़ियादा
चाक किये हैं हमने अज़ीज़ों चार गरेबाँ तुमसे ज़ियादा
चाक-ए-जिगर मुहताज-ए-रफ़ू है आज तो दामन सिर्फ़ लहू है
एक मौसम था हम को रहा है शौक़-ए-बहाराँ तुमसे ज़ियादा
जाओ तुम अपनी बाम की ख़ातिर सारी लवें शमों की कतर लो
ज़ख़्मों के महर-ओ-माह सलामत जश्न-ए-चिराग़ाँ तुमसे ज़ियादा
हम भी हमेशा क़त्ल हुए अन्द तुम ने भी देखा दूर से लेकिन
ये न समझे हमको हुआ है जान का नुकसाँ तुमसे ज़ियादा
ज़ंजीर-ओ-दीवार ही देखी तुमने तो "मजरूह" मगर हम
कूचा-कूचा देख रहे हैं आलम-ए-ज़िंदाँ तुमसे ज़ियादा
regards
किसी कली ने भी देखा न आँख भर के मुझे
गुज़र गई जरस-ए-गुल उदास कर के मुझे
मैं सो रहा था किसी याद के शबिस्ताँ में
जगा के छोड़ गये क़ाफ़िले सहर के मुझे
मैं रो रहा था मुक़द्दर की सख़्त राहों में
उड़ा के ले गया जादू तेरी नज़र का मुझे
मैं तेरी दर्द की तुग़ियानियों में डूब गया
पुकारते रहे तारे उभर-उभर के मुझे
तेरे फ़िराक़ की रातें कभी न भूलेंगी
मज़े मिले इन्हीं रातों में उम्र भर के मुझे
ज़रा सी देर ठहरने दे ऐ ग़म-ए-दुनिया
बुला रहा है कोई बाम से उतर के मुझे
फिर आज आई थी इक मौज-ए-हवा-ए-तरब
सुना गई है फ़साने इधर-उधर के मुझे
regards
माँगे है फिर किसी को लब-ए-बाम पर हवस
ज़ुल्फ़-ए-सियाह रुख़ पे परेशाँ किये हुए
regards
न जाने कितनी शम्मे गुल हुईं कितने बुझे तारे,
तब एक खुर्शीद इतराता हुआ बला-ए-बाम आया ।
regards
आये कुछ अब्र, कुछ शराब आये
उसके बाद आये जो अज़ाब आये
बामे-मीना से माहताब उतरे
दस्ते-साक़ी में आफताब आये
हर रगे-खूं में फिर चिरागां हो
सामने फिर वो बे-नक़ाब आये
उम्र के हर वरक़ पे दिल को नज़र
तेरी मेहरो-वफा के बाब आये
कर रहा था ग़मे-जहां का हिसाब
आज तुम याद बे-हिसाब आये
न गयी तेरे ग़म की सरदारी
दिल में यूं रोज़ इनक़लाब आये
जल उठे बज़्मे-गैर के दरो-बाम
जब भी हम खानमां-खराब आये
इस तरह अपनी खामोशी गूंजी
गोया हर सिम्त से जवाब आये
फ़ैज़ की राह सर-ब-सर मंजिल
हम जहां पहुंचे कामयाब आये
regards
एक तरफ़ महफ़िल-ए-बादा-औ-जाम है,
दिल का दोनो से है कुछ न कुछ वास्ता,
एक तरफ़ उसका घर,एक तरफ़ मयकदा।
regards
प्रश्न १ : कडी सं. ३७
शायर : आनन्द बख्शी
सुभाष घई की फ़िल्म में उपयोग हुआ
प्रश्न २ : कडी २५
शायर : हाफ़िज़ जालन्धरी
संसार की उत्पत्ति के अर्थ में प्रयोग किया
उसने सुकूत-ए-शब में भी अपना पयाम रख दिया हिज्र की रात बाम पर माह-ए-तमाम रख दिया
regards
सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं
सुना है रब्त है उसको ख़राब हालों से
सो अपने आप को बरबाद करके देखते हैं
सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए-नाज़ुक उसकी
सो हम भी उसकी गली से गुज़र कर देखते हैं
सुना है उसको भी है शेर-ओ-शायरी से शगफ़
सो हम भी मोजज़े अपने हुनर के देखते हैं
सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं
सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है
सितारे बाम-ए-फ़लक से उतर कर देखते हैं
सुना है हश्र हैं उसकी ग़ज़ाल सी आँखें
सुना है उस को हिरन दश्त भर के देखते हैं
सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं
सुना है रात को जुग्नू ठहर के देखते हैं
सुना है रात से बढ़ कर हैं काकुलें उसकी
सुना है शाम को साये गुज़र के देखते हैं
सुना है उसकी सियाह चश्मगी क़यामत है
सो उसको सुरमाफ़रोश आँख भर के देखते हैं
सुना है उसके लबों से गुलाब जलते हैं
सो हम बहार पर इल्ज़ाम धर के देखते हैं
सुना है आईना तमसाल है जबीं उसका
जो सादा दिल हैं बन सँवर के देखते हैं
सुना है जब से हमाइल हैं उसकी गर्दन में
मिज़ाज और ही लाल-ओ-गौहर के देखते हैं
सुना है चश्म-ए-तसव्वुर से दश्त-ए-इम्कान में
पलंग ज़ावे उसकी कमर को देखते हैं
सुना है उसके बदन के तराश ऐसे हैं
के फूल अपनी क़बायेँ कतर के देखते हैं
वो सर्व-क़द है मगर बे-गुल-ए-मुराद नहीं
के उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं
बस एक निगाह से लुटता है क़ाफ़िला दिल का
सो रहरवाँ-ए-तमन्ना भी डर के देखते हैं
सुना है उसके शबिस्तान से मुत्तसिल है बहिश्त
मकीन उधर के भी जलवे इधर के देखते हैं
रुके तो गर्दिशें उसका तवाफ़ करती हैं
चले तो उसको ज़माने ठहर के देखते हैं
किसे नसीब के बे-पैरहन उसे देखे
कभी-कभी दर-ओ-दीवार घर के देखते हैं
कहानियाँ हीं सही सब मुबालग़े ही सही
अगर वो ख़्वाब है ताबीर कर के देखते हैं
अब उसके शहर में ठहरें कि कूच कर जायेँ
"फ़राज़" आओ सितारे सफ़र के देखते हैं
regards
फिर वही आतिशफिशानी कर रही उसकी अदा
फिर वही मदिरा पिला डाली है उसके जाम ने ……….
जब भी गुज़रा वो हसीं पैकर मेरे इतराफ़ से
दी सदा उसको हर एक दर ने हर एक बाम ने……
एक अजब खामोश सा एहसास था दिल में मेरे
उसका नज़ारा किया है पहले हर इक गाम ने…
regards
ज़ीना सबा का ढूँढती है अपनी मुश्त-ए-ख़ाक
बाम-ए-बलन्द यार का है आस्ताना क्या
regards
न ग़म कशोद-ओ-बस्त का, न वादा-ए-अलस्त का..........अभी तो मैं जवान हूँ!!
महफ़िल-ए-ग़ज़ल #२५
"शाहनामा-ए-इस्लाम" की रचना करने वाला एक शायर हाफ़िज़ जालंधरी.
न ग़म कशोद-ओ-बस्त का, बुलंद का न पस्त का, न बूद का न हस्त का न वादा-ए-अलस्त का। " अर्थात - "मुझे अपनी ज़िंदगी के न तो बंद किस्से का ग़म है और न हीं किसी खुली दास्तां का। मैं सफ़र में आई न किसी ऊँचाई की फ़िक्र करता हूँ और न हीं किसी गहराई की। मुझे न अपने होने की चिंता है और न हीं अपने रूतबे की। और न हीं मैं संसार की उत्पत्ति के समय किए गए किसी वादे से इत्तेफ़ाक रखता हूँ।"
कहा जाता है कि जब खुदा ने इस कुदरत की तख्लीक की थी तो उस समय उन्होंने इसी शब्द का उच्चारण किया था।
" इसलिए इस शब्द का यहाँ संसार की उत्पत्ति के लिए किया गया है"
regards
तुझ पर भी बरसा है उस बाम से महताब का नूर
जिसमें बीती हुई रातों की कसक बाकी है
आ कि वाबस्ता हैं उस हुस्न की यादें तुझ से
जिसने इस दिल को परीख़ाना बना रखा था
जिसकी उल्फ़त में भुला रखी थी दुनिया हमने
दहर को दहर का अफ़साना बना रखा था
आशना हैं तेरे क़दमों से वो राहें जिन पर
उसकी मदहोश जवानी ने इनायत की है
कारवाँ गुज़रे हैं जिनसे इसी र’अनाई के
जिसकी इन आँखों ने बेसूद इबादत की है
तुझ से खेली हैं वह महबूब हवाएँ जिनमें
उसके मलबूस की अफ़सुर्दा महक बाक़ी है
तुझ पे भी बरसा है उस बाम से मेह्ताब का नूर
जिस में बीती हुई रातों की कसक बाक़ी है
तू ने देखी है वह पेशानी वह रुख़सार वह होंठ
ज़िन्दगी जिन के तसव्वुर में लुटा दी हमने
तुझ पे उठी हैं वह खोई-खोई साहिर आँखें
तुझको मालूम है क्यों उम्र गँवा दी हमने
हम पे मुश्तरका हैं एहसान ग़मे-उल्फ़त के
इतने एह्सान कि गिनवाऊं तो गिनवा न सकूँ
हमने इस इश्क़ में क्या खोया क्या सीखा है
जुज़ तेरे और को समझाऊँ तो समझा न सकूँ
आजिज़ी सीखी ग़रीबों की हिमायत सीखी
यास-ओ-हिर्मां के दुख-दर्द के म’आनी सीखे
ज़ेर द्स्तों के मसाएब को समझना सीखा
सर्द आहों के, रुख़े ज़र्द के म’आनी सीखे
जब कहीं बैठ के रोते हैं वो बेकस जिनके
अश्क आंखों में बिलकते हुए सो जाते हैं
नातवानों के निवालों पे झपटते हैं उक़ाब
बाज़ू तौले हुए मंडराते हुए आते हैं
जब कभी बिकता है बाज़ार में मज़दूर का गोश्त
शाहराहों पे ग़रीबों का लहू बहता है
आग-सी सीने में रह-रह के उबलती है न पूछ
अपने दिल पर मुझे क़ाबू ही नहीं रहता है
faiz ahmad faiz
धाई धुर लीक सुनि बिधीँ बिधुरनि सौँ ।
पावस न दीसी यह पावस नदी सी फिरै
उमड़ी असँगत तरँगित उरनि सौँ ।
लाज काज सुख साज बँधन समाज नांघि
निकसीँ निसँक सकुचैँ नहिँ गुरनि सौँ ।
मीन ज्यों अधीनी गुन कीनी खैँच लीनी देव
बंसी वार बंसी डार बँसी के सुरनि सौँ ।
जब मैं तुम्हारे लिए सरे-बाम खड़ा होता था
इस बरस होली के रंग रास नहीं आयेंगे…
हर बदन पर कीमती चमकते हुए लिबास
हर रूख पर तबस्सुम की दमकती लहर
लगाती है शब भी आज कि जैसे हो सहर
माहौल खुशनुमा है या खुदा इस कदर
दिखता है कभी - कभी ऐसा बेनज़ीर मंज़र
दस्त-ए-साकी में आफताब आये
बाम पर शेर- ना मैं चाँद हूँ किसी शाम का, ना चिराग हूँ किसी बाम का,
मैं तो रास्ते का हूँ एक दिया, मुझे आप किस लिए मिल गए........
बाम शब्द का अर्थ क्या होता है?
मेरा जवाब है -बाम
दोहा स्वरचित है -हिमालयराज की पुत्री,
ने सहा खूब ताप .
हुयी थी शादी शिव की ,
पाया शिव का बाम .
खैर अब आये है तो १-२ शेर सुनकर ही जायेंगे
क्या कहने बधाई
हम ने मुकाबिल उस के तेरा नाम रख दिया
कितना सितमज़रीफ़ है वो साहिब-ऐ-जमाल
उस ने दिया जला के लब-ऐ-बाम रख दिया
- जनाब क़तील शिफाई साहब
वैसे तो पूरी ग़ज़ल ही बहुत अज़ीज़ है मूझे लेकिन इन्ही शेरो से संतोष कर रहा हू
नक्श के बाद नए नक्श निखारे हम ने
की ये दीवार बुलंद, और बुलंद,और बुलंद
बाम-ओ-दर और ज़रा, और सँवारे हम ने
- महान शायर कैफी आज़मी
उनकी खुबसूरत नज़्म "मकान " से
मेरे हमसाये में जब भी कोई दीवार गिरे
- जनाब शकीब जलाली की मशहूर ग़ज़ल से
हम तो वो लोग हैं हर धूप को साया जाने
- मेरे बहुत ही पसंदीदा शायर जनाब इफ्तिखार आरिफ
इक मौसम था हम को रहा है शौक़ ऐ-बहारां तुमसे जियादा
जाओ तुम अपनी बाम की खातिर सारी लवें शामों की क़तर लो
ज़ख्मों के महर-ओ-माह सलामत जशन ऐ-चिरागां तुमसे जियादा
- महान शायर जनाब मजरूह सुलतान पूरी साहब
मैंने पहली बार ये ग़ज़ल इक मुश्यरा विडियो में खुद मजरूह साहब के मुंह से सुनी थी
इस महफ़िल में बस इतना ही
सद्ब्खैर
दर्द किसी और का दिल में उठा के देखो
हर व्यक्ति में कोई अपना दिख जायेगा
खुदगर्जी के परदे को थोडा हटा के देखो
saader
rachana
दर्द किसी और का दिल में उठा के देखो
हर व्यक्ति में कोई अपना दिख जायेगा
खुदगर्जी के परदे को थोडा हटा के देखो
saader
rachana
jaldi mein aayaa hoon...
:)
ek be-bahr sher hai....
lage utarne sitaare falak se usne jaroor
baam ko apni kunwaaraa gagan likha hogaa.....
:)
इश्क मोहताज़े इल्तिफात नहीं
दिल बुझा हो अगर तो दिन भी है रात
दिल हो रोशन तो रात रात नहीं
दिले साकी मैं तोडूं ऐ वाइज़
जा मूझे ख्वाहिशे नजात नहीं
ऐसी भूली है कायनात मूझे
जैसे मैं जुज्बे कायनात नहीं
तीरगी बढती जा रही है मगर
सबको ये बहम है कि रात नहीं
मेरे लायक नहीं हयात खुमार
और मैं लायके हयात नहीं
- हजरत खुमार बाराबंकवी