महफ़िल-ए-ग़ज़ल #३३
यूँतो हमने पिछली दफ़ा फ़रमाईश की गज़लों का सिलसिला शुरू कर दिया था.. लेकिन न जाने क्यों आज मन हुआ कि कम से कम एक दिन के लिए हीं अपने पुराने ढर्रे पर वापस आ जाया जाए। अहा..... हम अपने वादे से मुकर नहीं रहे, आने वाली ७ कड़ियों में हमें फ़रमाईश की ५ गज़लों/नज़्मों को हीं सुनाना है, इसलिए आगे भी दो बार हम अपने संग्रह से चुनी हुई २ गज़लों/नज़्मों का आनंद ले सकते हैं। तो चलिए आज की गज़ल की ओर बढते हैं। आज की गज़ल "यूँ न रह-रहकर हमें तरसाईये" को लिखा है "सागर निज़ामी" ने और संगीत से सँवारा है चालीस के दशक के मशहूर संगीतकार "पंडित अमरनाथ" ने। जानकारी के लिए बता दूँ कि "पंडित अमरनाथ" जानी-मानी संगीतकार जोड़ी "हुस्नलाल-भगतराम" के बड़े भाई थे। रही बात "सागर निज़ामी" की तो अंतर्जाल पर उनकी लिखी चार हीं गज़लें मौजूद हैं- "यूँ न रह-रहकर", "हैरत से तक रहा", "हादसे क्या-क्या तुम्हारी बेरूखी से हो गए" और "काफ़िर गेशु वालों की रात बसर यूँ होती है"। संगीतकार और शायर के बाद जिसका नाम हमारे जेहन में आता है वह है इस गज़ल का गायक। बात यहीं पर आकर अटक जाती है। यहाँ से आगे भावुक हुए बिना बढा हीं नहीं जा सकता। इस गज़लगायक की ज़िंदगी बस १४ साल ५ महीने और ११ दिन में हीं पूरी हो गई। जालंधर के "खानखाना" में २८ दिसंबर १९२७ को जन्मा यह शख्स ५ जून १९४२ को हमें तरसता छोड़कर चला गया। यह शख्स यह फ़नकार अपनी उम्र का १५वाँ वसंत भी नहीं देख सका। फिर भी इस फ़नकार में कुछ तो ऐसी बात थी कि आज भी लोग इसका नाम आदर से लेते हैं।
अगर श्रोतों की मानें तो इस फ़नकार ने अपना पहला पब्लिक परफ़ोर्मेंश महज़ ३ साल की उम्र में धरमपुर में दिया था। "हे शारदा नमन करूँ" की गूँज कुछ ऐसी उपजी थी कि सुनने वालों को अपने कानों पर भरोसा न हुआ। बस इतना हीं नहीं इन्होंने इस भजन के बाद "ध्रुपद" में और भी कई सारी रचनाएँ गाईं। फिर तो साधारण जन क्या जाने-माने शास्त्रीय संगीत के पुजारियों और भक्तों को भी इस बात का यकीन हो गया कि कुछ तो पारलौकिक है इनकी आवाज़ में। इनकी प्रसिद्धि इतनी बढी कि लोग किसी भी कीमत पर इन्हें सुनना चाहते थे। यहाँ तक कहा जाता है कि उस दौर में इन्हें लोकल परफ़ोर्मेंश के लिए ८० रूपए और आउट आफ़ स्टेशन के लिए २५० रूपए तक मिलने लगे। लेकिन इन्हें पैसों से कोई प्यार न था। इन्हें गाने में जो सुकून मिलता था, बस इसी कारण ये महीने में २०-२० शो करने लगे थे। रेडियो पर इनके गाने फिर नियमित बजने लगे। इनकी मक़बूलियत को भुनाने के लिए एक फिल्मकार शिमला(जहाँ ये सपरिवार रहते थे) पहुँच गए और इन्हें संत कबीर का रोल आफ़र कर दिया, लेकिन घर वाले राजी ने हुए। इनके परिवार वालों को हमेशा हीं इस बात का अफ़सोस रहा है। कम-से-कम वे लोग इन्हें बड़े पर्दे पर तो देख पाते। संगीत की दुनिया में चमत्कार की तरह उभरा यह फ़नकार देखते-देखते एक लीज़ेंड बन गया। इनकी प्रसिद्धि का बखान "मैथिली शरण गुप्त" ने अपनी पुस्तक "भारत-भारती" में भी किया है। यह बात स्वतंत्रता संग्राम के दिनों की है, इसलिए उस समय "महात्मा गाँधी" की प्रसिद्धि का आकलन आसानी से किया जा सकता है। फिर भी कहा जाता है कि एकबारगी जब "गाँधी" जी किसी सभा को संबोधित करने शिमला आए थे तो उस सभा में उम्मीद से बहुत कम लोगों ने शिरकत की थी। कारण जानने की जब कोशिश की गई तो यह पता चला कि उसी दिन शिमला में "मास्टर मदन" का कार्यक्रम चल रहा था। इसी बात से आप "मास्टर मदन" की मक़बूलियत का हिसाब लगा सकते हैं। जी हाँ, हमारे आज के फ़नकार मास्टर मदन हीं हैं, जिन्हें कई लोग गलती से "मदन मोहन" समझ बैठते हैं तो कई लोग इस बात पर आपत्ति जताते हैं कि इन्हें उस्ताद मदन क्यों नहीं कहा जाता। चूँकि इन्होंने १८ वसंत भी पार नहीं किए थे इसलिए इन्हें उस्ताद नहीं कहा जा सकता, नहीं तो प्रतिभा में तो ये कब के उस्ताद बन चुके थे। कलकत्ता में इनका अंतिम परफ़ोर्मेंश कई लोगों के दिलों में अभी तक बसा है। राग बागेश्वरी में इन्होंने जब "बिनती सुनो मोरे अवधपुर के बसिया" गाया था तो संगीत के एक पारखी ने इन पर ५०० रूपए न्योछावर कर दिए थे। दुर्भाग्यवश कलकत्ता के बाद इनकी महफ़िल कहीं नहीं जमी। धीरे-धीरे ये बीमार पड़ते गए और एक दिन काल का ग्रास बन गए।
इनकी मौत के बारे में कई कहानियाँ प्रचलित हैं। किस कहानी में सच्चाई है, यह कहा नहीं जा सकता। जानेमाने लेखक और इतिहासविद प्राण नेविल लिखते हैं: कई सारी अफ़वाहें जुड़ी हैं इनकी मौत से। कुछ लोग कहते हैं कि अंबाला में कुछ गवैया लड़कियों ने इन्हें "कोठा" पर बुलाया था। फिर पान में कोई जहरीला चीज डालकर इन्हें खिला दिया जिससे धीरे-धीरे इनकी हालत बिगड़ती चली गई और अंतत: इनकी मौत हो गई। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि कलकत्ता में इनके अंतिम पब्लिक परफ़ोर्मेंश की सफ़लता को देखकर इनके दुश्मनों ने इनके पेय में कोई स्लो प्वाइजन मिला दिया था। यह भी कहा जाता है कि आल इंडिया रेडियो के लिए दिल्ली में जब ये अपना कार्यक्रम देने गए थे तो इनके किसी राइवल(समकालीन गायक) ने इन्हें रास्ते से हटाने के लिए इनके दुध(जो ये आल इंडिया रेडियो के कैंटीन में नियमित रूप से पीया करते थे) में मरकरी की मिलावट कर दी थी। इस बात में इतनी सच्चाई तो है हीं कि डाक्टरों ने इनकी मौत का कारण इनके खून में मरकरी का होना बताया था। इन पर गायकी का अत्यधिक बोझ होना भी इनकी मौत का एक कारण बना। घर वालों को इनके स्वास्थ्य से ज्यादा गायकी से आने वाले पैसों की फ़िक्र थी जो अंदर हीं अंदर मास्टर मदन को निगलता चला गया। पाकिस्तान के मशहूर पत्रकार "खालिद हसन" के अनुसार शक़ की ऊँगली के०एल०सहगल पर भी उठती है, जो दर-असल मास्टर मदन से उम्र में १३ साल बड़े भाई "मास्टर मोहन" के साथ रियाज़ किया करते थे। वैसे ये सारी बातें इतनी उलझी हुई हैं कि "कौन दोस्त, कौन रक़ीब" का फ़ैसला नहीं किया जा सकता। फ़ैसला हो भी तो हम कौन होते हैं फ़ैसला करने वाले और वो भी तब जब फ़ैसला सुनने वाला इस दुनिया में हीं नहीं रहा। हम कुछ भी कर लें लेकिन हम उस फ़नकार को वापस तो नहीं ला सकते। सोचिए अगर वह फ़नकार १४ साल की कच्ची उम्र में सुपूर्द-ए-खाक़ नहीं हुआ होता तो आज संगीत का स्तर कितना ऊँचा होता। "मास्टर मदन" की बमुश्किल आठ रिकार्डिंग्स हीं उनके चाहने वालों को नसीब हो पाई हैं। अगर आल इंडिया रेडियो ने एक भी रिकार्डिंग को सहेज़ कर रखा होता तो बात हीं कुछ और होती। अभी तो "मास्टर मदन" का हर चाहने वाला यही दुआ करता है कि काश एक और उनकी कोई रचना सुनने को मिल जाए। गज़लों में उनकी आवाज़ का जादू कुछ इस तरह रंगीन हुआ जाता है कि सुनने वाला अपने आप को गज़ल से जोड़े बिना रह नहीं पाता। और अगर इस हाल में कोई यह कहे कि उनकी बस दो गज़लें हीं हासिल हो सकीं हैं तो इससे बड़ी सजा क्या होगी! जी हाँ इस गज़ल के अलावा "सागर निज़ामी" की "हैरत से तक रहा है जहान-ए-वफ़ा मुझे" हीं वह दूसरी गज़ल है जो इनकी आवाज़ में उपलब्ध है। अब जब "सागर" साहब की बात आ हीं गई है तो क्यों ना उन्हीं का लिखा एक शेर देख लिया जाए जो कमोबेश हर दीवाने पर फिट बैठता है:
कैफ़-ए-खुदी ने मौज़ को कश्ती बना दिया,
होश-ए-खुदा है अब न गम-ए-नाखुदा मुझे।
सागर निज़ामी, पंडित अमरनाथ और मास्टर मदन को याद करते हुए चलिए अब हम आज की इस गज़ल का लुत्फ़ उठाते हैं:
यूँ न रह-रहकर हमें तरसाईये,
आईये आ जाईये आ जाईये।
फिर वही दानिस्ता ठोकर खाईये,
फिर मेरी आगोश में गिर जाईये।
मेरी दुनिया मुन्तज़िर है आपकी,
अपनी दुनिया छोड़कर आ जाईये।
ये हवा ’सागर’ ये हल्की चाँदनी,
जी में आता है यहीं मर जाईये।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -
ये दुनिया भर के झगडे, घर के किस्से, काम की बातें,
__ हर एक टल जाए अगर तुम मिलने आ जाओ...
आपके विकल्प हैं -
a) सज़ा, b) खता, c) बला, d) मुसीबत
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "मकान" और शेर कुछ यूं था -
ऊंची इमारतों से मकान मेरा घिर गया,
कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज भी खा गए...
हर बार की तरह इस बार भी दीपाली जी सही जवाब और अपने शेर के साथ सबसे पहले हाज़िर हुई-
घर इंसा से बनता है ईंटों से नहीं
इनसे तो खाली मकान बना करते हैं
जो डाल दे इन पत्थरों में भी जान
उसे ही तो परिवार कहा करते हैं
बिलकुल सही बात दिशा जी, चूँकि शेर जावेद अख्तर साहब का था शमिख फ़राज़ जी ने उन्हें याद किया कुछ बहतरीन शेरों के साथ, देखिये बानगी -
इस शहर में जीने के अंदाज निराले हैं
होठों पर लतीफे हैं आवाज में छाले हैं
सब का खुशी से फासला एक कदम है
हर घर मे बस एक ही कमरा कम है
आज की दुनिया मे जीने का करीना समझो (तरीका)
जो मिले प्यार से उन लोगों को जीना समझो (सीढ़ी)
वाह क्या बात है फ़राज़ साहब...शमिख जी पूरे मूड में दिखे, शैलेश जैदी के इन शेरों से समां बाँध दिया आपने -
ज़िन्दगी किराये का मकान बन गयी।
अब खुशी भी दर्द के समान बन गयी॥
पत्थरों को छेनियों की चोट जब लगी।
एक अमूर्त कल्पना महान बन गयी
बहुत खूब...
सुमित जी को याद आया ये नायाब शेर -
कैफ परदेश में मत याद करो अपना मकान,
अबके बारिश ने उसे तोड़ गिराया होगा
शरद जी कहाँ पीछे रहने वाले थे -
दीवार क्या गिरी मेरे कच्चे मकान की,
लोगों ने मेरे जेहन में रास्ते बना लिए...
अदा जी ने इरफान सिद्दीकी का ये शेर याद दिलाया, पर आपने हिंदी में टंकण क्यों नहीं किया....उधर मनु जी ने फरमाया -
ये क्या बस्ती है या रब जाने क्या इसकी कहानी है
मकां रहते हैं बस कायम, नहीं मिलते मकां वाले..
कुलदीप अंजुम साहब आये जनाब इफ्तिखार साहब का शेर लेकर -
मेरे खुदा मूझे इतना तो मोअतबर कर दे
मैं जिस मकान में रहता हूँ उस को घर कर दे
निर्मला कपिला जी ने भी महफ़िल का आनंद लिया, चलिए चलते चलते मंजू जी का स्वरचित ये शेर भी सुनते चलें-
ईंट -पत्थर के मकान में हर कोई रह लेता है ,
इन्सान तो वह जो लोगो के दिल में घर बनता है .
जी हाँ मंजू जी हमारी भी कोशिश यही है कि आप सब के दिल में भी अपने लिए एक छोटा सा फ्लैट मतलब मकां बुक कर लें कहीं कहीं कुछ हद तक तो हम कामियाब भी हुए हैं इसी खुशफहमी के साथ अगली महफिल तक दीजिये इजाज़त, खुदा हाफिज़ !!
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
यूँतो हमने पिछली दफ़ा फ़रमाईश की गज़लों का सिलसिला शुरू कर दिया था.. लेकिन न जाने क्यों आज मन हुआ कि कम से कम एक दिन के लिए हीं अपने पुराने ढर्रे पर वापस आ जाया जाए। अहा..... हम अपने वादे से मुकर नहीं रहे, आने वाली ७ कड़ियों में हमें फ़रमाईश की ५ गज़लों/नज़्मों को हीं सुनाना है, इसलिए आगे भी दो बार हम अपने संग्रह से चुनी हुई २ गज़लों/नज़्मों का आनंद ले सकते हैं। तो चलिए आज की गज़ल की ओर बढते हैं। आज की गज़ल "यूँ न रह-रहकर हमें तरसाईये" को लिखा है "सागर निज़ामी" ने और संगीत से सँवारा है चालीस के दशक के मशहूर संगीतकार "पंडित अमरनाथ" ने। जानकारी के लिए बता दूँ कि "पंडित अमरनाथ" जानी-मानी संगीतकार जोड़ी "हुस्नलाल-भगतराम" के बड़े भाई थे। रही बात "सागर निज़ामी" की तो अंतर्जाल पर उनकी लिखी चार हीं गज़लें मौजूद हैं- "यूँ न रह-रहकर", "हैरत से तक रहा", "हादसे क्या-क्या तुम्हारी बेरूखी से हो गए" और "काफ़िर गेशु वालों की रात बसर यूँ होती है"। संगीतकार और शायर के बाद जिसका नाम हमारे जेहन में आता है वह है इस गज़ल का गायक। बात यहीं पर आकर अटक जाती है। यहाँ से आगे भावुक हुए बिना बढा हीं नहीं जा सकता। इस गज़लगायक की ज़िंदगी बस १४ साल ५ महीने और ११ दिन में हीं पूरी हो गई। जालंधर के "खानखाना" में २८ दिसंबर १९२७ को जन्मा यह शख्स ५ जून १९४२ को हमें तरसता छोड़कर चला गया। यह शख्स यह फ़नकार अपनी उम्र का १५वाँ वसंत भी नहीं देख सका। फिर भी इस फ़नकार में कुछ तो ऐसी बात थी कि आज भी लोग इसका नाम आदर से लेते हैं।
अगर श्रोतों की मानें तो इस फ़नकार ने अपना पहला पब्लिक परफ़ोर्मेंश महज़ ३ साल की उम्र में धरमपुर में दिया था। "हे शारदा नमन करूँ" की गूँज कुछ ऐसी उपजी थी कि सुनने वालों को अपने कानों पर भरोसा न हुआ। बस इतना हीं नहीं इन्होंने इस भजन के बाद "ध्रुपद" में और भी कई सारी रचनाएँ गाईं। फिर तो साधारण जन क्या जाने-माने शास्त्रीय संगीत के पुजारियों और भक्तों को भी इस बात का यकीन हो गया कि कुछ तो पारलौकिक है इनकी आवाज़ में। इनकी प्रसिद्धि इतनी बढी कि लोग किसी भी कीमत पर इन्हें सुनना चाहते थे। यहाँ तक कहा जाता है कि उस दौर में इन्हें लोकल परफ़ोर्मेंश के लिए ८० रूपए और आउट आफ़ स्टेशन के लिए २५० रूपए तक मिलने लगे। लेकिन इन्हें पैसों से कोई प्यार न था। इन्हें गाने में जो सुकून मिलता था, बस इसी कारण ये महीने में २०-२० शो करने लगे थे। रेडियो पर इनके गाने फिर नियमित बजने लगे। इनकी मक़बूलियत को भुनाने के लिए एक फिल्मकार शिमला(जहाँ ये सपरिवार रहते थे) पहुँच गए और इन्हें संत कबीर का रोल आफ़र कर दिया, लेकिन घर वाले राजी ने हुए। इनके परिवार वालों को हमेशा हीं इस बात का अफ़सोस रहा है। कम-से-कम वे लोग इन्हें बड़े पर्दे पर तो देख पाते। संगीत की दुनिया में चमत्कार की तरह उभरा यह फ़नकार देखते-देखते एक लीज़ेंड बन गया। इनकी प्रसिद्धि का बखान "मैथिली शरण गुप्त" ने अपनी पुस्तक "भारत-भारती" में भी किया है। यह बात स्वतंत्रता संग्राम के दिनों की है, इसलिए उस समय "महात्मा गाँधी" की प्रसिद्धि का आकलन आसानी से किया जा सकता है। फिर भी कहा जाता है कि एकबारगी जब "गाँधी" जी किसी सभा को संबोधित करने शिमला आए थे तो उस सभा में उम्मीद से बहुत कम लोगों ने शिरकत की थी। कारण जानने की जब कोशिश की गई तो यह पता चला कि उसी दिन शिमला में "मास्टर मदन" का कार्यक्रम चल रहा था। इसी बात से आप "मास्टर मदन" की मक़बूलियत का हिसाब लगा सकते हैं। जी हाँ, हमारे आज के फ़नकार मास्टर मदन हीं हैं, जिन्हें कई लोग गलती से "मदन मोहन" समझ बैठते हैं तो कई लोग इस बात पर आपत्ति जताते हैं कि इन्हें उस्ताद मदन क्यों नहीं कहा जाता। चूँकि इन्होंने १८ वसंत भी पार नहीं किए थे इसलिए इन्हें उस्ताद नहीं कहा जा सकता, नहीं तो प्रतिभा में तो ये कब के उस्ताद बन चुके थे। कलकत्ता में इनका अंतिम परफ़ोर्मेंश कई लोगों के दिलों में अभी तक बसा है। राग बागेश्वरी में इन्होंने जब "बिनती सुनो मोरे अवधपुर के बसिया" गाया था तो संगीत के एक पारखी ने इन पर ५०० रूपए न्योछावर कर दिए थे। दुर्भाग्यवश कलकत्ता के बाद इनकी महफ़िल कहीं नहीं जमी। धीरे-धीरे ये बीमार पड़ते गए और एक दिन काल का ग्रास बन गए।
इनकी मौत के बारे में कई कहानियाँ प्रचलित हैं। किस कहानी में सच्चाई है, यह कहा नहीं जा सकता। जानेमाने लेखक और इतिहासविद प्राण नेविल लिखते हैं: कई सारी अफ़वाहें जुड़ी हैं इनकी मौत से। कुछ लोग कहते हैं कि अंबाला में कुछ गवैया लड़कियों ने इन्हें "कोठा" पर बुलाया था। फिर पान में कोई जहरीला चीज डालकर इन्हें खिला दिया जिससे धीरे-धीरे इनकी हालत बिगड़ती चली गई और अंतत: इनकी मौत हो गई। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि कलकत्ता में इनके अंतिम पब्लिक परफ़ोर्मेंश की सफ़लता को देखकर इनके दुश्मनों ने इनके पेय में कोई स्लो प्वाइजन मिला दिया था। यह भी कहा जाता है कि आल इंडिया रेडियो के लिए दिल्ली में जब ये अपना कार्यक्रम देने गए थे तो इनके किसी राइवल(समकालीन गायक) ने इन्हें रास्ते से हटाने के लिए इनके दुध(जो ये आल इंडिया रेडियो के कैंटीन में नियमित रूप से पीया करते थे) में मरकरी की मिलावट कर दी थी। इस बात में इतनी सच्चाई तो है हीं कि डाक्टरों ने इनकी मौत का कारण इनके खून में मरकरी का होना बताया था। इन पर गायकी का अत्यधिक बोझ होना भी इनकी मौत का एक कारण बना। घर वालों को इनके स्वास्थ्य से ज्यादा गायकी से आने वाले पैसों की फ़िक्र थी जो अंदर हीं अंदर मास्टर मदन को निगलता चला गया। पाकिस्तान के मशहूर पत्रकार "खालिद हसन" के अनुसार शक़ की ऊँगली के०एल०सहगल पर भी उठती है, जो दर-असल मास्टर मदन से उम्र में १३ साल बड़े भाई "मास्टर मोहन" के साथ रियाज़ किया करते थे। वैसे ये सारी बातें इतनी उलझी हुई हैं कि "कौन दोस्त, कौन रक़ीब" का फ़ैसला नहीं किया जा सकता। फ़ैसला हो भी तो हम कौन होते हैं फ़ैसला करने वाले और वो भी तब जब फ़ैसला सुनने वाला इस दुनिया में हीं नहीं रहा। हम कुछ भी कर लें लेकिन हम उस फ़नकार को वापस तो नहीं ला सकते। सोचिए अगर वह फ़नकार १४ साल की कच्ची उम्र में सुपूर्द-ए-खाक़ नहीं हुआ होता तो आज संगीत का स्तर कितना ऊँचा होता। "मास्टर मदन" की बमुश्किल आठ रिकार्डिंग्स हीं उनके चाहने वालों को नसीब हो पाई हैं। अगर आल इंडिया रेडियो ने एक भी रिकार्डिंग को सहेज़ कर रखा होता तो बात हीं कुछ और होती। अभी तो "मास्टर मदन" का हर चाहने वाला यही दुआ करता है कि काश एक और उनकी कोई रचना सुनने को मिल जाए। गज़लों में उनकी आवाज़ का जादू कुछ इस तरह रंगीन हुआ जाता है कि सुनने वाला अपने आप को गज़ल से जोड़े बिना रह नहीं पाता। और अगर इस हाल में कोई यह कहे कि उनकी बस दो गज़लें हीं हासिल हो सकीं हैं तो इससे बड़ी सजा क्या होगी! जी हाँ इस गज़ल के अलावा "सागर निज़ामी" की "हैरत से तक रहा है जहान-ए-वफ़ा मुझे" हीं वह दूसरी गज़ल है जो इनकी आवाज़ में उपलब्ध है। अब जब "सागर" साहब की बात आ हीं गई है तो क्यों ना उन्हीं का लिखा एक शेर देख लिया जाए जो कमोबेश हर दीवाने पर फिट बैठता है:
कैफ़-ए-खुदी ने मौज़ को कश्ती बना दिया,
होश-ए-खुदा है अब न गम-ए-नाखुदा मुझे।
सागर निज़ामी, पंडित अमरनाथ और मास्टर मदन को याद करते हुए चलिए अब हम आज की इस गज़ल का लुत्फ़ उठाते हैं:
यूँ न रह-रहकर हमें तरसाईये,
आईये आ जाईये आ जाईये।
फिर वही दानिस्ता ठोकर खाईये,
फिर मेरी आगोश में गिर जाईये।
मेरी दुनिया मुन्तज़िर है आपकी,
अपनी दुनिया छोड़कर आ जाईये।
ये हवा ’सागर’ ये हल्की चाँदनी,
जी में आता है यहीं मर जाईये।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -
ये दुनिया भर के झगडे, घर के किस्से, काम की बातें,
__ हर एक टल जाए अगर तुम मिलने आ जाओ...
आपके विकल्प हैं -
a) सज़ा, b) खता, c) बला, d) मुसीबत
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "मकान" और शेर कुछ यूं था -
ऊंची इमारतों से मकान मेरा घिर गया,
कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज भी खा गए...
हर बार की तरह इस बार भी दीपाली जी सही जवाब और अपने शेर के साथ सबसे पहले हाज़िर हुई-
घर इंसा से बनता है ईंटों से नहीं
इनसे तो खाली मकान बना करते हैं
जो डाल दे इन पत्थरों में भी जान
उसे ही तो परिवार कहा करते हैं
बिलकुल सही बात दिशा जी, चूँकि शेर जावेद अख्तर साहब का था शमिख फ़राज़ जी ने उन्हें याद किया कुछ बहतरीन शेरों के साथ, देखिये बानगी -
इस शहर में जीने के अंदाज निराले हैं
होठों पर लतीफे हैं आवाज में छाले हैं
सब का खुशी से फासला एक कदम है
हर घर मे बस एक ही कमरा कम है
आज की दुनिया मे जीने का करीना समझो (तरीका)
जो मिले प्यार से उन लोगों को जीना समझो (सीढ़ी)
वाह क्या बात है फ़राज़ साहब...शमिख जी पूरे मूड में दिखे, शैलेश जैदी के इन शेरों से समां बाँध दिया आपने -
ज़िन्दगी किराये का मकान बन गयी।
अब खुशी भी दर्द के समान बन गयी॥
पत्थरों को छेनियों की चोट जब लगी।
एक अमूर्त कल्पना महान बन गयी
बहुत खूब...
सुमित जी को याद आया ये नायाब शेर -
कैफ परदेश में मत याद करो अपना मकान,
अबके बारिश ने उसे तोड़ गिराया होगा
शरद जी कहाँ पीछे रहने वाले थे -
दीवार क्या गिरी मेरे कच्चे मकान की,
लोगों ने मेरे जेहन में रास्ते बना लिए...
अदा जी ने इरफान सिद्दीकी का ये शेर याद दिलाया, पर आपने हिंदी में टंकण क्यों नहीं किया....उधर मनु जी ने फरमाया -
ये क्या बस्ती है या रब जाने क्या इसकी कहानी है
मकां रहते हैं बस कायम, नहीं मिलते मकां वाले..
कुलदीप अंजुम साहब आये जनाब इफ्तिखार साहब का शेर लेकर -
मेरे खुदा मूझे इतना तो मोअतबर कर दे
मैं जिस मकान में रहता हूँ उस को घर कर दे
निर्मला कपिला जी ने भी महफ़िल का आनंद लिया, चलिए चलते चलते मंजू जी का स्वरचित ये शेर भी सुनते चलें-
ईंट -पत्थर के मकान में हर कोई रह लेता है ,
इन्सान तो वह जो लोगो के दिल में घर बनता है .
जी हाँ मंजू जी हमारी भी कोशिश यही है कि आप सब के दिल में भी अपने लिए एक छोटा सा फ्लैट मतलब मकां बुक कर लें कहीं कहीं कुछ हद तक तो हम कामियाब भी हुए हैं इसी खुशफहमी के साथ अगली महफिल तक दीजिये इजाज़त, खुदा हाफिज़ !!
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
Comments
स्वरचित शेर
बला छू न सके उनको,जिनका हाफिज हो खुदा
इस सच का एहसास लेकर मैं तेरे दर से उठा
शे’र अर्ज़ है :
बला कैसी भी हो अपने को उसके पास रखता हूँ
तभी तो लोग कहते हैं हुनर कुछ ख़ास रखता हूँ ।
(स्वरचित)
कोइ बला, मेरे कदम न रोक पायेगी
बुलंद हैं हौंसले इतने कहाँ टिक पायेगी
आज पाला पड़ा है एक फौलादी से
शरमा कर खुद ही चली जायेगी
जवाब है -बला स्व रचित कविता -
आतंक की बला जब -जब छाई
थी जांबाजों की नजर तब-तब काफी
उन्हीं की बदोलत आजादी हम ने पाई
करूं दुआ सलामत रहें सारे हमारे भाई
मगर सबसे पहले बात मास्टर मदन की,,,
विविध-भारती पर शायद दोपहर को ''गैर फिल्मी गीत'' में सुनी थी ये गजल,,,
तब हम इसे नारी-स्वर समझे थे,,
आज गायक के बारे में जाना है,,बहुत अफ़सोस हुआ
बार बार सुन रहा हूँ,,,इनकी और भी गजल सुन ने की तमन्ना है...
ज्यादा देर मत कीजियेगा प्लीज..
यदि यहाँ संभव ना हो तो मुझे व्यक्तिगत मेल कर दीजियेगा,,,,
इन्हें नमन ,,,,,,,,,
तू बुत है या खुदा है क्या बला है कुछ इशारा दे
हमेशा क्यूं मेरा सिजदा तेरी चौखट पे होता है,
ये दुनिया भर के झगड़े घर के किस्से काम की बातें
बला हर एक टल जाए अगर तुम मिलने आ जाओ।
तमन्ना फिर मचल जाए अगर तुम मिलने आ जाओ।
यह मौसम ही बदल जाए अगर तुम मिलने आ जाओ।
मुझे गम है कि मैने जिन्दगी में कुछ नहीं पाया
ये गम दिल से निकल जाए अगर तुम मिलने आ जाओ।
नहीं मिलते हो मुझसे तुम तो सब हमदर्द हैं मेरे
ज़माना मुझसे जल जाए अगर तुम मिलने आ जाओ।
दर्द अपनाता है पराए कौन
कौन सुनता है और सुनाए कौन
कौन दोहराए वो पुरानी बात
ग़म अभी सोया है जगाए कौन
वो जो अपने हैं क्या वो अपने हैं
कौन दुख झेले आज़माए कौन
अब सुकूँ है तो भूलने में है
लेकिन उस शख़्स को भुलाए कौन
आज फिर दिल है कुछ उदास उदास
देखिये आज याद आए कौन
मैं उन्हें छेड़ूँ और कुछ न कहें
चल निकलते जो मय पिये होते
क़हर हो या बला हो, जो कुछ हो
काश के तुम मेरे लिये होते
मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था
दिल भी या रब कई दिये होते
आ ही जाता वो राह पर "ग़ालिब"
कोई दिन और भी जिये होते (मिर्जा ग़ालिब)
अब वो ग़ज़ल जिसमे "बला" लफ्ज़ है. (यह मनु जी के बड़े वाले अंकल की है.)
मैं उन्हें छेड़ूँ और कुछ न कहें
चल निकलते जो मय पिये होते
क़हर हो या बला हो, जो कुछ हो
काश के तुम मेरे लिये होते
haaaaaay,,,,,,
maaaar daalaa shaamikh dear,,,,,,,
jeeeyo,,,,
फिर मेरी आगोश में गिर जाईये।
मेरी दुनिया मुन्तज़िर है आपकी,
अपनी दुनिया छोड़कर आ जाईये।
दानिस्ता aur मुन्तज़िर shabd ka kya arth hota hai ?
मूझे नहीं पता की उन्होंने कितना गाया
पहली ग़ज़ल जो आपने आज सुनवाई है इसी को सुनकर इनका दीवाना हो गया
और सोचा की अगर ये महान फनकार अपनी उम्र पूरी करता तो आज जाने किस मुकाम पर होता
सही शब्द है
"बला "
बड़ी ही मशहूर ग़ज़ल है
तमन्ना फिर मचल जाये अगर तुम मिलने आ जाओ
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क्या कहें तब तो जन्नत से मुमताज़ की चांदनी भी उतर आती है .
- अज्ञात
फिर भी कोई जिंदा है तो मेहरबानी आपकी
-अज्ञात
दानिस्ता - जानते हुए
मुन्तजिर -कोई जो इंतजार में हो
दानिश्त----जानते भूझते ...( शब्द दाना ,,,जिसका मतलब समझदार जानकार होता है...)
मुन्तजिर----प्रतीक्षा में,,,, (शब्द इन्तीज़ार से ..मुन्तजिर...यानी इंतज़ार में)
ab to sumit bhaai ke 2--2 shabdkosh ho gaye hain....
कहूँ किस से मैं के क्या है , शब्-ऐ-गम बुरी बला है
मूझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता
-मिर्जा ग़ालिब
ये तो ना थी हमारी किस्मत .............
चित्रा सिंह की आवाज़ में ग़ज़ल में चार चाँद लग जाते हैं
मनु भाई अपना मेल बॉक्स चेक कीजिये मैंने आपको ग़ज़ल भेजी है क्या येही ग़ज़ल चाहिए थी