"नैना बरसे रिमझिम रिमझिम" - संजय पटेल ने ताज़ा किया एक मार्मिक संस्मरण, संगीत के महान फनकार मदन मोहन को आवाज़ की श्रद्दांजलि
Mangeshkar christened him 'The Emperor Of Ghazals'. She should know because it is in her voice that Madan Mohan created all those masterpieces that set an impossibly high standard for ghazals in films. The irony of the fact is that Madan Mohan couldn't combine class and mass appeal the way an S.D.Burman or Shanker-Jaikishan could. He composed the only way he knew to - with great respect for each of his tunes.
दोस्तो, आज मदन मोहन जी की ३३ वीं पुन्यतिथि है, इस अवसर पर उन्हें याद कर रहे हैं आवाज़ के पारखी संजय पटेल, जानिए उन्हीं की जुबानी ये मार्मिक संस्मरण, जो जुडा है एक अमर गीत " नैना बरसे " से....
मदन मोहन के गीत नैना बरसे रिमझिम रिमझिम से जुड़ा एक मार्मिक संस्मरण.
- संजय पटेल
जब हमारे मन में संगीतकार मदन मोहन का स्मरण आता है तब स्वतः ही यह बात स्थापित हो जाती है कि हम उस सुरीले दौर की बात कर रहे हैं जब संगीत में शोर कम और माधुर्य अधिक हुआ करता था। इसका मतलब ये भी नहीं कि वैसा दौर बाद में नहीं आया लेकिन यह निर्विवाद है कि मदन मोहन की बलन का संगीतकार परिदृश्य पर उपस्थित नहीं हुआ। मदनजी को ग़ज़लों का बादशाह कहा जाता है। पोएट्री की उनकी समझ बेमिसाल थी और संगीत की लाजवाब। यही वजह है कि ग़ज़ल जैसी मासूम काव्य विधा मदन मोहन के गीतों में आकर विलक्षण बन जाती है। यह समय का दुर्भाग्य ही कहा जाना चाहिए कि मदन मोहन नाक़ामयाब फ़िल्मों के क़ामयाब संगीतकार कहलाए। बात स्पष्ट है कि फ़िल्में ज़रूर पिट गई होंगी लेकिन मदन मोहन का संगीत अजर अमर बन गया।
मदन मोहन के संगीत का जादू कुछ ऐसा अद्भुत है कि आप एक गीत पर रूक कर रह ही नहीं सकते। यदि आप "हम प्यार में जलने वालों को चैन कहॉं, आराम कहॉं (जेलर)' सुन रहे हैं तो लगता है कि यही मदनजी की श्रेष्ठ रचना है लेकिन जैसे ही आपके कानों पर भैरवी में निबद्ध फ़िल्म भाई-भाई का गीत "कदर जाने ना मोरा बालमवा' पड़ता है तो आप पिछले गीत को भूल जाते हैं। शास्त्रीय संगीत हर एक के बूते का नहीं होता इस लिहाज़ से फ़िल्म संगीत एक सामान्य व्यक्ति की ज़िंदगी में सुरीलापन घोलने का बड़ा काम करता है। ज़रा सोचिये यदि मदनजी जैसे संगीतकार फ़िल्म विधा की ओर न आकर शास्त्रीय संगीत की ओर चले जाते तो आप हम जैसे संगीतप्रेमियों का क्या होता।
आज जिस गीत की चर्चा हम कर रहे हैं वह फ़िल्म”वो कौन थी’ से लिया गया है और मुखड़ा आपका मेरा सबका जाना पहचाना है ... "नैना बरसे रिमझिम रिमझिम' सुनने को यह एक बहुत सामान्य गीत है लेकिन जब इसकी पृष्ठभूमि मालूम होती है तो वाकई हमारी आँखों से भी दुःख का बादल बरसने लगता है। हुआ यूँ कि मदनजी के भाई प्रकाश दिल्ली से मुंबई के बीच रेल से यात्रा कर रहे थे। एकदम स्थान तो याद नहीं आ रहा लेकिन यात्रा के दौरान कुछ कुख्यात लुटेरों ने प्रकाशजी की हत्या कर दी। मदनजी अपने सहयोगी घनश्यामजी के साथ भरे मन और थकान भरी सड़क यात्रा से घटना स्थल तक पहुँचे और अपने भाई की लाश को लेकर मुंबई लौटे। अंतिम संस्कार करने के बाद मदन मोहन कुछ ऐसी विचित्र मानसिक स्थिति में आए कि उन्होंने अपने आपको दो-तीन दिनों के लिए अपने कक्ष में बंद कर लिया। जब कुछ समय बीत गया तो परिजन चिंतित हुए और घनश्यामजी को आगामी रिकार्डिंग्स के डेट्स को लेकर परेशानी का सामना करना पड़ा। हिम्मत करके घनश्यामजी ने मदनजी का दरवाज़ा खटखटाया और उन्हें बताया कि इस फ़िल्म के गीत की रिकार्डिंग के लिए आज के लिये ही स्टूडियो और लताजी को बुक किया हुआ है। घनश्यामजी ने परिस्थिति के मद्देनज़र पूछा कि क्या स्टूडियो की बुकिंग कैंसल करके लताजी को ख़बर कर दूँ? मदनजी का उत्तर चौंकाने वाला था ! उन्होंने कहा नहीं घनश्याम रेकॉर्डिंग आज ही होगी।
ज़रा सोचिये जिस व्यक्ति ने अपने प्रिय भाई को महज़ तीन दिन पहले गंवाया हो वह संगीत कैसे रच सकता है। लेकिन यदि वह व्यक्ति मदन मोहन है तो सब कुछ संभव है। उसी भरे मन से मदन मोहन स्टूडियो पहुँचते हैं रिकार्डिंग शुरू होती है और ये लाजवाब गाना हम संगीतप्रेमियों की अमानत बन जाता है। ये क़िस्सा सुनने के बाद इस गीत को सुनिये तो आपको लगेगा कि दुनिया जहान का सारा दर्द इस गीत में आ समाया है। "नैना बरसे रिमझिम रिमझिम' ये रिमझिम कहीं न कहीं मदनजी के भाई के दुःखद स्मरण की रिमझिम है। कहीं न कहीं मन में समोया दर्द उघाड़ रही है। मदन मोहन के संगीत में लता मंगेशकर की गायकी कुछ अलग ही रंग और अंदाज़ अख़्तियार कर लेती है। १९५६ से लेकर १९७५ तक लताजी ने न जाने कितने गीत मदनजी के संगीत निर्देशन में गाए हैं लेकिन इस गीत में लताजी गीतकार राजा मेहंदी अली ख़ाँ के शब्दों को जैसे अपने गायकी का अमृत स्पर्श प्रदान कर रही है। ऑर्केस्ट्रा और लताजी की गायकी का ब्लेंडिंग मदन मोहन के संगीत में कुछ ऐसा होताहै कि वे एक दूसरे का पूरक बन जाता है। न ये तोला ऊपर न वह माशा नीचे। संगीत को सुने तो मदनजी सुनाई देते हैं, लताजी को सुनें तो लताजी सुनाई देती हैं। कोई एक दूसरे को ओवरलैप नहीं करता है। इस गीत में भी ये सारी ख़ूबियॉं चमकती दिखाई देती हैं।मदन मोहन के संगीत का एक जादू यह भी है कि हो सकता है आप उनकी रचे गीत/ग़ज़ल के शब्द भूल जाएँ लेकिन धुन नहीं भूल सकते. अपने जीवन काल में 93 फ़िल्मों के 612 गीतों को संगीतबध्द करने वाले इस महान संगीत सर्जक ने कुछ ऐसी अनमोल धुनें संगीत प्रेमियों को दी हैं जिन्हें कालातीत ही कहना होगा.समय बदलेगा,रहन-सहन,खानापीना,फ़ैशन,इंसानी फ़ितरतें और बदलेगा हमारी ज़ुबान की तमीज़ लेकिन नहीं बदलेगा मदन मोहन के संगीत का अलौकिक सिलसिला ...हम सब के मन को मालामाल करता हुआ. ...
(मदन मोहन और लता जी जब भी मिले संगीत का नया इतिहास बना)
आइये संगीतकार मदन मोहन को याद करते हुए देखते हैं उन्हीं का रचा,फ़िल्म "वो कौन थी" का यह गीत जो मनोज कुमार और साधना पर फिल्माया गया है.
MADAN MOHAN - "THE UNFORGETABLE" ( A LIFE BRIEF ) ( SOURCE - INTERNET )
Madan Mohan was the son of Rai Bahadur Chunnilal, one of the big names of the 30's and 40's, and a partner in Bombay Talkies and then Filmistan. Madan Mohan was sent to Dehradun to join the army on the insistence of his father. Once he was posted at Delhi, he quit the Army and went to Lucknow to do what he wanted to do, to join All India Radio. His musical roots strengthened in Lucknow because he came across famous people like Ustad Faiyyaz Khan, Ustad Ali Akbar Khan, Roshan Ara Begum, Begum Akhtar, Siddheshwari Devi, and Talat Mehmood, all renowned names in the field of classical music and ghazal singing. He carried their influence with him always, which was clearly evident by his music compositions in his career, and one of the main reasons why he excelled in aesthetic composition inspite of having no formal training in music.
Madan Mohan came to Bombay in the late 40's, and assisted S. D. Burman and Shyam Sunder for a brief spell, for films being made by filmistan studios. Madan's first big independant break was Aankhen in 1950. After his film 'Aankhen' Madan and Lata became a great team together and Lata sang for almost all his films. Lata Mangeshkar was the last word for him. The sweetness Madan achieved here in Lata Mangeshkar’s voice is something rare in his repertory. It was never enough that there was enough of only Lata in a Madan tune. Lata used to call Madan ‘Ghazal Ka Shehzadaa’. ‘Woh chup rahen to mere dil ke daag jalte hain’ from the film Jahan Ara and ‘Maine rang li aaj chunariya’ from Dulhan Ek Raat Ki are some others of his compositions. He scored for a theme in mime like Chetan Anand's Heer Ranjha.
Madan Mohan made excellent use of voices of Talat Mahmood and Mohd. Rafi as well. His favourite lyricists were Raja Mehndi Ali Khan, Rajendra Krishan, and Kaifi Azmi. Majrooh Sultanpuri and Sahir Ludhianvi also wrote for him for a few films. Madan’s light compositions have the same individualistic quality as his serious songs. What's more none of his contemporaries had the knack of picking the right instruments for the right song.
Madan Mohan was totally different from the Punjab school of composers dominating Hindi film Music in the late l94O and early 195O's. Even O.P. Naiyyar, for all his sheen of modernity displayed traces of his Punjabi roots but not once could you scent the 'dehati’ Punjabi at work in a Madan Mohan composition. The Punjab school produced some of the finest music in our films. But always you got the impression that it was music literally rooted in the Punjab soil. Here is where Madan Mohan was diametrically different. He was the artistic aristocrat at work. The son of Rai Bahadur Chuni Laal, the Filmistan chief, at work. Madan Mohan's best music belonged to the drawing room that is why Madan had problems consistently equating with the masses. He was essentially a composer for the classes.
Every composer had a favorite raga, Madan had none. Look at the flair and imagination with which he scored for a theme in mime like Chetan Anand's Heer Ranjha. Sachin Dev Burman paid Madan Mohan the ultimate tribute; ‘ I could not have scored Heer Ranjha with half the felicity Madan Mohan did.’ Madan Mohan was still a struggling composer when he created his masterly tunes. And it is when you are struggling that you really create. Later, at least in the l970's, one felt Madan became rather stylized. In other words, he was, composing to live up to his reputation as the ‘Ghazal King’, which cramped his style in the matter of being a freewheeler composer, - a must for films.
He died on July 14th, in the year 1975. He did not live to see the success of two of his very big hits 'Mausam' and 'Laila Majnu'. Most Popular films of Madan Mohan are 'Ashiyana, Madhosh, Baghi, Bhai Bhai, Mastane, Gateway Of India, Dekh Kabeera Roya, Adalat, Chacha Zindabad, Manmauji, Sanjog, Woh Kaun Thi, Jahan Ara, Ghazal, Sharabi, Mera Saaya, Neela Akash, Ek Kali Muskayi, Chirag, Dastak, Heer Ranjha, Haste Zakhma, Mausam, etc.
दोस्तो, आज मदन मोहन जी की ३३ वीं पुन्यतिथि है, इस अवसर पर उन्हें याद कर रहे हैं आवाज़ के पारखी संजय पटेल, जानिए उन्हीं की जुबानी ये मार्मिक संस्मरण, जो जुडा है एक अमर गीत " नैना बरसे " से....
मदन मोहन के गीत नैना बरसे रिमझिम रिमझिम से जुड़ा एक मार्मिक संस्मरण.
- संजय पटेल
जब हमारे मन में संगीतकार मदन मोहन का स्मरण आता है तब स्वतः ही यह बात स्थापित हो जाती है कि हम उस सुरीले दौर की बात कर रहे हैं जब संगीत में शोर कम और माधुर्य अधिक हुआ करता था। इसका मतलब ये भी नहीं कि वैसा दौर बाद में नहीं आया लेकिन यह निर्विवाद है कि मदन मोहन की बलन का संगीतकार परिदृश्य पर उपस्थित नहीं हुआ। मदनजी को ग़ज़लों का बादशाह कहा जाता है। पोएट्री की उनकी समझ बेमिसाल थी और संगीत की लाजवाब। यही वजह है कि ग़ज़ल जैसी मासूम काव्य विधा मदन मोहन के गीतों में आकर विलक्षण बन जाती है। यह समय का दुर्भाग्य ही कहा जाना चाहिए कि मदन मोहन नाक़ामयाब फ़िल्मों के क़ामयाब संगीतकार कहलाए। बात स्पष्ट है कि फ़िल्में ज़रूर पिट गई होंगी लेकिन मदन मोहन का संगीत अजर अमर बन गया।
मदन मोहन के संगीत का जादू कुछ ऐसा अद्भुत है कि आप एक गीत पर रूक कर रह ही नहीं सकते। यदि आप "हम प्यार में जलने वालों को चैन कहॉं, आराम कहॉं (जेलर)' सुन रहे हैं तो लगता है कि यही मदनजी की श्रेष्ठ रचना है लेकिन जैसे ही आपके कानों पर भैरवी में निबद्ध फ़िल्म भाई-भाई का गीत "कदर जाने ना मोरा बालमवा' पड़ता है तो आप पिछले गीत को भूल जाते हैं। शास्त्रीय संगीत हर एक के बूते का नहीं होता इस लिहाज़ से फ़िल्म संगीत एक सामान्य व्यक्ति की ज़िंदगी में सुरीलापन घोलने का बड़ा काम करता है। ज़रा सोचिये यदि मदनजी जैसे संगीतकार फ़िल्म विधा की ओर न आकर शास्त्रीय संगीत की ओर चले जाते तो आप हम जैसे संगीतप्रेमियों का क्या होता।
आज जिस गीत की चर्चा हम कर रहे हैं वह फ़िल्म”वो कौन थी’ से लिया गया है और मुखड़ा आपका मेरा सबका जाना पहचाना है ... "नैना बरसे रिमझिम रिमझिम' सुनने को यह एक बहुत सामान्य गीत है लेकिन जब इसकी पृष्ठभूमि मालूम होती है तो वाकई हमारी आँखों से भी दुःख का बादल बरसने लगता है। हुआ यूँ कि मदनजी के भाई प्रकाश दिल्ली से मुंबई के बीच रेल से यात्रा कर रहे थे। एकदम स्थान तो याद नहीं आ रहा लेकिन यात्रा के दौरान कुछ कुख्यात लुटेरों ने प्रकाशजी की हत्या कर दी। मदनजी अपने सहयोगी घनश्यामजी के साथ भरे मन और थकान भरी सड़क यात्रा से घटना स्थल तक पहुँचे और अपने भाई की लाश को लेकर मुंबई लौटे। अंतिम संस्कार करने के बाद मदन मोहन कुछ ऐसी विचित्र मानसिक स्थिति में आए कि उन्होंने अपने आपको दो-तीन दिनों के लिए अपने कक्ष में बंद कर लिया। जब कुछ समय बीत गया तो परिजन चिंतित हुए और घनश्यामजी को आगामी रिकार्डिंग्स के डेट्स को लेकर परेशानी का सामना करना पड़ा। हिम्मत करके घनश्यामजी ने मदनजी का दरवाज़ा खटखटाया और उन्हें बताया कि इस फ़िल्म के गीत की रिकार्डिंग के लिए आज के लिये ही स्टूडियो और लताजी को बुक किया हुआ है। घनश्यामजी ने परिस्थिति के मद्देनज़र पूछा कि क्या स्टूडियो की बुकिंग कैंसल करके लताजी को ख़बर कर दूँ? मदनजी का उत्तर चौंकाने वाला था ! उन्होंने कहा नहीं घनश्याम रेकॉर्डिंग आज ही होगी।
ज़रा सोचिये जिस व्यक्ति ने अपने प्रिय भाई को महज़ तीन दिन पहले गंवाया हो वह संगीत कैसे रच सकता है। लेकिन यदि वह व्यक्ति मदन मोहन है तो सब कुछ संभव है। उसी भरे मन से मदन मोहन स्टूडियो पहुँचते हैं रिकार्डिंग शुरू होती है और ये लाजवाब गाना हम संगीतप्रेमियों की अमानत बन जाता है। ये क़िस्सा सुनने के बाद इस गीत को सुनिये तो आपको लगेगा कि दुनिया जहान का सारा दर्द इस गीत में आ समाया है। "नैना बरसे रिमझिम रिमझिम' ये रिमझिम कहीं न कहीं मदनजी के भाई के दुःखद स्मरण की रिमझिम है। कहीं न कहीं मन में समोया दर्द उघाड़ रही है। मदन मोहन के संगीत में लता मंगेशकर की गायकी कुछ अलग ही रंग और अंदाज़ अख़्तियार कर लेती है। १९५६ से लेकर १९७५ तक लताजी ने न जाने कितने गीत मदनजी के संगीत निर्देशन में गाए हैं लेकिन इस गीत में लताजी गीतकार राजा मेहंदी अली ख़ाँ के शब्दों को जैसे अपने गायकी का अमृत स्पर्श प्रदान कर रही है। ऑर्केस्ट्रा और लताजी की गायकी का ब्लेंडिंग मदन मोहन के संगीत में कुछ ऐसा होताहै कि वे एक दूसरे का पूरक बन जाता है। न ये तोला ऊपर न वह माशा नीचे। संगीत को सुने तो मदनजी सुनाई देते हैं, लताजी को सुनें तो लताजी सुनाई देती हैं। कोई एक दूसरे को ओवरलैप नहीं करता है। इस गीत में भी ये सारी ख़ूबियॉं चमकती दिखाई देती हैं।मदन मोहन के संगीत का एक जादू यह भी है कि हो सकता है आप उनकी रचे गीत/ग़ज़ल के शब्द भूल जाएँ लेकिन धुन नहीं भूल सकते. अपने जीवन काल में 93 फ़िल्मों के 612 गीतों को संगीतबध्द करने वाले इस महान संगीत सर्जक ने कुछ ऐसी अनमोल धुनें संगीत प्रेमियों को दी हैं जिन्हें कालातीत ही कहना होगा.समय बदलेगा,रहन-सहन,खानापीना,फ़ैशन,इंसानी फ़ितरतें और बदलेगा हमारी ज़ुबान की तमीज़ लेकिन नहीं बदलेगा मदन मोहन के संगीत का अलौकिक सिलसिला ...हम सब के मन को मालामाल करता हुआ. ...
(मदन मोहन और लता जी जब भी मिले संगीत का नया इतिहास बना)
आइये संगीतकार मदन मोहन को याद करते हुए देखते हैं उन्हीं का रचा,फ़िल्म "वो कौन थी" का यह गीत जो मनोज कुमार और साधना पर फिल्माया गया है.
MADAN MOHAN - "THE UNFORGETABLE" ( A LIFE BRIEF ) ( SOURCE - INTERNET )
Madan Mohan was the son of Rai Bahadur Chunnilal, one of the big names of the 30's and 40's, and a partner in Bombay Talkies and then Filmistan. Madan Mohan was sent to Dehradun to join the army on the insistence of his father. Once he was posted at Delhi, he quit the Army and went to Lucknow to do what he wanted to do, to join All India Radio. His musical roots strengthened in Lucknow because he came across famous people like Ustad Faiyyaz Khan, Ustad Ali Akbar Khan, Roshan Ara Begum, Begum Akhtar, Siddheshwari Devi, and Talat Mehmood, all renowned names in the field of classical music and ghazal singing. He carried their influence with him always, which was clearly evident by his music compositions in his career, and one of the main reasons why he excelled in aesthetic composition inspite of having no formal training in music.
Madan Mohan came to Bombay in the late 40's, and assisted S. D. Burman and Shyam Sunder for a brief spell, for films being made by filmistan studios. Madan's first big independant break was Aankhen in 1950. After his film 'Aankhen' Madan and Lata became a great team together and Lata sang for almost all his films. Lata Mangeshkar was the last word for him. The sweetness Madan achieved here in Lata Mangeshkar’s voice is something rare in his repertory. It was never enough that there was enough of only Lata in a Madan tune. Lata used to call Madan ‘Ghazal Ka Shehzadaa’. ‘Woh chup rahen to mere dil ke daag jalte hain’ from the film Jahan Ara and ‘Maine rang li aaj chunariya’ from Dulhan Ek Raat Ki are some others of his compositions. He scored for a theme in mime like Chetan Anand's Heer Ranjha.
Madan Mohan made excellent use of voices of Talat Mahmood and Mohd. Rafi as well. His favourite lyricists were Raja Mehndi Ali Khan, Rajendra Krishan, and Kaifi Azmi. Majrooh Sultanpuri and Sahir Ludhianvi also wrote for him for a few films. Madan’s light compositions have the same individualistic quality as his serious songs. What's more none of his contemporaries had the knack of picking the right instruments for the right song.
Madan Mohan was totally different from the Punjab school of composers dominating Hindi film Music in the late l94O and early 195O's. Even O.P. Naiyyar, for all his sheen of modernity displayed traces of his Punjabi roots but not once could you scent the 'dehati’ Punjabi at work in a Madan Mohan composition. The Punjab school produced some of the finest music in our films. But always you got the impression that it was music literally rooted in the Punjab soil. Here is where Madan Mohan was diametrically different. He was the artistic aristocrat at work. The son of Rai Bahadur Chuni Laal, the Filmistan chief, at work. Madan Mohan's best music belonged to the drawing room that is why Madan had problems consistently equating with the masses. He was essentially a composer for the classes.
Every composer had a favorite raga, Madan had none. Look at the flair and imagination with which he scored for a theme in mime like Chetan Anand's Heer Ranjha. Sachin Dev Burman paid Madan Mohan the ultimate tribute; ‘ I could not have scored Heer Ranjha with half the felicity Madan Mohan did.’ Madan Mohan was still a struggling composer when he created his masterly tunes. And it is when you are struggling that you really create. Later, at least in the l970's, one felt Madan became rather stylized. In other words, he was, composing to live up to his reputation as the ‘Ghazal King’, which cramped his style in the matter of being a freewheeler composer, - a must for films.
He died on July 14th, in the year 1975. He did not live to see the success of two of his very big hits 'Mausam' and 'Laila Majnu'. Most Popular films of Madan Mohan are 'Ashiyana, Madhosh, Baghi, Bhai Bhai, Mastane, Gateway Of India, Dekh Kabeera Roya, Adalat, Chacha Zindabad, Manmauji, Sanjog, Woh Kaun Thi, Jahan Ara, Ghazal, Sharabi, Mera Saaya, Neela Akash, Ek Kali Muskayi, Chirag, Dastak, Heer Ranjha, Haste Zakhma, Mausam, etc.
Comments
आपने मदन मोहन जी की स्मृति के बहाने यादों का एक लबालब पिटारा खोल दिया है. आज दिन भर कोई काम न करूं, बस संगीत सुनता रहूं शायद.
शिकायत नहीं कर रहा पर अंग्रेज़ी वाले हिस्सों का अनुवाद हो जाता तो पोस्ट और भी संग्रहणीय बन जाती.
शुक्रिया.
Aawaaz ka shukriya jo Madan Mohan ji jaisi shaksiyat ke baare mein jaankaari di.. yeh bahut achhi pahal hai "Aaawaaz" ki team ki jo geetkaar/sangeetkaar ke baare mein bhi jaankaari de rahe hain...
dhanyawad...
विवरण के लिये धन्यवाद
'नैना बरसे रिमझिम..'के सृजन की कहानी मार्मिक है|धन्यवाद इसे पढ़ने का मौका आपके लेखन ने दिया |
दर्द ने गीत और संगीत दोनों में अच्छा निखार दिया है
आंखे भर आई