स्वरगोष्ठी-१०० में आज 
फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी – ११ 
‘आ जा साँवरिया तोहे गरवा लगा लूँ, रस के भरे तोरे नैन...’
‘आ जा साँवरिया तोहे गरवा लगा लूँ, रस के भरे तोरे नैन...’
‘स्वरगोष्ठी’ के १००वें अंक में मैं कृष्णमोहन मिश्र आप सब 
संगीत-प्रेमियों का एक बार पुनः हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। 
मित्रों, आपकी शुभकामनाओं, आपके सुझावों और मार्गदर्शन के बल पर आज हम 
‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के १००वें अंक 
तक आ पहुँचे है। इन दिनों इस साप्ताहिक स्तम्भ के अन्तर्गत लघु श्रृंखला 
‘फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी’ का हम प्रकाशन कर रहे हैं। 
आज इस श्रृंखला की ११वीं कड़ी है। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हमने आपको कुछ 
ऐसी पारम्परिक ठुमरियों का रसास्वादन कराया जिन्हें फिल्मों में शामिल किया
 गया था। इस लघु श्रृंखला को अब हम आज विराम देंगे और नए वर्ष से आप सब के 
परामर्श के आधार पर एक नई लघु श्रृंखला आरम्भ करेंगे। आइए, अब आज की कड़ी का
 आरम्भ करते हैं। 
लघु श्रृंखला ‘फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी’ के अन्तर्गत आज हम जिस ठुमरी पर चर्चा करेंगे, वह है- ‘आ जा साँवरिया तोहे गरवा लगा लूँ, रस के भरे तोरे नैन...’।
 प्रत्यक्ष रूप से तो यह ठुमरी श्रृंगार रसप्रधान है किन्तु कुछ समर्थ 
गायक-गायिकाओं ने इसे कृष्णभक्ति से तो कुछ ने विरह भाव से जोड़ा है। इन सभी
 भावों की अभिव्यक्ति के लिए राग भैरवी के अलावा भला और कौन राग हो सकता 
है? इस श्रृंखला के दौरान जाने-माने इसराज और मयूरवीणा वादक पण्डित 
श्रीकुमार मिश्र ने अनुरोध किया था कि कोई ऐसी ठुमरी केवल महिला गायिकाओं 
के स्वरों में ही सुनवाया जाए जिसमें स्त्रियोचित श्रृंगार के भाव हों। 
श्रीकुमार जी के अनुरोध को स्वीकार कर आज की यह श्रृंगारप्रधान ठुमरी केवल 
महिला गायिकाओं के स्वरों में ही प्रस्तुत कर रहे हैं। 
हमारी आज की ठुमरी- ‘रस के भरे तोरे नैन...’
 की पहली गायिका हैं, अपने समय की सुप्रसिद्ध गायिका, गौहर जान। २६ जून, 
१८७३ को जन्मीं गौहर जान आर्मेनियन माता-पिता की सन्तान थीं। हालाँकि उनकी 
माँ विक्टोरिया का जन्म भारत में ही हुआ था और उनका विवाह १८७२ में विलियम 
रावर्ट के साथ हुआ था। विक्टोरिया भारतीय गायन और नृत्य शैली में पारंगत 
थी। रावर्ट के साथ विवाह सम्बन्ध टूटने के बाद विक्टोरिया ने अपने एक संगीत
 के कद्रदान खुर्शीद से निकाह कर लिया और बनारस आ बसीं। उन्होंने इस्लाम 
धर्म स्वीकार किया और खुद का नाम बदल कर मालिका जान कर लिया और अपनी बेटी 
को गौहर जान नाम दिया। गौहर को ठुमरी, दादरा और गजल गायन में खूब शोहरत 
मिली। भारत का पहला डिस्क ग्रामोफोन कम्पनी ने जो जारी किया, वह उनकी आवाज़ 
में ख़याल गायन का था, जो राग जोगिया में निबद्ध था। १९०२ में जारी हुए इस 
पहले रिकॉर्ड से १९२० तक उनके लगभग ६०० रेकॉर्ड्स बाजार में आए। हिन्दी, 
उर्दू के अलावा उन्होंने, बांग्ला, गुजराती, मराठी, तमिल, अरेबिक, पश्तो, 
फ्रेंच, और अँग्रेजी भाषाओं में भी गीत गाये थे। उन दिनों ग्रामोफोन कम्पनी
 के चलन के अनुसार गौहर जान अपनी हर रिकॉर्डिंग का समापन वो इस संवाद के 
साथ करती थी– “मेरा नाम गौहर जान है”। (मासिक पत्रिका ‘अहा ज़िंदगी’ के दिसम्बर, २०१२ अंक में प्रकाशित सजीव सारथी के आलेख ‘आवाज़ की दुनिया के दोस्तों...’ से साभार।)
 गायिका गौहर जान (१८७३-१९३०) की आवाज़ में ठुमरी- ‘रस के भरे तोरे नैन...’ 
जिसे अब हम प्रस्तुत कर रहे हैं, ग्रामोफोन कम्पनी ने इसकी रिकॉर्डिंग १९०५
 में की थी। 
ठुमरी भैरवी : ‘रस के भरे तोरे नैन...’ : गायिका गौहर जान 
बीसवीं
 शताब्दी के पूर्वार्द्ध में जो ठुमरी गायिकाएँ संगीत-रसिकों की सिरमौर 
बनीं थी उनमें शीर्ष पर एक ही नाम था, रसूलन बाई (१९०२-१९७४) का। बात जब जब
 बोल-बनाव ठुमरी की हो तो रसूलन बाई का ज़िक्र आवश्यक हो जाता है। पूरब अंग 
की गायकी- ठुमरी, दादरा, होरी, चैती, कजरी आदि शैलियों की अविस्मरणीय 
गायिका रसूलन बाई बनारस (वाराणसी) की रहने वाली थीं। संगीत के संस्कार 
इन्हें अपनी नानी से विरासत में मिले थे। रसूलन बाई के संगीत को निखारने 
में उस्ताद आशिक खाँ, नज्जू मियाँ और टप्पा गायकी के अन्वेषक मियाँ शोरी 
खानदान के शम्मू खाँ का बहुत बड़ा योगदान था। पूरब अंग की भावभीनी गायकी की
 चैनदारी, बोल-बनाव के लहजे, कहन के खास ढंग और ठहराव, यह सारे गुण रसूलन 
बाई की गायकी में था। टप्पा तो जैसे रसूलन बाई के लिए ही बना था। बारीक 
मुरकियाँ और मोतियों की लड़ियों जैसी तानों पर उन्हें कमाल हासिल था। उनकी 
गायी ठुमरी भैरवी- ‘रस के भरे तोरे नैन...’, आप सुनिए और श्रृंगार रस की 
सार्थक अनुभूति कीजिए। 
ठुमरी भैरवी : ‘रस के भरे तोरे नैन...’ : गायिका रसूलन बाई
जिस
 अवधि में गायिका रसूलन बाई सक्रिय थीं, लगभग उसी अवधि में ठुमरी के भक्ति 
और आध्यात्मिक भाव को उकेरने में सिद्ध गायिका सिद्धेश्वरी देवी का यश भी 
चरम पर था। पूरब अंग की ठुमरियों के लिए विख्यात बनारस के संगीत-प्रेमियों 
में सिद्धेश्वरी देवी का नाम आदर से लिया जाता था। संगीत-प्रेमियों के बीच 
वे ‘ठुमरी क्वीन’ के नाम से पहचानी जाती थीं। उनकी संगीत संगीत-शिक्षा बचपन
 में गुरु सियाजी महाराज से हुई थी। निःसन्तान होने के कारण सियाजी दम्पति 
ने सिद्धेश्वरी को गोद ले लिया और संगीत की शिक्षा के साथ-साथ उनका 
पालन-पोषण भी किया। बाद में उनकी शिक्षा बड़े रामदास से भी हुई। बनारस की 
गायिकाओं में सिद्धेश्वरी देवी, काशी बाई और रसूलन बाई समकालीन थीं। १९६६ 
में उन्हें ‘पद्मश्री’ सम्मान से अलंकृत किया गया था। नई पीढ़ी को आगे बढ़ाने
 के लिए गुरु-शिष्य परम्परा के अन्तर्गत संगीत-शिक्षा प्रदान करने के लिए 
उन्हें १९६५ में दिल्ली के श्रीराम भारतीय कला केन्द्र आमंत्रित किया गया। 
लगभग बारह वर्षों तक केन्द्र में कार्य करते हुए १९७७ में सिद्धेश्वरी देवी
 का निधन हुआ। १९८९ में फिल्मकार मणि कौल ने सिद्धेश्वरी देवी के जीवन और 
संगीत पर एक वृत्तचित्र ‘सिद्धेश्वरी’ का निर्माण किया था। आइए, आज की इसी 
ठुमरी को सिद्धेश्वरी जी के स्वरों में एक अलग ही अंदाज़ में सुनते हैं। 
ठुमरी भैरवी : ‘रस के भरे तोरे नैन...’ : गायिका सिद्धेश्वरी देवी 
  
उप-शास्त्रीय
 संगीत को वर्तमान में संगीत के सिंहासन पर प्रतिष्ठित कराने में विदुषी 
गिरिजा देवी के योगदान को सदियों तक स्मरण किया जाता रहेगा। आयु के नौवें 
दशक में भी सक्रिय गिरिजा देवी का जन्म ८ मई, १९२९ को कला और संस्कृति की 
राजधानी वाराणसी (तत्कालीन बनारस) में हुआ था। पिता रामदेव राय जमींदार थे 
और संगीत से उनका विशेष लगाव था। मात्र पाँच वर्ष की गिरिजा के लिए उन्होने
 संगीत-शिक्षा की व्यवस्था कर दी थी। एक साक्षात्कार में गिरिजा देवी ने 
स्वीकार किया है कि उनके प्रथम गुरु उनके पिता ही थे। गिरिजा देवी के 
प्रारम्भिक गुरु पण्डित सरयूप्रसाद मिश्र थे। नौ वर्ष की आयु में पण्डित 
श्रीचन्द्र मिश्र से उन्होंने संगीत की विभिन्न शैलियों की शिक्षा प्राप्त 
करना आरम्भ किया। नौ वर्ष की आयु में ही एक हिन्दी फिल्म ‘याद रहे’ में 
गिरिजा देवी ने अभिनय भी किया था। गिरिजा देवी का विवाह १९४६ में एक 
व्यवसायी परिवार में हुआ था। उन दिनों कुलीन विवाहिता स्त्रियों द्वारा मंच
 प्रदर्शन अच्छा नहीं माना जाता था। परन्तु सृजनात्मक प्रतिभा का प्रवाह 
भला कौन रोक सका है? १९४९ में गिरिजा देवी ने अपना पहला प्रदर्शन इलाहाबाद 
के आकाशवाणी केन्द्र से दिया। यह देश की स्वतंत्रता के तत्काल बाद का 
उन्मुक्त परिवेश था, जिसमें अनेक रूढ़ियाँ टूट रहीं थीं। संगीत के क्षेत्र 
में पण्डित विष्णु नारायण भातखण्डे और पण्डित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर ने 
स्वतंत्रता से पहले ही भारतीय संगीत को जनमानस में प्रतिष्ठित करने का जो 
अभियान छेड़ा था, उसका सार्थक परिणाम आज़ादी के बाद नज़र आने लगा था। गिरिजा 
देवी को भी अपने युग की रूढ़ियों के विरुद्ध संघर्ष करना पड़ा। १९४९ में 
रेडियो से अपने गायन का प्रदर्शन करने के बाद गिरिजा देवी ने १९५१ में 
बिहार के आरा में आयोजित एक संगीत सम्मेलन में अपना गायन प्रस्तुत किया। 
इसके बाद गिरिजा देवी की अनवरत संगीत-यात्रा जो आरम्भ हुई, वह आज तक जारी 
है। गिरिजा देवी ने स्वयं को केवल मंच-प्रदर्शन तक ही सीमित नहीं रखा बल्कि
 संगीत के शैक्षणिक और शोध कार्यों में भी अपना योगदान किया। ८० के दशक में
 उन्हें कोलकाता स्थित आई.टी.सी. संगीत रिसर्च अकादमी ने आमंत्रित किया। 
वहाँ रह कर उन्होने न केवल कई योग्य शिष्य तैयार किये, बल्कि शोधकार्य भी 
कराये। इसी प्रकार ९० के दशक में गिरिजा देवी, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय 
से जुड़ीं और अनेक विद्यार्थियों को प्राचीन संगीत परम्परा की दीक्षा दी। 
गिरिजा देवी को १९७२ में ‘पद्मश्री’, १९७७ में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार,
 १९९९ में ‘पद्मभूषण’ और २०१० में संगीत नाटक अकादमी का फेलोशिप जैसे 
प्रतिष्ठित सम्मान प्रदान किये गए। गिरिजा देवी आधुनिक और स्वतन्त्रता से 
पूर्व काल के संगीत की विशेषज्ञ और संवाहिका हैं। ऐसी विदुषी के स्वरों में
 आप यह ठुमरी सुनिए और स्वर, रस, भाव की सुखानुभूति कीजिए। 
ठुमरी भैरवी : ‘रस के भरे तोरे नैन...’ : विदुषी गिरिजा देवी 
श्रृंखला
 के शीर्षक के अनुसार अब हम प्रस्तुत करेंगे पारम्परिक ठुमरी- ‘रस के भरे 
तोरे नैन...’ का फिल्मी प्रयोग। इस परम्परागत ठुमरी को उपशास्त्रीय गायिका 
हीरादेवी मिश्र ने अपने स्वरों से एक अलग रंग में ढाल दिया है। १९७८ में 
प्रदर्शित मुज़फ्फर अली की फिल्म ‘गमन’ में इस ठुमरी को शामिल किया गया था।
 मूलतः श्रृंगारप्रधान ठुमरी में संगीतकार जयदेव और गायिका हीरादेवी मिश्र 
ने इसी ठुमरी में श्रृंगार के साथ-साथ भक्तिरस का समावेश अत्यन्त कुशलता से
 करके ठुमरी को एक अलग रंग दे दिया है। गायिका हीरादेवी मिश्र पूरब अंग की 
ठुमरी, दादरा, कजरी, चैती आदि की अप्रतिम गायिका थीं। मुजफ्फर अली जैसे 
कुछेक फ़िल्मकारों ने उनकी प्रतिभा का फिल्मों में उपयोग किया। फिल्म ‘गमन’ 
के लिए इस ठुमरी के प्रारम्भ में एक पद ‘अरे पथिक गिरधारी सो इतनी कहियों 
टेर...’ जोड़ कर भक्ति रस का समावेश जिस सुगढ़ता से किया गया है, वह अनूठा 
है। फिल्म के संगीतकार जयदेव ने ठुमरी के मूल स्वरुप में कोई परिवर्तन नहीं
 किया किन्तु सारंगी, बाँसुरी और स्वरमण्डल के प्रयोग से ठुमरी की 
रसानुभूति में वृद्धि कर दी है। इस गीत के सुनने के बाद कुछ पलों तक कुछ और
 सुनने की इच्छा नहीं होगी। इसे सुन कर आपको राग भैरवी के प्रभाव की सार्थक
 अनुभूति अवश्य होगी। आइए सुनते हैं, श्रृंगार और भक्ति रस के अनूठे मेल से
 युक्त आज के कड़ी की और लघु श्रृंखला ‘फिल्मों के आँगन में ठुमकती 
पारम्परिक ठुमरी’ की यह समापन प्रस्तुति- ‘रस के भरे तोरे नैन...’। 
ठुमरी भैरवी : ‘रस के भरे तोरे नैन...’ : फिल्म गमन : हीरादेवी मिश्र 
आज की पहेली
मित्रों,
 आज की यह संगीत पहेली, वर्ष २०१२ की अन्तिम पहेली है। आपको स्मरण ही होगा,
 हमने वर्ष के आरम्भ में दस-दस कड़ियों को पाँच श्रृंखलाओं में बाँटा था। यह
 इस वर्ष की पाँचवीं श्रृंखला की अन्तिम कड़ी की पहेली है। इस कड़ी में हम 
आपको एक हिन्दी फिल्म में शामिल राग आधारित गीत का एक अंश सुनवा रहे हैं। 
इसे सुन कर आपको दो प्रश्नों के उत्तर देने हैं। पहेली के सौवें अंक तक जिस
 प्रतिभागी के सर्वाधिक अंक होंगे, उन्हें इस वर्ष का महाविजेता और 
द्वितीय-तृतीय स्थान प्राप्त करने वालों को उप-विजेता घोषित कर पुरस्कृत 
किया जाएगा। 
sg100-ras-paheli.mp3
१-यह भक्ति गीत किस राग पर आधारित है?
२-यह गीत किस ताल में निबद्ध है?
आप अपने उत्तर केवल पर ही शनिवार मध्यरात्रि तक भेजें। comments
 में दिये गए उत्तर मान्य नहीं होंगे। विजेताओं के नाम की घोषणा हम 
‘स्वरगोष्ठी’ के ३० दिसम्बर, २०१२ को प्रकाशित होने वाले अंक में करेंगे। 
इस अंक में प्रस्तुत गीत-संगीत, राग अथवा कलासाधक के बारे में यदि आप कोई 
जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच बाँटना चाहते हैं तो हम आपका इस
 संगोष्ठी में स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ के नीचे दिये गए comments के माध्यम से अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं। हमसे सीधे सम्पर्क के लिए swargoshthi@gmail.com पर अपना सन्देश भेज सकते हैं।   
पिछली पहेली के विजेता
‘स्वरगोष्ठी’
 के ९८वें अंक की पहेली में हमने आपको उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ की आवाज़ 
में बेहद लोकप्रिय ठुमरी का एक अंश सुनवा कर आपसे दो प्रश्न पूछे थे। पहले 
प्रश्न का सही उत्तर है- उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ और दूसरे प्रश्न का सही 
उत्तर है- राग भैरवी। दोनों प्रश्नों के सही उत्तर इस बार एकमात्र 
प्रतिभागी, लखनऊ के प्रकाश गोविन्द ने ही दिया है। प्रकाश जी को रेडियो 
प्लेबैक इण्डिया की ओर से हार्दिक बधाई। 
झरोखा अगले अंक का
मित्रों,
 ‘स्वरगोष्ठी’ के अगले दो अंक एक विशेषांक के रूप में होंगे। फिल्म संगीत 
में शास्त्रीय और लोक संगीत का सर्वाधिक उपयोग करने वाले फिल्म संगीतकार 
नौशाद का जन्मदिवस २५ दिसम्बर को मनाया जाता है। इस उपलक्ष्य में 
‘स्वरगोष्ठी’ के इस वर्ष के अन्तिम दो अंक हम उन्हीं की स्मृतियो को 
समर्पित करेंगे। अगले रविवार को प्रातः ९-३० पर हमारी इस सुरीली गोष्ठी में
 आप अपनी उपस्थिति अवश्य दर्ज़ कराइएगा।  
कृष्णमोहन मिश्र
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