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"वो काग़ज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी" - हर कोई अपना बचपन देखता है इस नज़्म में


कुछ गीत, कुछ ग़ज़लें, कुछ नज़्में ऐसी होती हैं जो हमारी ज़िन्दगियों से, हमारी बचपन की यादों से इस तरह से जुड़ी होती हैं कि उन्हें सुनते ही वह गुज़रा ज़माना आँखों के सामने आ जाता है। जगजीत सिंह के जन्मदिवस पर उनकी गाई सुदर्शन फ़ाकिर की इस नज़्म की चर्चा आज 'एक गीत सौ कहानियाँ' में सुजॉय चटर्जी के साथ...

एक गीत सौ कहानियाँ # 6

बचपन एक ऐसा समय है जिसकी अहमियत उसके गुज़र जाने के बाद ही समझ आती है। बचपन में ऐसा लगता है कि न जाने कब बड़े होंगे, कब इस पढ़ाई-लिखाई से छुटकारा मिलेगा? पर बड़े होने पर यह अहसास होता है कि टूटे दिल से कहीं बेहतर हुआ करते थे टूटे घुटने, इस तनाव भरी ज़िन्दगी से कई गुणा अच्छा था वह बेफ़िक्री का ज़माना। पर अब पछताने से क्या फ़ायदा, गुज़रा वक़्त तो वापस नहीं आ सकता, बस यादें शेष हैं उस हसीन ज़िन्दगी की, उन बेहतरीन लम्हों की। बस एक फ़रियाद ही कर सकते हैं उपरवाले से कि ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी, मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन, वो काग़ज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी। और यही इल्तिजा शायर सुदर्शन फ़ाकिर नें भी की थी अपने इस मशहूर नज़्म में। ऐसा बहुत कम होता है जब दिल की बात ज़ुबां पे आए और वह बात सबके दिल को छू जाये। जगजीत सिंह के गाये फ़ाकिर के इस नज़्म नें यह करिश्मा कर दिखाया है।

उर्दू में फ़ाकिर शब्द का अर्थ है फ़िक्र करने वाला। दक्किनी उर्दू में फ़ाकिर को फ़ाक़िर कहा जाता है जिसका अर्थ होता है फ़क्र करने वाला। चाहे उनका नाम जो भी हो, सच यही है कि उन्हें ज़माने की फ़िक्र है और ज़माने को उन पर फ़क्र है। मोहब्बत और दर्द को गले लगाने वाला यह शायर हम सब से बहुत जुदा है। लेकिन जब उन्हें अपना वतन, अपना बीता बचपन, और गुज़रा हुआ वह ज़माना याद आता है तो यकीन मानिये वो बिल्कुल हमारी तरह हो जाते हैं। "शायद मैं ज़िन्दगी की सहर लेके आ गया, क़ातिल को आज अपने घर लेके आ गया", कहा था सुदर्शन फ़ाकिर नें। ज़िन्दगी की सहर, यानी जीवन की शुरुआत होती है वहाँ से जहाँ पर आत्मा शरीर का लिबास धारण कर लेती है, और सुदर्शन फ़ाकिर के लिए यह काम हुआ था फ़िरोज़पुर के एक छोटे से गाँव रेतपुर में जो आज भारत-पाकिस्तान के सरहद पर स्थित सेना की एक छावनी है। उनका जन्म सन् १९३४ में हुआ था। अपने छोटे से गाँव में हँसते-खेलते उनका बचपन बीत रहा था। वो १३ वर्ष की आयु तक ही पहुँचे थे कि देश के बँटवारे की दहशत नें उन सीमावर्ती इलाकों को अपनी जकड़ में ले लिया। दुर्भाग्यवश सुदर्शन फ़ाकिर के गाँव रेतपुर के सीने से होती हुई सरहद खींच दी गई और सबकुछ तहस-नहस हो गया। दोनों तरफ़ लाशें गिरीं, लूट-मार हुईं, और बचपन के वो सुनहरे दिन न जाने पलक झपकते कहाँ खो गए! वह सुन्दर शान्त गाँव सेना की छावनी बनकर रह गई। इस बात का, इस सदमे का सुदर्शन फ़ाकिर के दिल पर जो असर हुआ था, उसे उन्होंने बरसों बरस बाद अपने बचपन के नाम इस नज़्म में किया। दौलत, शोहरत, यहाँ तक कि जवानी के भी बदले अगर कोई उन्हें उनका वो खोया हुआ बचपन वापस कर दे तो अच्छा है! यह उस ज़मीन का कमाल कह लीजिए या नसीब का जिसने सुदर्शन फ़ाकिर को बनाया एक अज़ीम शायर। फ़िरोज़पुर से पॉलिटिकल साइन्स में मास्टर डिग्री प्राप्त करने के बाद वो जलन्धर आ कर रेडियो से जुड़ गए।

रेतपुर का नाम कैसे रेतपुर पड़ा होगा यह तो नहीं कह सकते लेकिन रेत के टीलों का ज़िक्र फ़ाकिर नें इस नज़्म में ज़रूर किया है जब वो कहते हैं - "कभी रेत के ऊँचे टीलों पे जाना, घरौन्दे बनाना, बनाके मिटाना, वो मासूम चाहत की तसवीर अपनी, वो ख़्वाबों खिलौनों की जागीर अपनी, न दुनिया का ग़म था न रिश्तों के बंधन, बड़ी ख़ूबसूरत थी वो ज़िन्दगानी"। बहुत आम बातें ये सब जो हम सभी नें अपने अपने बचपन में महसूस किए होंगे, पर इतनी मासूमीयत और सीधे सरल शब्दों में किसी नज़्म में पिरोना हर किसी के बस की बात नहीं। एक अच्छे शायर या गीतकार की यही निशानी होती है। उधर जगजीत सिंह के बचपन की अगर हम बात करें तो उनका जन्म राजस्थान के श्रीगंगानगर में अमर सिंह धीमान और बचन कौर के घर हुआ। धर्म से सिख और मूलत: पंजाब के रहने वाले अमर सिंह धीमान एक सरकारी कर्मचारी थे। चार बहनों और तीन भाइयों वाले परिवार में जगजीत को घर में जीत कह कर बुलाते थे। जगजीत को पढ़ाई के लिए श्रीगंगानगर के खालसा हाइ स्कूल में भेजा गया और मैट्रिक के बाद वहीं पर 'गवर्णमेण्ट कॉलेज' में साइन्स स्ट्रीम में पढ़ाई की। उसके बाद उन्होंने आर्ट्स में बी.ए. किया जलंधर के डी.ए.वी. कॉलेज से। और उसके बाद हरियाणा के कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी से इतिहास में एम.ए. किया। इस तरह से जगजीत सिंह नें अपनी पढ़ाई पूरी की। आपको पता है जगजीत का नाम शुरु शुरु में जगमोहन सिंह रखा गया था। फिर एक दिन वो अपनी बहन से मिलने चुरू ज़िले के सहवा में गए थे जहाँ नामधारी सम्प्रदाय के एक संत नें उनके गाये श्लोकों को सुन कर उनके बहनोई रतन सिंह को यह सुझाव दिया कि इस लड़के का नाम जगजीत कर दिया जाए क्योंकि इसमें क्षमता है अपनी सुनहरी आवाज़ से पूरे जग को जीतने की। बस फिर क्या था, जगमोहन सिंह बन गए जगजीत सिंह, और उन्होंने वाक़ई इस नाम का नाम रखा और उस संत की भविष्यवाणी सच हुई।


जगजीत सिंह के पिता नें उन्हें संगीत की ए-बी-सी-डी सीखने के लिए श्रीगंगानगर के स्थानीय संगीतज्ञ श्री छ्गनलाल शर्मा के पास भेजा। वह जगजीत के स्कूल के दिनों का ज़माना था। स्कूल सुबह ७ से ११ बजे तक हुआ करता था। इस तरह से स्कूल से घर वापस आकर दोपहर में खाना खाने के बाद मास्टरजी के घर चले जाया करते थे। जगजीत सिंह नें एक साक्षात्कार में बताया कि छगनलाल जी अंधे थे पर एक बहुत अच्छे शिक्षक थे जिन्होंने सा-रे-गा-मा से शुरु करते हुए संगीत की प्राथमिक शिक्षा उन्हें दी। दो साल बाद जगजीत के पिता नें उन्हें उस्ताद जमाल ख़ाँ के पास भेजा जिनसे उन्होंने राग, ख़याल और तराना सीखा। ख़ाँ साहब तानसेन के वंशज थे। बंदिशें, ख़ास कर मालकौन्स और बिलासखानी तोड़ी की बंदिशें ख़ाँ साहब ने ही जगजीत सिंह को सिखाई थी। उसी साक्षात्कार में जब जगजीत सिंह से उनकी पसन्दीदा ग़ज़लों के बारे में पूछा गया तो जिन जिन का उन्होंने नाम लिया उनमें पहला नाम इसी नज़्म "ये दौलत भी ले लो" का था। इसके अलावा "आहिस्ता आहिस्ता", "तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो", "होठों से छू लो तुम" का भी उन्होंने नाम लिया था। इस तरह से यह नज़्म केवल मेरे और आपके ही नहीं, बल्कि इसके गायक की भी ख़ास पसन्द रही है। जिस तरह से फ़िल्मों में शकील-नौशाद, शैलेन्द्र-शंकर-जयकिशन, गुलज़ार-पंचम जैसी गीतकार-संगीतकार जोड़ियाँ बनी हैं, उसी तरह से ग़ज़लों की दुनिया में सुदर्शन फ़ाकिर और जगजीत सिंह की जोड़ी भी ख़ूब जमी। फ़ाकिर की तमाम रचनाओं में यह नज़्म जगजीत सिंह का फ़ेवरीट नज़्म है, यह उन्होंने कई कई साक्षात्कारों में कहा है। आज न सुदर्शन फ़ाकिर इस दुनिया मे हैं और न ही जगजीत सिंह, पर बचपन को याद करने का जो तरीका दोनों हमें सिखा गए हैं इस नज़्म के ज़रिए, जब तक बचपन रहेगा, जब तक जवानी रहेगी, जब तक बुढ़ापा रहेगा, हर पड़ाव के लोग इस नज़्म को दिल से महसूस करते रहेंगे, इस नज़्म को सुनते हुए अपने बचपन को बार-बार जीते रहेंगे।

जगजीत सिंह की आवाज़ में इस नज़्म को सुनने के लिए नीचे प्लेयर पर क्लिक करें...


तो दोस्तों, यह था आज का 'एक गीत सौ कहानियाँ'। आज बस इतना ही, अगले बुधवार फिर किसी गीत से जुड़ी बातें लेकर मैं फिर हाज़िर हो‍ऊंगा, तब तक के लिए अपने इस ई-दोस्त सुजॉय चटर्जी को इजाज़त दीजिए, नमस्कार!

Comments

बिलकुल सही कहा. सभी को ऐसा ही अहसास होता है.
Kshiti said…
jagjeet singh ki awaz me sudarshan faqir ki yah nazm mera sabse pasandida gana hai. sun kar bahut achha laga.
Smart Indian said…
बहुत सुन्दर आलेख!

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