'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' - २७ 'अनिल बिस्वास पर केन्द्रित विविध भारती की यादगार शृंखला 'रसिकेशु' के बनने की कहानी संगीतकार तुषार भाटिया की ज़बानी'
नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' में एक बार फिर आप सभी का हम स्वागत करते हैं। आज का यह अंक बहुत ही ख़ास है क्योंकि आज आप इसमें एक महान संगीतकार के बारे में कुछ बातें जानने जा रहे हैं जो शायद अब तक आपको मालूम ना होंगी, और ये सब बातें आपको बताएँगे एक और बेहद गुणी फ़नकार। दोस्तों, अगर आप विविध भारती के श्रोता हैं और सुबह सवेरे 'संगीत सरिता' सुनते हैं तो आपने इसमें एक शृंखला ज़रूर सुनी होगी 'रसिकेशु', जिसमें संगीतकार अनिल बिस्वास से युवा संगीतकार तुषार भाटिया की बहुत अच्छी और लम्बी बातचीत सुनवाई गई थी। विविध भारती ने बड़े प्यार से इस रेकोडिंग् को अपने संग्रहालय में सहेज कर रखा है और इस शृंखला का दोहराव भी हर वर्ष होता रहता है श्रोताओं की फ़रमाइश पर। पिछले दिनों मेरी तुषार जी से फ़ेसबूक पर मुलाक़ात हुई, उनका बड़प्पन ही कहूँगा कि मुझे अपने फ़्रेण्ड्स-लिस्ट में शामिल किया, और इतना ही नहीं, एक इंटरव्यु के लिए भी तुरंत राज़ी हो गए। मुझे बहुत रोमांच हो आया क्योंकि यह मेरा पहला इंटरव्यु था। इससे पहले जितने भी इंटरव्युज़ मैंने किये हैं, सब ईमेल के माध्यम से हुए हैं। टेलीफ़ोन पर यह पहला इंटरव्यु था। ख़ैर, मैंने पूरी तैयारी की और सवालों की सूची तैयार की जो मैं तुषार जी से पूछना चाहता था। लेकिन जब हमारी बातचीत शुरु हुई तो अनिल दा और 'रसिकेशु' के बारे में इतने विस्तार और प्यार से तुषार जी ने बताना शुरु किया कि केवल 'रसिकेशु' और अनिल दा पर ही हमारी बातचीत घंटों तक चल पड़ी। इसलिए मैंने सोचा कि क्यों ना अनिल दा की 'रसिकेशु' के बनने की कहानी से ही आज की इस प्रस्तुति को सजाया जाये। तुषार जी के सब से पसंदीदा संगीतकारों में अनिल दा का नाम आता है, और अनिल दा के लिए तुषार जी के मन में किस तरह का सम्मान है, किस तरह का प्यार है, वो आपको इस इंटरव्यु को पढ़ने के बाद पता चल जाएगा। तो आइए, आपको मिलवाते हैं बहुमुखी प्रतिभा के धनी, जानेमाने सितार-वादक, संगीतकार, ऐड-फ़िल्म-मेकर, व लेखक श्री तुषार भाटिया से।
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सुजॊय - तुषार जी, नमस्कार, और बहुत बहुत स्वागत है आपका 'हिंद-युग्म' में।
तुषार जी - नमस्कार!
सुजॊय - तुषार जी, सब से पहले तो आपका आभार व्यक्त करूँगा जो आप इस इंटरव्यु के लिए तैयार हुए; मैंने आपकी अनिल दा से की हुई बातचीत पर आधारित विविध भारती की शृंखला 'रसिकेशु' ना केवल सुनी है, उसे रेकॊर्ड करके ट्रान्स्क्राइब भी कर रखा है।
तुषार जी - 'रसिकेशु' के बनने की भी एक लम्बी कहानी है, अगर बताने लगूँ तो बहुत समय निकल जाएगा आपका।
सुजॊय- कोई बात नहीं, मैं जानना चाहूँगा, बहुत अच्छा लगेगा मुझे अनिलदा के बारे में और जानकर। और सिर्फ़ मुझे ही क्यों, हमें पूरा यकीन है कि गुज़रे ज़माने के सभी संगीत रसिकों को अनिल दा के बारे में जानकर बेहद ख़ुशी होगी। क्या वो आपके फ़ेवरीट संगीतकार रहे हैं?
तुषार जी - फ़ेवरीट अनिल दा थे और होने ही चाहिए। वो सर्वश्रेष्ठ और सर्वोपरी संगीतकार थे। ऐसा एक बार पंडित नरेन्द्र शर्मा जी ने ही कहा था। और परम आदरणीय आर. सी. बोराल साहब व पंकज मल्लिक साहब के बाद अनिल दा ही तो थे। ऐसी विलक्षण बुद्धि कभी कभार ही पैदा होती है।
सुजॊय - अमीन सायानी साहब ने अनिल दा पर केन्द्रित एक रेडियो कार्यक्रम में उन्हें फ़िल्म संगीतकारों के भीष्म-पितामह कह कर संबोधित किया था।
तुषार जी - जी, लेकिन अनिल दा अपने आप को 'अंकल ऒफ़ फ़िल्म म्युज़िक' कहते थे; 'फ़ादर ऒफ़ फ़िल्म म्युज़िक' का ख़िताब उन्होंने आर. सी. बोराल साहब तथा पंकज मल्लिक साहब को दे रखा था।
सुजॊय - अच्छा तुषार जी, बताइए कि आप रेडियो से पहली बार कब जुड़े थे?
तुषार जी - ऐसा हुआ था कि पंडित पन्नालाल घोष पर 'संगीत सरिता' में एक सीरीज़ हुया था एक हफ़्ते का, जिसके आख़िर के दो एपिसोड्स मैंने किए थे। इस कार्यक्रम की प्रोड्युसर छाया गांगुली जी थीं जिन्होंने मुझे इस सीरीज़ को करने की दरख्वास्त की। इस सीरीज़ का विषय था 'पंडित पन्नालाल घोष का फ़िल्म संगीत में योगदान'। उस समय मुझे रेडियो का कोई एक्स्पिरिएन्स नहीं था, रेडियो में कैसे बोलते हैं, किस तरह की भाषा होती है, कुछ पता नहीं था। फिर भी ज़्यादा परेशानी नहीं हुई क्योंकि पढ़के बोलना था| उस सीरीज़ का बहुत अच्छा रेस्पॊन्स मिला, बहुत सारे श्रोताओं के पत्र भी मिले।
सुजॊय - तुषार जी, 'रसिकेशु' किस तरह से प्लान हुई और इस सीरीज़ के लिए आपको कैसे चुना गया, इसकी कहानी हम बाद में आप से पूछेंगे, पहले बताइए कि आपका ने अनिल दा से, मेरा मतलब है उनके गीतों से रु-ब-रु किस उम्र में और किस तरह से हुए थे, और किस तरह से आप अनिल दा के गीतों को सुनने लगे?
तुषार जी - 'बसंत', 'क़िस्मत', और 'तराना' के गानें मुझे आते थे, और मुझे ये गानें बहुत पसंद थे। लेकिन ज़्यादा गानें सुनने का मौक़ा नहीं मिलता था, इसलिए मै उनके काम से ज़्यादा वाक़िफ़ नहीं था। लेकिन जितना भी सुना था, वो बेहद पसंद था। मेरे मामाजी के घर में दो रेकॊर्ड्स थे, और मैं छुट्टियों में एक बार जब उनके घर गया तव उन रेकॉर्ड्स को अपने साथ ले कर आया था. कैसेट में रेकॊर्ड करने के लिए। एक रेकॊर्ड में "बलमा जा जा जा" गीत था जिसमें खयाल और दादरे का क्या सुंदर मिश्रण था। दूसरे रेकॊर्ड में 'तराना' के दो गीत थे, एक तरफ़ "सीने में सुलगते हैं अरमान" और दूसरी तरफ़ "नैन मिले नैन हुए बावरे", और यह दूसरा गीत मुझे बेहद पसंद था। उन दिनों गानें रेडियो पर ही सुन सकते थे, विविध भारती या रेडियो सीलोन, दूसरा कोई ज़रिया नहीं था। या फिर टीवी पर जो पुरानी फ़िल्में आती थीं, उनमें गानें सुन सकते थे। 'छोटी छोटी बातें', 'तराना, 'आराम', 'परदेसी', 'स्वयमसिद्धा' जैसी फ़िल्मों के गानें मैं टी.वी से रेकॊर्ड कर लिया करता था। फिर १९७८ में एक एल.पी रेकॊर्ड निकला 'Songs to Remember' जिसमें अनिल दा के कुल १२ गानें थे। १९७४-७५ तक मैं नौशाद साहब, ओ.पी.नय्यर साहब, रोशन साहब और सलिल दा का बहुत बड़ा भक्त बन चुका था। लेकिन जब मैंने उस एल.पी रेकॊर्ड में शामिल "ऋतू आये ऋतू जाए" सुना जो राग गौड सारंग पर आधारित था, तो मैं चमत्कृत हो गया। फिर और भी गानें जैसे कि "रूठ के तुम तो चल दिए", "ज़माने का दस्तूर है ये पुराना", "आ मोहब्बत की बस्ती बसाएँगे हम", "मोहब्बत तर्क की मैंने" जैसे गानें सुना, तो जैसे वो इंद्रासन डोल गया जिसमें मैंने बाक़ी सब दिग्गज संगीतकारों को बिठा रखा था। इसलिए मैंने उस रेकॊर्ड को कहीं छुपा दिया।
सुजॊय - यानी कि आपके दिल को यह गवारा न था कि नौशाद साहब, नय्यर साहब, सलिल दा, इनसे भी ज़्यादा कोई पसंद आ रहा है!
तुषार जी - बिल्कुल! फिर एक दिन मेरी माताजी ने मुझसे कहा कि तुम उस रेकॊर्ड को क्यों नहीं बजाते? "दूर पपीहा बोला", "बरस बरस बदली" वगेरह? तब मैंने उस रेकॊर्ड को दुबारा बजाना शुरु किया। और उसका आनंद दुगुना हो गया। और वह रेकॊर्ड मेरे जीवन की बहुत ही आनंदायक एक सम्पत्ति बन गई। मैं रोक नहीं पाता था अपने आप को उसे बजाने से। मैं घण्टों उस रेकॊर्ड की मुख्यपृष्ठ पर अनिल दा की तस्वीर को तकता रहता था, कि एक आदमी इतना दिव्य संगीत कैसे दे सकता है, इतना पर्फ़ेक्ट कैसे हो सकता है। हर गाना कमाल का और पंकज बाबू की तरह कोई फ़िल्मीपन नहीं था उनके संगीत में, ऐसा मुझे लगता था।
सुजॊय - वाह!
तुषार जी - कभी कभी मुझे ऐसा लगता है कि अनिल दा के कम्पोज़िशन्स सुनके दूसरे संगीतकारों ने सारे हथियार डाल दिये होंगे। और उनका संगीत भी क्या है! "बेइमान तोरे नैनवा", "रसिया रे मनबसिया रे", और 'अनोखा प्यार' के गानें, 'गजरे' के गानें।
सुजॊय - जी हाँ, जी हाँ।
तुषार जी - ये सब जो मैं अपनी बातें बता रहा हूँ ये उस दौर की हैं जब आर.डी. बर्मन का ज़माना था। और मैं कॊलेज में था उस वक़्त। यह वह दौर था जब हम लोग राजेश खन्ना, आर. डी. बर्मन और किशोर दा की तिकड़ी का, यानी इनके गानों का मज़ा लेते थे। लेकिन मैं साथ ही साथ पुराने गानों का भी मज़ा लेता था, और ऐसा मुझे फ़ील होता था कि पुराने गानों में जो गहराई थी, वो नये गानों में कम थी। मैंने एक कैसेट में अनिल दा के कई गानें रेकॊर्ड किए टीवी से, रेडियो से। उसमें 'फ़रेब' के लता जी के गाए दो गीत थे। उनमें एक था "जाओगे ठेस लगाके" और दूसरा था एक लोरी, "रात गुनगुनाती है लोरियाँ सुनाती है"। मेरी मौसी के घर पे यह रेकॊर्ड मुझे मिला, और मैं उसे रेकॊर्ड करने के लिए ले आया था। वह कैसेट कोई ले गया और वापस नहीं किया। और १९८२ के बाद मैंने ये गानें फिर कभी नहीं सुनें।
सुजॊय - तुषार जी, हम ख़ास आपके लिए फ़िल्म 'फ़रेब' के इन दोनों दुर्लभ गीतों को खोज लाये हैं, आइए आगे बढ़ने से पहले इन दोनों गीतों का आनंद लिया जाए।
तुषार जी - ज़रूर!
गीत - जाओगे ठेस लगाके (फ़रेब)
गीत - रात गुनगुनाती है (फ़रेब)
तुषार जी - वाह! फिर अनिल दा का 'हमलोग' सीरियल का म्युज़िक आया, आपने सुना होगा, जिसमें मीना कपूर जी ने टाइटल सॊंग् गाया था, "आइए हाथ उठाएँ हम भी"।
सुजॊय - जी! मीना जी भी कमाल की गायिका रही हैं।
तुषार जी - मेरे भाई श्यामल के अनुसार "कुछ और ज़माना कहता है" अब तक का बेस्ट फ़िल्म सॊंग् है।
सुजॊय - वाह!
तुषार जी - फिर एक दिन फ़िल्म 'सौतेला भाई' टीवी पे दिखाई गई जिसका "जा मैं तोसे नाही बोलूँ" मैंने रेकॊर्ड कर लिया। 'सौतेला भाई' के दूसरे या तीसरे हफ़्ते ही 'छोटी छोटी बातें' भी दिखाई गई, जिसका वह गाना था "कुछ और ज़माना कहता है"। इसी फ़िल्म का एक अन्य गीत "मोरी बाली री उमरिया, अब कैसे बीते राम" मैंने पहली बार सुना और सुनते ही रोंगटे खड़े हो गए। यह गीत राग पीलू पर आधारित होते हुए भी जिस तरह से अनिल दा ने इसमें कोमल निशाद का प्रयोग किया है, वह क़ाबिल-ए-तारीफ़ है। पीलू राग में आमतौर से शुद्ध निशाद बहुत प्रबल होता है, जैसे फ़िल्मी गीतों में आपने सुना होगा। कानन देवी का "प्रभुजी प्रभुजी तुम राखो लाज हमारी" (हॊस्पिटल), सहगल साहब का "काहे गुमान करे" (तानसेन), नौशाद साहब का बनाया हुआ "ओ चंदन का पलना" (शबाब), और "मोरे सैंयाजी उतरेंगे पार हो नदिया धीरे बहो" (उडन खटोला), इत्यादि इसके उदाहरण हैं। लेकिन अनिल दा के इस गीत में, "अब कैसे बीते राम, रो रो के बोली राधा मोहे तज के गयो श्याम", यह सांगीतिक वाक्य कोमल निशाद पे रुकता है। अनिल दा ने कैसे सोचा होगा इसको। मैं चाहता हूँ कि आप इस गीत को यहाँ पर ज़रूर सुनवाएँ।
सुजॊय - ज़रूर! हम दो गीत सुनेंगे यहाँ पर, एक तो नौशाद साहब के संगीत में फ़िल्म 'उड़न खटोला' का "मोरे सैंया जी उतरेंगे पार" तथा दूसरा अनिल दा का रचा फ़िल्म 'छोटी छोटी बातें' का उपर्युक्त गीत।
गीत - मोरे सैंयाजी उतरेंगे पार (उडन खटोला)
गीत - मोरी बाली री उमरिया (छोटी छोटी बातें)
तुषार जी - और भी बहुत से संगीतकार हुए जिन्होंने शास्त्रीय संगीत पर गानें बनाये, लेकिन अनिल दा की बात ही अलग थी। उनके काम में एक नया दृष्टिकोण मुझे नज़र आता था। तो मैं एक एकलव्य की तरह अनिल दा को मन ही मन पूजता था। संगीत सृजन की रुचि होने की वजह से मेरा दृष्टिकोण एक विद्यार्थी की तरह होता था और मैं सोचता रहता था उनके बारे में। फिर १९८४ में जब मैंने सुना "लूटा है ज़माने ने क़िस्मत ने रुलाया है" (दोराहा), वहाँ भी पाया कि कोमल धैवत का प्रयोग अनोखा है। मुझे अनिल दा और नौशाद साहब के कम्पोज़िशन्स के हर पहलू में सिर्फ़ पर्फ़ेक्शन ही नज़र आता। क्या ग़ज़ब की पकड़ थी इनकी अपने फ़न पर!
सुजॊय - वाह! बहुत ही अच्छी तरह से आपने बताया कि किस तरह से आप अनिल दा के भक्त बनें। ये तो थी कि किस तरह से आपने अनिल दा के गीतों को सुनना शुरु किया, सुनते गये, उन्हें और उनके संगीत को खोजते गये, लेकिन उनसे आपकी पहली मुलाक़ात कब और कहाँ हुई थी? किस तरह की बातचीत होती थी आप में?
तुषार जी - मैं उस वक़्त HMV में था और अनिल दा दिल्ली से बम्बई आये थे किसी भजन के रेकॊर्डिंग् के लिए। और तब मैंने पहली बार उनसे मिला। यह बात १९८६ की है। उस समय मैं HMV में उन्हीं के गीतों का एक ऐल्बम कम्पाइल कर रहा था, जिसका शीर्षक था 'Vintage Favourites - Anil Biswas'। मैं चाहूँगा कि इस कैसेट/ सीडी का कवर आप अपने पाठकों को ज़रूर दिखाएँ।
सुजॊय - ज़रूर!
चित्र-१: 'Vintage Favourites - Anil Biswas' (Front Page) (सौजन्य: तुषार भाटिया)
चित्र-२: 'Vintage Favourites - Anil Biswas' (Back Page) (सौजन्य: तुषार भाटिया)
तुषार जी - बाद में भी जब भी वो बम्बई आते थे, तब भी मिलता था, लेकिन मैं उनका लिहाज़ करता था, इसलिए उनसे ज़्यादा बात़चीत या सवाल नहीं पूछता था। मैं सोचता रहता था कि कैसे रहे होंगे अनिल बिस्वास! ये कैसे संभव है कि संगीत की कोई विधा ऐसी नहीं जिसे उन्होंने छोड़ा हो, अनिल दा का तो मामला ही कुछ अलग है! वो जो कुछ भी बोलते थे, वो बड़ा मार्मिक होता था, और उनके बोलने की छटा भी कमाल की थी। पाँचों भाषाओं में पे उनकी ज़बरदस्त पकड़ थी - हिंदी, उर्दू, अंग्रेज़ी, बांगला और बृज भाषा। और इन भाषाओं में अच्छा काव्य लिखते भी थे। और ज़बान भी इतनी साफ़ कि सामने वाला दंग रह जाए! बहुत ही गहरा अध्ययन था काव्य का। और हिंदी से लेके उर्दू के बड़े बड़े कवियों, शायरों के साथ हुए उनके काम से मैं अच्छी तरह वाक़ीफ़ था, जैसे कि आरज़ू लखनवी, सफ़दार आह, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, पंडित नरेन्द्र शर्मा, कवि प्रदीप। साथ ही कबीर, मीरा, तुल्सीदास के काव्य की भी उतनी ही गहरी जानकारी थी उनको। 'रसिकेशु' में भी उन्होंने एक दोहा कहा था अगर आपको याद है तो, "खरी बात कबीरा कहीगा, अंधाउ कहे अनूठी, बची खुची सो गुसैया कहीगा, बाकी सब बाता झूठी"।
सुजॉय - बहुत ख़ूब। यानी कबीरदास, सूरदास और तुल्सीदास, बाकी सब बकवास! अच्छा, 'रसिकेशु' के लिए अनिल दा से आपकी किस साल मुलाक़ात हुई थी और किस तरह से 'रसिकेशु' प्लान हुई थी?
तुषार जी - 'रसिकेशु' के लिए अनिल दा से हमारी मुलाक़ात हुई १९९६ में। पंडित पन्नालाल घोष के उस प्रोग्राम का इतना अच्छा रेस्पॊन्स मिला कि उसके बाद छाया जी ने मुझसे कहा कि वो अनिल दा पर भी प्रोग्राम करने की इच्छुक हैं। छाया जी जानती थीं कि अनिल दा से मेरी मुलाक़ातें होती थीं, और उन्होंने मुझसे उनसे मिलवाने को कहा। तो अगली बार जब अनिल दा बम्बई आये और हर साल की तरह उस बार भी उनके सम्मान में एक लंच का आयोजन हुआ था डॊ. जोशी के घर पे, तो मैं छाया जी को लेकर वहाँ गया।
सुजॊय - तुषार जी, माफ़ी चाहूँगा टोकने के लिए, आगे बढ़ने से पहले यह बताइए कि छाया गांगुली जी को आप पहले से ही जानते थे?
तुषार जी - जी हाँ, महादेवी वर्मा जी और पंडित नरेन्द्र शर्मा के कुछ गानें मैंने कम्पोज़ किए थे जिन्हें छाया जी गा चुकी थीं। हमारा एक दूसरे के घर के घर आना जाना था। और पन्ना बाबू पर उस प्रोग्राम के लिए भी छाया जी ने ही मुझसे आग्रह किया था।
सुजॊय - अच्छा अच्छा! अब बताइए आगे उस लंच में फिर क्या हुआ।
तुषार जी - उस लंच में तो फिर कुछ बात नहीं हुई, बस एक अपॊयण्टमेण्ट फ़िक्स हुआ मेरा और छाया जी का अनिल दा के साथ। फिर हम अगले दिन शाम को उनसे मिलने गए और छाया जी ने उनसे इंटरव्यु की बात छेड़ी। अनिल दा ने पूछा कि इंटरव्यु कौन करेगा? तुषार, तुम सुझाओ। मैंने ब्रॊडकास्टिंग् की दुनिया के दो बहुत मशहूर नाम सुझाये। उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। मेरे मन में कहीं न कहीं एक ऐसी इच्छा भी थी कि काश नौशाद साहब यह इंतरव्यु। यह बात तो जगविदित है कि नौशाद साहब अनिल दा को अपना गुरु समझते थे। अगर ये दो दिग्गजों की बातचीत रेडियो पर लोग सुनेंगे तो इससे बेहतर तो कोई बात हो ही नहीं सकती थी। वैसे भी आर. सी. बोराल, पंकज मल्लिक और अनिल बिस्वास के बाद नौशाद साहब का ही तो नाम आता है, जिन्हें हम फ़िल्म संगीत के प्रचलित धारा के पायनीयर या युग-प्रवर्तक संगीतकार कह सकते हैं। तो मैं ये सब सोच ही रहा ही था कि काश ऐसा कुछ हो सके कि अचानक फ़ोन बजा। मैंने फ़ोन उठाया। उधर से आवाज़ आई, "क्या वहाँ अनिल बाबू तशरीफ़ रखे हुए हैं? मैंने पूछा कि आप कौन साहब बोल रहे हैं? दूसरी तरफ़ से आवाज़ आई, "जी मुझ नाचीज़ को नौशाद अली कहते हैं"। उस वक़्त मेरी क्या हालत हुई होगी इसका आप अंदाज़ा लगा सकते हैं। मेरे लिए तो वर्णन के बाहर है। मैंने फ़ोन पे हाथ रख अनिल दा से कहा कि नौशाद साहब का फ़ोन है। तो अनिल दा ने मुझसे सवाल किया कि वो क्या कह रहे हैं? अब मैं नौशाद साहब से ये बात कैसे पूछता? अर्जुन को विश्वरूप दर्शन जो हुए थे, उनके सामने एक भगवान श्री कृष्ण थे, मेरे सामने दो थे। तो मैंने बहुत ही संकोच के साथ यह बात नौशाद साहब से पूछी। उन्होंने अपनी लखनवी तहज़ीब में अर्ज़ किया, "अगर अनिल बाबू फ़ारिक़ हों तो मैं आदाब-ओ-सलाम के लिए हाज़िर हो जाऊँ|" न जाने ये कैसी ग्रहदशा थी! दिल में उस इंटरव्यु की बात थी थी, और अगर इस वक़्त नौशाद साहब यहाँ आ जाएँ तो कोई बात बन भी जाए क्या पता! जब मैंने अनिल दा से कहा कि नौशाद साहब आकर मिलना चाहते हैं, तो अनिल दा बोले कि "फ़ोन ला"। फिर फ़ोन पर बात करने लगे, मुझे उस तरफ़ की बातें तो सुनाई नहीं दी, इस तरफ़ से दादा कहने लगे 'जीते रहो... आज रहने दो, बच्चे आये हैं, रेडियो पर इंटरव्यु की बात कर रहे हैं....."। छाया जी ने फिर पूछा कि इंतरव्यु किससे करवाना है? अनिल दा ने देर तक मेरी तरफ़ देखा और अचानक बोल उठे कि यह इंटरव्यु तुषार करेगा। मैं चौंक पड़ा। मैंने कहा, "दादा, मुझे तो कोई तजुर्बा नहीं"। तो अनिल दा भड़क उठे, कहने लगे, "तेरी यह मजाल, तू मुझे ना कह रहा है?" मैंने कहा, "दादा, आपको सवालात करने की मेरी क्या औक़ात है।" तो कहने लगे कि तूने जो पंडित पन्नालाल घोष पे प्रोग्राम किया था वो मैंने सुना था, I have heard it, I know about it'। उन्होंने छाया जी से कहा कि अगर तुषार करेगा तो ही मैं इंटरव्यु दूँगा। इसके बाद मेरे पास कोई चारा न था। मैं तो केवल छाया जी को उनसे मिलवाने ले गया था और उन्होंने पूरी ज़िम्मेदारी ही मेरे सर डाल दी।
सुजॊय - कैसा लग रहा था आपको उस वक़्त जब इतना बड़ा मौका आपको मिला?
तुषार - क्या बताऊँ मैं कि कितना टेन्शन दिया दादा ने मुझे! मेरे सामने तीन मसले थे। एक तो संगीत का महासागर मेरे सामने लहरा रहा था जिसे मुझे दुनिया के सामने पेश करना था। दूसरा मसला था समय का। मेरे पास प्रिपेयर्ड होने का टाइम नहीं था, क्योंकि इंटरव्यु दूसरे-तीसरे दिन ही था। और तीसरा मसला यह था कि दादा न अपने बारे में बोलना चाहते थे और ना मैं उनकी तारीफ़ कर सकता था। अनिल दा को अपनी तारीफ़ से नफ़रत थी। यह उनका तजुर्बा था कि उन्होंने मुझमें कुछ देख लिया था जिसकी वजह से उन्होंने मुझे इस महान कार्य के लिए चुना। अब मेरे लिए मुश्किल की घड़ी थी। दूसरे दिन मेरे घर में शादी थी और उसी दिन शाम को मुझे और छाया जी को उनसे जाकर मिलना था। मुझे यह सोचकर बुखार आ गया था कि दादा का इंटरव्यु कैसे करूँगा, क्योंकि वो कोई ऐसे वैसे कलाकार नहीं थे, वो भारत के सर्वश्रेष्ठ संगीतकार थे। और उनसे वो सब सवाल नहीं पूछ सकते थे जो किसी भी आम इंटरव्यु में एक जर्नलिस्ट कलाकार को पूछते हैं। मुझे ऐसे सवाल पूछने थे जो उनके बारे में भी ना हो लेकिन उनका साहित्य और संगीत पे जो आधिपत्य है, जो महारथ उन्हें हासिल है, वो सब दुनिया के सामने रख सकूँ। जो विराट दर्शन मुझे हो रहा था, मैं चाहता था कि वही दर्शन लोगों को भी इस कार्यक्रम के ज़रिए हो। और एक बात यह भी थी कि अनिल दा बहुत सालों के बाद रेडियो में आ रहे थे। न जाने उनको मुझ पर इतना भरोसा कैसे हो गया था, यह बात मुझे समझ में नहीं आ रही थी। ख़ैर, छाया जी का प्लान था कि यह शृंखला तीन से सात एपिसोड्स में पूरी हो जाए।
सुजॊय - लेकिन यह शृंखला तो २६ एपिसोड्स की थी न?
तुषार - हाँ। तो मैं सोच में पड़ गया कि किस तरह से इंटरव्यु के मामले को आगे बढ़ाया जाये। कौन कौन से विषय चुने जायें, मैंने अनिल दा से पूछा। उन्होंने कहा कि कल आ जाओ। शाम को जब मैं और छाया जी उनके घर गये, तो दादा बहुत ही एक्साइटेड थे। उन्होंने एक लिस्ट बनाई थी संगीतकारों की। बड़े उत्साह से वो कहने लगे कि मैं आर. सी. बोराल साहब से शुरु करूँगा, फिर पंकज मल्लिक साहब से आगे बढ़ाऊँगा, वगेरह वगेरह। मैं और छाया जी एक दूसरे की तरफ़ देखने लगे कि तीन कड़ियों की यह शृंखला तो दादा पर है, पर वो तो दूसरे संगीतकारों की बातें किए जा रहे हैं। आप देखिए, उस वक़्त उनकी उम्र ८५ वर्ष थी, फिर भी कितना जोश था उनमें। फिर पूछने लगे, और लिखते गये, सहगल साहब, कानन देवी....। पूछा कि हम पंकज बाबू के कौन से गानें बजाएँगे? शुरुआत तो "मैं जानू क्या जादू है" से ही करूँगा, फिर 'डॊक्टर' फ़िल्म का "गुज़र गया वो ज़माना" आएगा, और फिर मुझसे पूछा कि पंकज दा का और कौन सा गीत रखें। मैंने कहा कि कविगुरु रबीन्द्रनाथ की कविता, पंकज दा की बनाई हुई धुन पे, "दिनेर शेषे घूमेर देशे"। मैं क्या बताऊँ, काश उस वक़्त मेरे पास कैमरा होता, उनके चेहरे पर जो एक्स्प्रेशन आया! बोल पड़े, "लाजवाब! इससे अच्छा तो कुछ हो ही नहीं सकता"। दादा "दिनेर शेषे घूमेर देशे" को गुनगुनाना शुरु किया और धीरे धीरे उनकी आँखें भरने लगीं, और आँसू बहने लगे। मैं और छाया जी बहुत चिंतित हो गये कि इतने भावावेश में कहीं उनकी तबीयत ख़राब ना हो जाये। शाम के ६:३० बज रहे थे, जाड़े का मौसम था। वो रोते गये और गाते गये। मीना दीदी ने दादा को आगे गाने से मना किया। लेकिन अनिल दा ने कहा कि नहीं मैं गाऊँगा, ज़रूर गाऊँगा। वो कहाँ सुनने वाले थे। मीना दी के रोकने के बावजूद अनिल दा ने गाना बंद नहीं किया और मुझसे अंतरे के शब्द पूछे। मैंने कहा, "दादा, रहने दीजिए आज।" कहने लगे, "तू अंतरा बता"। मैंने कहा, "घौरे जारा जाबार तारा कौखोन गैछे घौर पाने...." कहने लगे, "ये तो मेरी ज़िंदगी की कहानी है; क्या अनिल बिस्वास नाम का प्राणी ऐसी धुन बना पाएगा? कदापि नहीं।" उन्होंने इतना ईमोशनल होकर गाया कि क्या बताऊँ। ज़रा सोचिये कि क्या आलम होगा वह, रबीन्द्रनाथ की कविता, पंकज बाबू की धुन, गाने वाले अनिल दा, और शब्द पूछे जा रहे थे तुषार भाटिया से, और सुनने वालों में मीना दी और छाया जी, यानी दो सशक्त गायिकाएँ। यह सोच कर ही जैसे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। ख़ैर, आधा घंटा लगा उनको स्वस्थ होने में। छाया जी और मैं सोचने लगे कि यह सीरीज़ दादा पर है लेकिन वो तो अपने बारे में कुछ कह ही नहीं रहे हैं, ना ही अपने गीतों के बारे में। मैंने हिम्मत करके दादा से पूछा, "दादा, आपके कौन से गानें लें? तो कहने लगे, "मेरे गानों के बारे में मैं क्या बोलूँ, तू ही बोल, तू ही सोच"। तभी मैंने सोच लिया कि मुझे ऐसे सवाल पूछने पड़ेंगे कि जिनमें अनिल बिस्वास नाम के महासागर में छिपा हुआ सर्वश्रेष्ठ संगीतकार, विद्वान, काव्यरसिक तथा संगीत-गुरु लोगों को नज़र आ सके।
सुजॊय - वाह!
तुषार जी - आर. सी. बोराल साहब से लेकर आर. डी. बर्मन तक उन्होंने एक लिस्ट बनाई थी जिन पर वो बोलना चाहते थे; लेकिन गीतो के चयन की ज़िम्मेदारी उन्होंने मेरे सर पे डाल दी। और उसी शाम को हम बैठ कर गानें सीलेक्ट किए। ये तो थे पहले के १३ एपिसोड्स जो दूसरे संगीतकारों के बारे में थे। ये तो तैयार हो गए। उसी दिन मैंने सोच लिया था कि आर. सी. बोराल, पंकज मल्लिक, कमल दासगुप्ता, खेमचंद प्रकाश और नौशाद पे पूरा पूरा एपिसोड होगा, बाक़ी सब के दो दो कम्बाइन करेंगे, और कम्बिनेशन भी ठीक ठीक बन रहे थे। ये तो थी दूसरों की बातें, मैं तो सोचने लगा कि अब दादा का संगीत कैसे पेश किया जाए! ये सोचते रात बीत गई कि सीरीज़ का स्ट्रक्चर कैसा रखूँ!यह एक बहुत बड़ी चैलेंज थी। आप शायद यकीन नहीं करेंगे कि कुछ भी प्री-प्लैन्ड नहीं था, सबकुछ बिलकुल स्पॊण्टेनियसली हुआ। अलग अलग विषयों पर उनसे सवाल पूछा; संगीत के अलग अलग प्रकार, शास्त्रीय संगीत, लोक संगीत, जिनके माध्यम से दादा की सोच को बाहर निकालने की कोशिश करता रहा। हर विधा की चर्चा के बाद उसी विधा में दादा का बनाया हुआ गीत पेश करता था। कुछ बातें ज़रूर रह गईं जैसे कि बंदिश की ठुमरी के बारे में चर्चा। मैंने छाया जी से यह कहा भी था कि दादा से पूरी बातचीत रेकॊर्ड कर लेते हैं क्योंकि ऐसा मौक़ा बार बार नहीं आयेगा, बाद में एडिटिंग में बैठेंगे तो सबकुछ देखा जाएगा। और छाया जी भी इसी मत से सहमत थीं।
सुजॊय - अच्छा तुषार जी, कितने दिनों में रेकॊडिंग् पूरी हुई थी?
तुषार जी - बस दो ही दिनों में, एक दिन चार घण्टे और एक दिन ६-७ घण्टे। लेकिन पूरी एडिटिंग् में ४ महीने लग गये। कई जगहों पर बाद में मैंने डब भी किया, जैसे कि सॊंग् डिटैल्स, और कुछ कुछ चीज़ें जो इंटरव्यु के दौरान बतानी रह गयी थी। संगीत और साहित्य विषयक चरचाएँ काफ़ी हमें काट देनी पड़ी क्योंकि समय की पाबंदी थी। रेकॊर्डिंग् के दौरान दादा में इतना जोश था कि वो रुकते ही नहीं थे, हमने बस एक आध ब्रेक ही लिया चाय पीने के लिए। इस इंटरव्यू में मैंने पन्ना बाबू वाले प्रोग्राम जैसी भाषा का इस्तमाल नहीं किया जो पढ़के बोलना था। इसमें तो कुछ भी तय नहीं था। और दादा ने मुझसे कुछ भी नहीं पूछा कि तुम क्या क्या पूछोगे। दादा इंटरव्यु के दौरान ख़ुद तो गाते ही थे, मुझे भी गाने को कहते थे।
चित्र-३: विविध भारती के स्टुडियो में 'रसिकेशु' की रेकॊर्डिंग् करते हुए अनिल बिस्वास, मीना कपूर और तुषार भाटिया (सौजन्य: तुषार भाटिया)
सुजॊय - अच्छा एक बात बताइए तुषार जी, यह जो शीर्षक है 'रसिकेशु', क्या यह छाया जी या आप का सोचा हुआ था?
तुषार जी - बिल्कुल नहीं, यह शीर्षक भी दादा का ही दिया हुआ था, जिसका अर्थ भी उन्होंने बताया था; 'रसिकेशु' यानी रसिकों को समर्पित।
सुजॊय - वाह, क्या बात है! अच्छा, इस शृंखला में कुछ एपिसोड्स के बाद से मीना कपूर जी को भी शामिल किया गया था। यह किस तरह से हुआ? क्या यह प्री-प्लैन्ड था या यह भी अकस्मात? कहीं ऐसा तो नहीं कि जिन दो दिनों में रेकॊर्डिंग् हुई थी, उनमें दूसरे दिन मीना जी भी साथ आईं होंगी?
तुषार जी - नहीं, मीना दी हमेशा दादा के साथ ही रहती थीं और दोनों दिन वो भी स्टुडियो में तशरीफ़ लायी थीं। मीना दी बहुत ही इंट्रोवर्ट हैं, शाइ हैं। हम लोगों ने उनसे निवेदन किया कि आप भी बातचीत में शामिल हो जाइए। आपने देखा होगा कि उनके इस बातचीत में शामिल हो जाने से पूरी शृंखला में एक अलग रंग आ गया।
सुजॊय - जी हाँ!
तुषार जी - दीदी के आने से ऐसी बहुत सारी बातें थीं जो मैं ईज़ीली कर सकता था क्योंकि दादा और दीदी, दोनों ही गा गा के, जो भी विषय होता था, उदाहरण देते थे। दोनों के कुशाग्रता की जितनी भी तारीफ़ की जाये कम है। किसी भी विषय पर उनसे दिलचस्प चर्चा हो सकती थी। और हर विषय में उनके पास उदाहरण देने के लिए गानें मौजूद होते थे। दादा के साथ इतने वर्षों की जो औपचारिकता थी, उन्होंने ख़त्म कर दी। इस शृंखला के ज़रिए मैं उनके और भी बहुत करीब आ गया। इस तरह से 'रसिकेशु' पूरी हुई और जब इसका ब्रॊडकास्ट शुरु होने ही वाला था, उसके पिछले दिन मेरा बहुत बड़ा ऒपरेशन था। और दूसरे दिन से मैं रोज़ सुबह अस्पताल में पड़े पड़े 'रसिकेशु' सुना करता था।
सुजॊय - इस शृंखला के प्रसारण को अनिल दा और मीना दी ने भी रेडियो पर सुना होगा। क्या उन्होंने अपनी कोई प्रतिक्रिया व्यक्त की?
तुषार जी - मुझे उनका लिखा हुआ एक लेटर आया, जिसमें लिखा हुआ था - "MY DEAR PAGLA, YOUR DIDI SAYS THAT THE EDITING IS PERFECT."
सुजॊय - वाह! मीना जी के नाम से उन्होंने ही आपकी तारीफ़ की।
तुषार जी - जी हाँ, यही तो उनकी खासियत थी जो दूसरों में मैंने नहीं देखा। और जब 'रसिकेशु' ब्रॊडकास्ट हुई, तब मुझे भी और रेडियो स्टेशन को भी बहुत सारे लेटर्स आये दुनिया भर से, अमेरिका से, कनाडा से, कई लोगों ने लिखा कि उन्होंने इसे रेकॊर्ड कर अपने पास रखा हुआ है। मुझे इस बात की ख़ुशी हुई कि सब जगह अनिल दा की इस शृंखला के चर्चे होने लगे। और इसके बाद दादा टीवी पर भी आना शुरु हो गए। लोगों को उनके बारे में जानकारी हो गई कि वो कहाँ हैं। गजेन्द्र सिंह जी ने मुझसे दादा का फ़ोन नंबर लेकर उन्हें 'सा रे गा मा' में निमंत्रण दिया। इस बात का गर्व है मुझे कि 'रसिकेशु' करने का मौका मिला और मेरे जीवन की एक बहुत ही अविस्मरणीय घटना है। इसके लिए मैं छाया गांगुली जी को और विविध भारती को जितना धन्यवाद दूँ, कम है। लोगों को यह शृंखला पसंद आई और हर साल यह ब्रॊडकास्ट होती चली आ रही है पिछले १३ सालों से, और यह हमारी सफलता का ही चिन्ह है, इसका मुझे आनंद है।
सुजॊय - तुषार जी, आपका मैं किन शब्दों में शुक्रिया अदा करूँ समझ नहीं आ रहा है; जिस विस्तार से और प्यार से आपने अनिल दा के बारे में हमें बताया, 'रसिकेशु' के बारे में बताया, हमें यकीन है कि हमारे पाठकों को यह बातचीत बहुत पसंद आई होगी। वैसे आप से अभी और भी बहुत सारी बातें करनी है, राय बाबू के बारे में, पंकज बाबू के बारे में, नौशाद साहब के बारे में, नय्यर साहब के बारे में, रोशन साहब, सलिल दा, इन सभी के बारे में, और आपकी फ़िल्म 'अंदाज़ अपना अपना' के बारे में भी। हम फिर किसी दिन आपसे एक और लम्बी बातचीत करेंगे। एक बार फिर आपका बहुत बहुत धन्यवाद!
तुषार जी - बहुत बहुत धन्यवाद!
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तो दोस्तों, यह था इस सप्ताह का 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष', अगले सप्ताह फिर किसी ख़ास प्रस्तुति के साथ हम वापस आयेंगे। और 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नियमित कड़ी में फिर आपसे मुलाक़ात होगी कल शाम ६:३० बजे, जिसमें एक नई लघु शृंखला का आग़ाज़ होगा गुज़रे ज़माने की एक बेहद मशहूर सिंगिंग् स्टार को स्मार्पित। आज की इस प्रस्तुति के बारे में आप अपनी राय हमें नीचे टिप्पणी में या ईमेल के द्वारा oig@hindyugm.com के पते पर ज़रूर लिख भेजिएगा, हमें इंतज़ार रहेगा। तो अब आज के लिए अनुमति दीजिए, नमस्कार!
नोट- अंतिम चित्र में तुषार जी अनिल दा और मीना जी के साथ रसिकेशु की रिकॉर्डिंग करते हुए दिख रहे हैं
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सुजॊय - तुषार जी, नमस्कार, और बहुत बहुत स्वागत है आपका 'हिंद-युग्म' में।
तुषार जी - नमस्कार!
सुजॊय - तुषार जी, सब से पहले तो आपका आभार व्यक्त करूँगा जो आप इस इंटरव्यु के लिए तैयार हुए; मैंने आपकी अनिल दा से की हुई बातचीत पर आधारित विविध भारती की शृंखला 'रसिकेशु' ना केवल सुनी है, उसे रेकॊर्ड करके ट्रान्स्क्राइब भी कर रखा है।
तुषार जी - 'रसिकेशु' के बनने की भी एक लम्बी कहानी है, अगर बताने लगूँ तो बहुत समय निकल जाएगा आपका।
सुजॊय- कोई बात नहीं, मैं जानना चाहूँगा, बहुत अच्छा लगेगा मुझे अनिलदा के बारे में और जानकर। और सिर्फ़ मुझे ही क्यों, हमें पूरा यकीन है कि गुज़रे ज़माने के सभी संगीत रसिकों को अनिल दा के बारे में जानकर बेहद ख़ुशी होगी। क्या वो आपके फ़ेवरीट संगीतकार रहे हैं?
तुषार जी - फ़ेवरीट अनिल दा थे और होने ही चाहिए। वो सर्वश्रेष्ठ और सर्वोपरी संगीतकार थे। ऐसा एक बार पंडित नरेन्द्र शर्मा जी ने ही कहा था। और परम आदरणीय आर. सी. बोराल साहब व पंकज मल्लिक साहब के बाद अनिल दा ही तो थे। ऐसी विलक्षण बुद्धि कभी कभार ही पैदा होती है।
सुजॊय - अमीन सायानी साहब ने अनिल दा पर केन्द्रित एक रेडियो कार्यक्रम में उन्हें फ़िल्म संगीतकारों के भीष्म-पितामह कह कर संबोधित किया था।
तुषार जी - जी, लेकिन अनिल दा अपने आप को 'अंकल ऒफ़ फ़िल्म म्युज़िक' कहते थे; 'फ़ादर ऒफ़ फ़िल्म म्युज़िक' का ख़िताब उन्होंने आर. सी. बोराल साहब तथा पंकज मल्लिक साहब को दे रखा था।
सुजॊय - अच्छा तुषार जी, बताइए कि आप रेडियो से पहली बार कब जुड़े थे?
तुषार जी - ऐसा हुआ था कि पंडित पन्नालाल घोष पर 'संगीत सरिता' में एक सीरीज़ हुया था एक हफ़्ते का, जिसके आख़िर के दो एपिसोड्स मैंने किए थे। इस कार्यक्रम की प्रोड्युसर छाया गांगुली जी थीं जिन्होंने मुझे इस सीरीज़ को करने की दरख्वास्त की। इस सीरीज़ का विषय था 'पंडित पन्नालाल घोष का फ़िल्म संगीत में योगदान'। उस समय मुझे रेडियो का कोई एक्स्पिरिएन्स नहीं था, रेडियो में कैसे बोलते हैं, किस तरह की भाषा होती है, कुछ पता नहीं था। फिर भी ज़्यादा परेशानी नहीं हुई क्योंकि पढ़के बोलना था| उस सीरीज़ का बहुत अच्छा रेस्पॊन्स मिला, बहुत सारे श्रोताओं के पत्र भी मिले।
सुजॊय - तुषार जी, 'रसिकेशु' किस तरह से प्लान हुई और इस सीरीज़ के लिए आपको कैसे चुना गया, इसकी कहानी हम बाद में आप से पूछेंगे, पहले बताइए कि आपका ने अनिल दा से, मेरा मतलब है उनके गीतों से रु-ब-रु किस उम्र में और किस तरह से हुए थे, और किस तरह से आप अनिल दा के गीतों को सुनने लगे?
तुषार जी - 'बसंत', 'क़िस्मत', और 'तराना' के गानें मुझे आते थे, और मुझे ये गानें बहुत पसंद थे। लेकिन ज़्यादा गानें सुनने का मौक़ा नहीं मिलता था, इसलिए मै उनके काम से ज़्यादा वाक़िफ़ नहीं था। लेकिन जितना भी सुना था, वो बेहद पसंद था। मेरे मामाजी के घर में दो रेकॊर्ड्स थे, और मैं छुट्टियों में एक बार जब उनके घर गया तव उन रेकॉर्ड्स को अपने साथ ले कर आया था. कैसेट में रेकॊर्ड करने के लिए। एक रेकॊर्ड में "बलमा जा जा जा" गीत था जिसमें खयाल और दादरे का क्या सुंदर मिश्रण था। दूसरे रेकॊर्ड में 'तराना' के दो गीत थे, एक तरफ़ "सीने में सुलगते हैं अरमान" और दूसरी तरफ़ "नैन मिले नैन हुए बावरे", और यह दूसरा गीत मुझे बेहद पसंद था। उन दिनों गानें रेडियो पर ही सुन सकते थे, विविध भारती या रेडियो सीलोन, दूसरा कोई ज़रिया नहीं था। या फिर टीवी पर जो पुरानी फ़िल्में आती थीं, उनमें गानें सुन सकते थे। 'छोटी छोटी बातें', 'तराना, 'आराम', 'परदेसी', 'स्वयमसिद्धा' जैसी फ़िल्मों के गानें मैं टी.वी से रेकॊर्ड कर लिया करता था। फिर १९७८ में एक एल.पी रेकॊर्ड निकला 'Songs to Remember' जिसमें अनिल दा के कुल १२ गानें थे। १९७४-७५ तक मैं नौशाद साहब, ओ.पी.नय्यर साहब, रोशन साहब और सलिल दा का बहुत बड़ा भक्त बन चुका था। लेकिन जब मैंने उस एल.पी रेकॊर्ड में शामिल "ऋतू आये ऋतू जाए" सुना जो राग गौड सारंग पर आधारित था, तो मैं चमत्कृत हो गया। फिर और भी गानें जैसे कि "रूठ के तुम तो चल दिए", "ज़माने का दस्तूर है ये पुराना", "आ मोहब्बत की बस्ती बसाएँगे हम", "मोहब्बत तर्क की मैंने" जैसे गानें सुना, तो जैसे वो इंद्रासन डोल गया जिसमें मैंने बाक़ी सब दिग्गज संगीतकारों को बिठा रखा था। इसलिए मैंने उस रेकॊर्ड को कहीं छुपा दिया।
सुजॊय - यानी कि आपके दिल को यह गवारा न था कि नौशाद साहब, नय्यर साहब, सलिल दा, इनसे भी ज़्यादा कोई पसंद आ रहा है!
तुषार जी - बिल्कुल! फिर एक दिन मेरी माताजी ने मुझसे कहा कि तुम उस रेकॊर्ड को क्यों नहीं बजाते? "दूर पपीहा बोला", "बरस बरस बदली" वगेरह? तब मैंने उस रेकॊर्ड को दुबारा बजाना शुरु किया। और उसका आनंद दुगुना हो गया। और वह रेकॊर्ड मेरे जीवन की बहुत ही आनंदायक एक सम्पत्ति बन गई। मैं रोक नहीं पाता था अपने आप को उसे बजाने से। मैं घण्टों उस रेकॊर्ड की मुख्यपृष्ठ पर अनिल दा की तस्वीर को तकता रहता था, कि एक आदमी इतना दिव्य संगीत कैसे दे सकता है, इतना पर्फ़ेक्ट कैसे हो सकता है। हर गाना कमाल का और पंकज बाबू की तरह कोई फ़िल्मीपन नहीं था उनके संगीत में, ऐसा मुझे लगता था।
सुजॊय - वाह!
तुषार जी - कभी कभी मुझे ऐसा लगता है कि अनिल दा के कम्पोज़िशन्स सुनके दूसरे संगीतकारों ने सारे हथियार डाल दिये होंगे। और उनका संगीत भी क्या है! "बेइमान तोरे नैनवा", "रसिया रे मनबसिया रे", और 'अनोखा प्यार' के गानें, 'गजरे' के गानें।
सुजॊय - जी हाँ, जी हाँ।
तुषार जी - ये सब जो मैं अपनी बातें बता रहा हूँ ये उस दौर की हैं जब आर.डी. बर्मन का ज़माना था। और मैं कॊलेज में था उस वक़्त। यह वह दौर था जब हम लोग राजेश खन्ना, आर. डी. बर्मन और किशोर दा की तिकड़ी का, यानी इनके गानों का मज़ा लेते थे। लेकिन मैं साथ ही साथ पुराने गानों का भी मज़ा लेता था, और ऐसा मुझे फ़ील होता था कि पुराने गानों में जो गहराई थी, वो नये गानों में कम थी। मैंने एक कैसेट में अनिल दा के कई गानें रेकॊर्ड किए टीवी से, रेडियो से। उसमें 'फ़रेब' के लता जी के गाए दो गीत थे। उनमें एक था "जाओगे ठेस लगाके" और दूसरा था एक लोरी, "रात गुनगुनाती है लोरियाँ सुनाती है"। मेरी मौसी के घर पे यह रेकॊर्ड मुझे मिला, और मैं उसे रेकॊर्ड करने के लिए ले आया था। वह कैसेट कोई ले गया और वापस नहीं किया। और १९८२ के बाद मैंने ये गानें फिर कभी नहीं सुनें।
सुजॊय - तुषार जी, हम ख़ास आपके लिए फ़िल्म 'फ़रेब' के इन दोनों दुर्लभ गीतों को खोज लाये हैं, आइए आगे बढ़ने से पहले इन दोनों गीतों का आनंद लिया जाए।
तुषार जी - ज़रूर!
गीत - जाओगे ठेस लगाके (फ़रेब)
गीत - रात गुनगुनाती है (फ़रेब)
तुषार जी - वाह! फिर अनिल दा का 'हमलोग' सीरियल का म्युज़िक आया, आपने सुना होगा, जिसमें मीना कपूर जी ने टाइटल सॊंग् गाया था, "आइए हाथ उठाएँ हम भी"।
सुजॊय - जी! मीना जी भी कमाल की गायिका रही हैं।
तुषार जी - मेरे भाई श्यामल के अनुसार "कुछ और ज़माना कहता है" अब तक का बेस्ट फ़िल्म सॊंग् है।
सुजॊय - वाह!
तुषार जी - फिर एक दिन फ़िल्म 'सौतेला भाई' टीवी पे दिखाई गई जिसका "जा मैं तोसे नाही बोलूँ" मैंने रेकॊर्ड कर लिया। 'सौतेला भाई' के दूसरे या तीसरे हफ़्ते ही 'छोटी छोटी बातें' भी दिखाई गई, जिसका वह गाना था "कुछ और ज़माना कहता है"। इसी फ़िल्म का एक अन्य गीत "मोरी बाली री उमरिया, अब कैसे बीते राम" मैंने पहली बार सुना और सुनते ही रोंगटे खड़े हो गए। यह गीत राग पीलू पर आधारित होते हुए भी जिस तरह से अनिल दा ने इसमें कोमल निशाद का प्रयोग किया है, वह क़ाबिल-ए-तारीफ़ है। पीलू राग में आमतौर से शुद्ध निशाद बहुत प्रबल होता है, जैसे फ़िल्मी गीतों में आपने सुना होगा। कानन देवी का "प्रभुजी प्रभुजी तुम राखो लाज हमारी" (हॊस्पिटल), सहगल साहब का "काहे गुमान करे" (तानसेन), नौशाद साहब का बनाया हुआ "ओ चंदन का पलना" (शबाब), और "मोरे सैंयाजी उतरेंगे पार हो नदिया धीरे बहो" (उडन खटोला), इत्यादि इसके उदाहरण हैं। लेकिन अनिल दा के इस गीत में, "अब कैसे बीते राम, रो रो के बोली राधा मोहे तज के गयो श्याम", यह सांगीतिक वाक्य कोमल निशाद पे रुकता है। अनिल दा ने कैसे सोचा होगा इसको। मैं चाहता हूँ कि आप इस गीत को यहाँ पर ज़रूर सुनवाएँ।
सुजॊय - ज़रूर! हम दो गीत सुनेंगे यहाँ पर, एक तो नौशाद साहब के संगीत में फ़िल्म 'उड़न खटोला' का "मोरे सैंया जी उतरेंगे पार" तथा दूसरा अनिल दा का रचा फ़िल्म 'छोटी छोटी बातें' का उपर्युक्त गीत।
गीत - मोरे सैंयाजी उतरेंगे पार (उडन खटोला)
गीत - मोरी बाली री उमरिया (छोटी छोटी बातें)
तुषार जी - और भी बहुत से संगीतकार हुए जिन्होंने शास्त्रीय संगीत पर गानें बनाये, लेकिन अनिल दा की बात ही अलग थी। उनके काम में एक नया दृष्टिकोण मुझे नज़र आता था। तो मैं एक एकलव्य की तरह अनिल दा को मन ही मन पूजता था। संगीत सृजन की रुचि होने की वजह से मेरा दृष्टिकोण एक विद्यार्थी की तरह होता था और मैं सोचता रहता था उनके बारे में। फिर १९८४ में जब मैंने सुना "लूटा है ज़माने ने क़िस्मत ने रुलाया है" (दोराहा), वहाँ भी पाया कि कोमल धैवत का प्रयोग अनोखा है। मुझे अनिल दा और नौशाद साहब के कम्पोज़िशन्स के हर पहलू में सिर्फ़ पर्फ़ेक्शन ही नज़र आता। क्या ग़ज़ब की पकड़ थी इनकी अपने फ़न पर!
सुजॊय - वाह! बहुत ही अच्छी तरह से आपने बताया कि किस तरह से आप अनिल दा के भक्त बनें। ये तो थी कि किस तरह से आपने अनिल दा के गीतों को सुनना शुरु किया, सुनते गये, उन्हें और उनके संगीत को खोजते गये, लेकिन उनसे आपकी पहली मुलाक़ात कब और कहाँ हुई थी? किस तरह की बातचीत होती थी आप में?
तुषार जी - मैं उस वक़्त HMV में था और अनिल दा दिल्ली से बम्बई आये थे किसी भजन के रेकॊर्डिंग् के लिए। और तब मैंने पहली बार उनसे मिला। यह बात १९८६ की है। उस समय मैं HMV में उन्हीं के गीतों का एक ऐल्बम कम्पाइल कर रहा था, जिसका शीर्षक था 'Vintage Favourites - Anil Biswas'। मैं चाहूँगा कि इस कैसेट/ सीडी का कवर आप अपने पाठकों को ज़रूर दिखाएँ।
सुजॊय - ज़रूर!
चित्र-१: 'Vintage Favourites - Anil Biswas' (Front Page) (सौजन्य: तुषार भाटिया)
चित्र-२: 'Vintage Favourites - Anil Biswas' (Back Page) (सौजन्य: तुषार भाटिया)
तुषार जी - बाद में भी जब भी वो बम्बई आते थे, तब भी मिलता था, लेकिन मैं उनका लिहाज़ करता था, इसलिए उनसे ज़्यादा बात़चीत या सवाल नहीं पूछता था। मैं सोचता रहता था कि कैसे रहे होंगे अनिल बिस्वास! ये कैसे संभव है कि संगीत की कोई विधा ऐसी नहीं जिसे उन्होंने छोड़ा हो, अनिल दा का तो मामला ही कुछ अलग है! वो जो कुछ भी बोलते थे, वो बड़ा मार्मिक होता था, और उनके बोलने की छटा भी कमाल की थी। पाँचों भाषाओं में पे उनकी ज़बरदस्त पकड़ थी - हिंदी, उर्दू, अंग्रेज़ी, बांगला और बृज भाषा। और इन भाषाओं में अच्छा काव्य लिखते भी थे। और ज़बान भी इतनी साफ़ कि सामने वाला दंग रह जाए! बहुत ही गहरा अध्ययन था काव्य का। और हिंदी से लेके उर्दू के बड़े बड़े कवियों, शायरों के साथ हुए उनके काम से मैं अच्छी तरह वाक़ीफ़ था, जैसे कि आरज़ू लखनवी, सफ़दार आह, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, पंडित नरेन्द्र शर्मा, कवि प्रदीप। साथ ही कबीर, मीरा, तुल्सीदास के काव्य की भी उतनी ही गहरी जानकारी थी उनको। 'रसिकेशु' में भी उन्होंने एक दोहा कहा था अगर आपको याद है तो, "खरी बात कबीरा कहीगा, अंधाउ कहे अनूठी, बची खुची सो गुसैया कहीगा, बाकी सब बाता झूठी"।
सुजॉय - बहुत ख़ूब। यानी कबीरदास, सूरदास और तुल्सीदास, बाकी सब बकवास! अच्छा, 'रसिकेशु' के लिए अनिल दा से आपकी किस साल मुलाक़ात हुई थी और किस तरह से 'रसिकेशु' प्लान हुई थी?
तुषार जी - 'रसिकेशु' के लिए अनिल दा से हमारी मुलाक़ात हुई १९९६ में। पंडित पन्नालाल घोष के उस प्रोग्राम का इतना अच्छा रेस्पॊन्स मिला कि उसके बाद छाया जी ने मुझसे कहा कि वो अनिल दा पर भी प्रोग्राम करने की इच्छुक हैं। छाया जी जानती थीं कि अनिल दा से मेरी मुलाक़ातें होती थीं, और उन्होंने मुझसे उनसे मिलवाने को कहा। तो अगली बार जब अनिल दा बम्बई आये और हर साल की तरह उस बार भी उनके सम्मान में एक लंच का आयोजन हुआ था डॊ. जोशी के घर पे, तो मैं छाया जी को लेकर वहाँ गया।
सुजॊय - तुषार जी, माफ़ी चाहूँगा टोकने के लिए, आगे बढ़ने से पहले यह बताइए कि छाया गांगुली जी को आप पहले से ही जानते थे?
तुषार जी - जी हाँ, महादेवी वर्मा जी और पंडित नरेन्द्र शर्मा के कुछ गानें मैंने कम्पोज़ किए थे जिन्हें छाया जी गा चुकी थीं। हमारा एक दूसरे के घर के घर आना जाना था। और पन्ना बाबू पर उस प्रोग्राम के लिए भी छाया जी ने ही मुझसे आग्रह किया था।
सुजॊय - अच्छा अच्छा! अब बताइए आगे उस लंच में फिर क्या हुआ।
तुषार जी - उस लंच में तो फिर कुछ बात नहीं हुई, बस एक अपॊयण्टमेण्ट फ़िक्स हुआ मेरा और छाया जी का अनिल दा के साथ। फिर हम अगले दिन शाम को उनसे मिलने गए और छाया जी ने उनसे इंटरव्यु की बात छेड़ी। अनिल दा ने पूछा कि इंटरव्यु कौन करेगा? तुषार, तुम सुझाओ। मैंने ब्रॊडकास्टिंग् की दुनिया के दो बहुत मशहूर नाम सुझाये। उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। मेरे मन में कहीं न कहीं एक ऐसी इच्छा भी थी कि काश नौशाद साहब यह इंतरव्यु। यह बात तो जगविदित है कि नौशाद साहब अनिल दा को अपना गुरु समझते थे। अगर ये दो दिग्गजों की बातचीत रेडियो पर लोग सुनेंगे तो इससे बेहतर तो कोई बात हो ही नहीं सकती थी। वैसे भी आर. सी. बोराल, पंकज मल्लिक और अनिल बिस्वास के बाद नौशाद साहब का ही तो नाम आता है, जिन्हें हम फ़िल्म संगीत के प्रचलित धारा के पायनीयर या युग-प्रवर्तक संगीतकार कह सकते हैं। तो मैं ये सब सोच ही रहा ही था कि काश ऐसा कुछ हो सके कि अचानक फ़ोन बजा। मैंने फ़ोन उठाया। उधर से आवाज़ आई, "क्या वहाँ अनिल बाबू तशरीफ़ रखे हुए हैं? मैंने पूछा कि आप कौन साहब बोल रहे हैं? दूसरी तरफ़ से आवाज़ आई, "जी मुझ नाचीज़ को नौशाद अली कहते हैं"। उस वक़्त मेरी क्या हालत हुई होगी इसका आप अंदाज़ा लगा सकते हैं। मेरे लिए तो वर्णन के बाहर है। मैंने फ़ोन पे हाथ रख अनिल दा से कहा कि नौशाद साहब का फ़ोन है। तो अनिल दा ने मुझसे सवाल किया कि वो क्या कह रहे हैं? अब मैं नौशाद साहब से ये बात कैसे पूछता? अर्जुन को विश्वरूप दर्शन जो हुए थे, उनके सामने एक भगवान श्री कृष्ण थे, मेरे सामने दो थे। तो मैंने बहुत ही संकोच के साथ यह बात नौशाद साहब से पूछी। उन्होंने अपनी लखनवी तहज़ीब में अर्ज़ किया, "अगर अनिल बाबू फ़ारिक़ हों तो मैं आदाब-ओ-सलाम के लिए हाज़िर हो जाऊँ|" न जाने ये कैसी ग्रहदशा थी! दिल में उस इंटरव्यु की बात थी थी, और अगर इस वक़्त नौशाद साहब यहाँ आ जाएँ तो कोई बात बन भी जाए क्या पता! जब मैंने अनिल दा से कहा कि नौशाद साहब आकर मिलना चाहते हैं, तो अनिल दा बोले कि "फ़ोन ला"। फिर फ़ोन पर बात करने लगे, मुझे उस तरफ़ की बातें तो सुनाई नहीं दी, इस तरफ़ से दादा कहने लगे 'जीते रहो... आज रहने दो, बच्चे आये हैं, रेडियो पर इंटरव्यु की बात कर रहे हैं....."। छाया जी ने फिर पूछा कि इंतरव्यु किससे करवाना है? अनिल दा ने देर तक मेरी तरफ़ देखा और अचानक बोल उठे कि यह इंटरव्यु तुषार करेगा। मैं चौंक पड़ा। मैंने कहा, "दादा, मुझे तो कोई तजुर्बा नहीं"। तो अनिल दा भड़क उठे, कहने लगे, "तेरी यह मजाल, तू मुझे ना कह रहा है?" मैंने कहा, "दादा, आपको सवालात करने की मेरी क्या औक़ात है।" तो कहने लगे कि तूने जो पंडित पन्नालाल घोष पे प्रोग्राम किया था वो मैंने सुना था, I have heard it, I know about it'। उन्होंने छाया जी से कहा कि अगर तुषार करेगा तो ही मैं इंटरव्यु दूँगा। इसके बाद मेरे पास कोई चारा न था। मैं तो केवल छाया जी को उनसे मिलवाने ले गया था और उन्होंने पूरी ज़िम्मेदारी ही मेरे सर डाल दी।
सुजॊय - कैसा लग रहा था आपको उस वक़्त जब इतना बड़ा मौका आपको मिला?
तुषार - क्या बताऊँ मैं कि कितना टेन्शन दिया दादा ने मुझे! मेरे सामने तीन मसले थे। एक तो संगीत का महासागर मेरे सामने लहरा रहा था जिसे मुझे दुनिया के सामने पेश करना था। दूसरा मसला था समय का। मेरे पास प्रिपेयर्ड होने का टाइम नहीं था, क्योंकि इंटरव्यु दूसरे-तीसरे दिन ही था। और तीसरा मसला यह था कि दादा न अपने बारे में बोलना चाहते थे और ना मैं उनकी तारीफ़ कर सकता था। अनिल दा को अपनी तारीफ़ से नफ़रत थी। यह उनका तजुर्बा था कि उन्होंने मुझमें कुछ देख लिया था जिसकी वजह से उन्होंने मुझे इस महान कार्य के लिए चुना। अब मेरे लिए मुश्किल की घड़ी थी। दूसरे दिन मेरे घर में शादी थी और उसी दिन शाम को मुझे और छाया जी को उनसे जाकर मिलना था। मुझे यह सोचकर बुखार आ गया था कि दादा का इंटरव्यु कैसे करूँगा, क्योंकि वो कोई ऐसे वैसे कलाकार नहीं थे, वो भारत के सर्वश्रेष्ठ संगीतकार थे। और उनसे वो सब सवाल नहीं पूछ सकते थे जो किसी भी आम इंटरव्यु में एक जर्नलिस्ट कलाकार को पूछते हैं। मुझे ऐसे सवाल पूछने थे जो उनके बारे में भी ना हो लेकिन उनका साहित्य और संगीत पे जो आधिपत्य है, जो महारथ उन्हें हासिल है, वो सब दुनिया के सामने रख सकूँ। जो विराट दर्शन मुझे हो रहा था, मैं चाहता था कि वही दर्शन लोगों को भी इस कार्यक्रम के ज़रिए हो। और एक बात यह भी थी कि अनिल दा बहुत सालों के बाद रेडियो में आ रहे थे। न जाने उनको मुझ पर इतना भरोसा कैसे हो गया था, यह बात मुझे समझ में नहीं आ रही थी। ख़ैर, छाया जी का प्लान था कि यह शृंखला तीन से सात एपिसोड्स में पूरी हो जाए।
सुजॊय - लेकिन यह शृंखला तो २६ एपिसोड्स की थी न?
तुषार - हाँ। तो मैं सोच में पड़ गया कि किस तरह से इंटरव्यु के मामले को आगे बढ़ाया जाये। कौन कौन से विषय चुने जायें, मैंने अनिल दा से पूछा। उन्होंने कहा कि कल आ जाओ। शाम को जब मैं और छाया जी उनके घर गये, तो दादा बहुत ही एक्साइटेड थे। उन्होंने एक लिस्ट बनाई थी संगीतकारों की। बड़े उत्साह से वो कहने लगे कि मैं आर. सी. बोराल साहब से शुरु करूँगा, फिर पंकज मल्लिक साहब से आगे बढ़ाऊँगा, वगेरह वगेरह। मैं और छाया जी एक दूसरे की तरफ़ देखने लगे कि तीन कड़ियों की यह शृंखला तो दादा पर है, पर वो तो दूसरे संगीतकारों की बातें किए जा रहे हैं। आप देखिए, उस वक़्त उनकी उम्र ८५ वर्ष थी, फिर भी कितना जोश था उनमें। फिर पूछने लगे, और लिखते गये, सहगल साहब, कानन देवी....। पूछा कि हम पंकज बाबू के कौन से गानें बजाएँगे? शुरुआत तो "मैं जानू क्या जादू है" से ही करूँगा, फिर 'डॊक्टर' फ़िल्म का "गुज़र गया वो ज़माना" आएगा, और फिर मुझसे पूछा कि पंकज दा का और कौन सा गीत रखें। मैंने कहा कि कविगुरु रबीन्द्रनाथ की कविता, पंकज दा की बनाई हुई धुन पे, "दिनेर शेषे घूमेर देशे"। मैं क्या बताऊँ, काश उस वक़्त मेरे पास कैमरा होता, उनके चेहरे पर जो एक्स्प्रेशन आया! बोल पड़े, "लाजवाब! इससे अच्छा तो कुछ हो ही नहीं सकता"। दादा "दिनेर शेषे घूमेर देशे" को गुनगुनाना शुरु किया और धीरे धीरे उनकी आँखें भरने लगीं, और आँसू बहने लगे। मैं और छाया जी बहुत चिंतित हो गये कि इतने भावावेश में कहीं उनकी तबीयत ख़राब ना हो जाये। शाम के ६:३० बज रहे थे, जाड़े का मौसम था। वो रोते गये और गाते गये। मीना दीदी ने दादा को आगे गाने से मना किया। लेकिन अनिल दा ने कहा कि नहीं मैं गाऊँगा, ज़रूर गाऊँगा। वो कहाँ सुनने वाले थे। मीना दी के रोकने के बावजूद अनिल दा ने गाना बंद नहीं किया और मुझसे अंतरे के शब्द पूछे। मैंने कहा, "दादा, रहने दीजिए आज।" कहने लगे, "तू अंतरा बता"। मैंने कहा, "घौरे जारा जाबार तारा कौखोन गैछे घौर पाने...." कहने लगे, "ये तो मेरी ज़िंदगी की कहानी है; क्या अनिल बिस्वास नाम का प्राणी ऐसी धुन बना पाएगा? कदापि नहीं।" उन्होंने इतना ईमोशनल होकर गाया कि क्या बताऊँ। ज़रा सोचिये कि क्या आलम होगा वह, रबीन्द्रनाथ की कविता, पंकज बाबू की धुन, गाने वाले अनिल दा, और शब्द पूछे जा रहे थे तुषार भाटिया से, और सुनने वालों में मीना दी और छाया जी, यानी दो सशक्त गायिकाएँ। यह सोच कर ही जैसे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। ख़ैर, आधा घंटा लगा उनको स्वस्थ होने में। छाया जी और मैं सोचने लगे कि यह सीरीज़ दादा पर है लेकिन वो तो अपने बारे में कुछ कह ही नहीं रहे हैं, ना ही अपने गीतों के बारे में। मैंने हिम्मत करके दादा से पूछा, "दादा, आपके कौन से गानें लें? तो कहने लगे, "मेरे गानों के बारे में मैं क्या बोलूँ, तू ही बोल, तू ही सोच"। तभी मैंने सोच लिया कि मुझे ऐसे सवाल पूछने पड़ेंगे कि जिनमें अनिल बिस्वास नाम के महासागर में छिपा हुआ सर्वश्रेष्ठ संगीतकार, विद्वान, काव्यरसिक तथा संगीत-गुरु लोगों को नज़र आ सके।
सुजॊय - वाह!
तुषार जी - आर. सी. बोराल साहब से लेकर आर. डी. बर्मन तक उन्होंने एक लिस्ट बनाई थी जिन पर वो बोलना चाहते थे; लेकिन गीतो के चयन की ज़िम्मेदारी उन्होंने मेरे सर पे डाल दी। और उसी शाम को हम बैठ कर गानें सीलेक्ट किए। ये तो थे पहले के १३ एपिसोड्स जो दूसरे संगीतकारों के बारे में थे। ये तो तैयार हो गए। उसी दिन मैंने सोच लिया था कि आर. सी. बोराल, पंकज मल्लिक, कमल दासगुप्ता, खेमचंद प्रकाश और नौशाद पे पूरा पूरा एपिसोड होगा, बाक़ी सब के दो दो कम्बाइन करेंगे, और कम्बिनेशन भी ठीक ठीक बन रहे थे। ये तो थी दूसरों की बातें, मैं तो सोचने लगा कि अब दादा का संगीत कैसे पेश किया जाए! ये सोचते रात बीत गई कि सीरीज़ का स्ट्रक्चर कैसा रखूँ!यह एक बहुत बड़ी चैलेंज थी। आप शायद यकीन नहीं करेंगे कि कुछ भी प्री-प्लैन्ड नहीं था, सबकुछ बिलकुल स्पॊण्टेनियसली हुआ। अलग अलग विषयों पर उनसे सवाल पूछा; संगीत के अलग अलग प्रकार, शास्त्रीय संगीत, लोक संगीत, जिनके माध्यम से दादा की सोच को बाहर निकालने की कोशिश करता रहा। हर विधा की चर्चा के बाद उसी विधा में दादा का बनाया हुआ गीत पेश करता था। कुछ बातें ज़रूर रह गईं जैसे कि बंदिश की ठुमरी के बारे में चर्चा। मैंने छाया जी से यह कहा भी था कि दादा से पूरी बातचीत रेकॊर्ड कर लेते हैं क्योंकि ऐसा मौक़ा बार बार नहीं आयेगा, बाद में एडिटिंग में बैठेंगे तो सबकुछ देखा जाएगा। और छाया जी भी इसी मत से सहमत थीं।
सुजॊय - अच्छा तुषार जी, कितने दिनों में रेकॊडिंग् पूरी हुई थी?
तुषार जी - बस दो ही दिनों में, एक दिन चार घण्टे और एक दिन ६-७ घण्टे। लेकिन पूरी एडिटिंग् में ४ महीने लग गये। कई जगहों पर बाद में मैंने डब भी किया, जैसे कि सॊंग् डिटैल्स, और कुछ कुछ चीज़ें जो इंटरव्यु के दौरान बतानी रह गयी थी। संगीत और साहित्य विषयक चरचाएँ काफ़ी हमें काट देनी पड़ी क्योंकि समय की पाबंदी थी। रेकॊर्डिंग् के दौरान दादा में इतना जोश था कि वो रुकते ही नहीं थे, हमने बस एक आध ब्रेक ही लिया चाय पीने के लिए। इस इंटरव्यू में मैंने पन्ना बाबू वाले प्रोग्राम जैसी भाषा का इस्तमाल नहीं किया जो पढ़के बोलना था। इसमें तो कुछ भी तय नहीं था। और दादा ने मुझसे कुछ भी नहीं पूछा कि तुम क्या क्या पूछोगे। दादा इंटरव्यु के दौरान ख़ुद तो गाते ही थे, मुझे भी गाने को कहते थे।
चित्र-३: विविध भारती के स्टुडियो में 'रसिकेशु' की रेकॊर्डिंग् करते हुए अनिल बिस्वास, मीना कपूर और तुषार भाटिया (सौजन्य: तुषार भाटिया)
सुजॊय - अच्छा एक बात बताइए तुषार जी, यह जो शीर्षक है 'रसिकेशु', क्या यह छाया जी या आप का सोचा हुआ था?
तुषार जी - बिल्कुल नहीं, यह शीर्षक भी दादा का ही दिया हुआ था, जिसका अर्थ भी उन्होंने बताया था; 'रसिकेशु' यानी रसिकों को समर्पित।
सुजॊय - वाह, क्या बात है! अच्छा, इस शृंखला में कुछ एपिसोड्स के बाद से मीना कपूर जी को भी शामिल किया गया था। यह किस तरह से हुआ? क्या यह प्री-प्लैन्ड था या यह भी अकस्मात? कहीं ऐसा तो नहीं कि जिन दो दिनों में रेकॊर्डिंग् हुई थी, उनमें दूसरे दिन मीना जी भी साथ आईं होंगी?
तुषार जी - नहीं, मीना दी हमेशा दादा के साथ ही रहती थीं और दोनों दिन वो भी स्टुडियो में तशरीफ़ लायी थीं। मीना दी बहुत ही इंट्रोवर्ट हैं, शाइ हैं। हम लोगों ने उनसे निवेदन किया कि आप भी बातचीत में शामिल हो जाइए। आपने देखा होगा कि उनके इस बातचीत में शामिल हो जाने से पूरी शृंखला में एक अलग रंग आ गया।
सुजॊय - जी हाँ!
तुषार जी - दीदी के आने से ऐसी बहुत सारी बातें थीं जो मैं ईज़ीली कर सकता था क्योंकि दादा और दीदी, दोनों ही गा गा के, जो भी विषय होता था, उदाहरण देते थे। दोनों के कुशाग्रता की जितनी भी तारीफ़ की जाये कम है। किसी भी विषय पर उनसे दिलचस्प चर्चा हो सकती थी। और हर विषय में उनके पास उदाहरण देने के लिए गानें मौजूद होते थे। दादा के साथ इतने वर्षों की जो औपचारिकता थी, उन्होंने ख़त्म कर दी। इस शृंखला के ज़रिए मैं उनके और भी बहुत करीब आ गया। इस तरह से 'रसिकेशु' पूरी हुई और जब इसका ब्रॊडकास्ट शुरु होने ही वाला था, उसके पिछले दिन मेरा बहुत बड़ा ऒपरेशन था। और दूसरे दिन से मैं रोज़ सुबह अस्पताल में पड़े पड़े 'रसिकेशु' सुना करता था।
सुजॊय - इस शृंखला के प्रसारण को अनिल दा और मीना दी ने भी रेडियो पर सुना होगा। क्या उन्होंने अपनी कोई प्रतिक्रिया व्यक्त की?
तुषार जी - मुझे उनका लिखा हुआ एक लेटर आया, जिसमें लिखा हुआ था - "MY DEAR PAGLA, YOUR DIDI SAYS THAT THE EDITING IS PERFECT."
सुजॊय - वाह! मीना जी के नाम से उन्होंने ही आपकी तारीफ़ की।
तुषार जी - जी हाँ, यही तो उनकी खासियत थी जो दूसरों में मैंने नहीं देखा। और जब 'रसिकेशु' ब्रॊडकास्ट हुई, तब मुझे भी और रेडियो स्टेशन को भी बहुत सारे लेटर्स आये दुनिया भर से, अमेरिका से, कनाडा से, कई लोगों ने लिखा कि उन्होंने इसे रेकॊर्ड कर अपने पास रखा हुआ है। मुझे इस बात की ख़ुशी हुई कि सब जगह अनिल दा की इस शृंखला के चर्चे होने लगे। और इसके बाद दादा टीवी पर भी आना शुरु हो गए। लोगों को उनके बारे में जानकारी हो गई कि वो कहाँ हैं। गजेन्द्र सिंह जी ने मुझसे दादा का फ़ोन नंबर लेकर उन्हें 'सा रे गा मा' में निमंत्रण दिया। इस बात का गर्व है मुझे कि 'रसिकेशु' करने का मौका मिला और मेरे जीवन की एक बहुत ही अविस्मरणीय घटना है। इसके लिए मैं छाया गांगुली जी को और विविध भारती को जितना धन्यवाद दूँ, कम है। लोगों को यह शृंखला पसंद आई और हर साल यह ब्रॊडकास्ट होती चली आ रही है पिछले १३ सालों से, और यह हमारी सफलता का ही चिन्ह है, इसका मुझे आनंद है।
सुजॊय - तुषार जी, आपका मैं किन शब्दों में शुक्रिया अदा करूँ समझ नहीं आ रहा है; जिस विस्तार से और प्यार से आपने अनिल दा के बारे में हमें बताया, 'रसिकेशु' के बारे में बताया, हमें यकीन है कि हमारे पाठकों को यह बातचीत बहुत पसंद आई होगी। वैसे आप से अभी और भी बहुत सारी बातें करनी है, राय बाबू के बारे में, पंकज बाबू के बारे में, नौशाद साहब के बारे में, नय्यर साहब के बारे में, रोशन साहब, सलिल दा, इन सभी के बारे में, और आपकी फ़िल्म 'अंदाज़ अपना अपना' के बारे में भी। हम फिर किसी दिन आपसे एक और लम्बी बातचीत करेंगे। एक बार फिर आपका बहुत बहुत धन्यवाद!
तुषार जी - बहुत बहुत धन्यवाद!
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तो दोस्तों, यह था इस सप्ताह का 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष', अगले सप्ताह फिर किसी ख़ास प्रस्तुति के साथ हम वापस आयेंगे। और 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नियमित कड़ी में फिर आपसे मुलाक़ात होगी कल शाम ६:३० बजे, जिसमें एक नई लघु शृंखला का आग़ाज़ होगा गुज़रे ज़माने की एक बेहद मशहूर सिंगिंग् स्टार को स्मार्पित। आज की इस प्रस्तुति के बारे में आप अपनी राय हमें नीचे टिप्पणी में या ईमेल के द्वारा oig@hindyugm.com के पते पर ज़रूर लिख भेजिएगा, हमें इंतज़ार रहेगा। तो अब आज के लिए अनुमति दीजिए, नमस्कार!
नोट- अंतिम चित्र में तुषार जी अनिल दा और मीना जी के साथ रसिकेशु की रिकॉर्डिंग करते हुए दिख रहे हैं
Comments
अनिल दा वास्तव में महान संगीतकार थे.
मुझे अफ़सोस है कि मैंने रसिकेशु श्रृंखला नहीं सुनी. पर टीवी पर अनिल दा के कुछ इंटरव्यू देखे/सुने हैं.
श्यामल भाटिया जी की तरह मुझे भी मीना दीदी का 'कुछ और ज़माना कहता है' बहुत पसंद है और जब भी सुनता हूँ सचमुच रोंगटे खड़े हो जाते हैं.
बहुत बहुत धन्यवाद.
अवध लाल
आपकी मेहनत की जितनी दाद दी जाए, कम होगी। आपने तुषार जी से हमारी मुलाकात करवाई और फिर आप दोनों ने मिलकर अनिल दा से हमारा जो परिचय करवाया, उसके लिए आपकी किन शब्दों में तारीफ़ करूँ।
अनिल दा के बारे में मैं पहले न के बराबर जानता था और उनके गाने भी लगभग नहीं हीं सुने थे। अब इसे मेरी बदकिस्मती हीं कहिए, लेकिन आपके कारण आज सभी गानों का मैंने रसास्वादन किया और जाना कि संगीत की ऊँचाई नापी नहीं जा सकती, जिस पल हीं आपको लगता है कि इस संगीतकार से ज्यादा कोई जानता नहीं होगा तभी एक और संगीतकार हमारे रूबरू होते हैं।
मुझे गुमान हो रहा है कि मैं उस आवाज़ का एक छोटा हिस्सा हूँ जहाँ आप और सजीव जी जैसे जानकार मौजूद हैं।
धन्यवाद,
विश्व दीपक