तुम्हें हो न हो मुझको तो इतना यकीं है....रुना लैला की आवाज़ में गुलज़ार -जयदेव का रचा एक चुलबुला गीत
ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 373/2010/73
'१० गीत समानांतर सिनेमा के' लघु शृंखला के लिए आज हमने जिस गीत का चुनाव किया है, वह केवल फ़िल्म की दृष्टि से ही लीग से बाहर नहीं है, बल्कि इस गीत को जिस गायिका ने गाया है, वो भी हिंदी फ़िल्मी गीतों में बहुत कम सुनाई दी हैं। आज ज़िक्र गायिका रुना लैला की, और रुना जी की याद आते ही सब से पहले ज़हन में जो चुनिंदा गीत आ जाते हैं वे हैं "फुलोरी बिना चटनी कैसे बनी", "मेरा बाबू छैल छबीला मैं तो नाचूँगी", "दे दे प्यार दे", "दो दीवानें शहर में" और "तुम्हे हो ना हो मुझको तो इतना यक़ीं है"। जी हाँ, यही आख़िरी गीत आज हम सुनने ज रहे हैं। १९७७ की फ़िल्म 'घरोंदा' का यह गीत है। ७० के दशक से इस तरह की 'पैरलेल सिनेमा' या समानांतर सिनेमा मज़बूती पकड़ रही थी, जिनमें आम जनता के जीवन से जुड़ी सामाजिक मुद्दों को उठाया जाने लगा। समाज की सच्चाइयों पर से पर्दा उठाया जाने लगा। 'घरोंदा' एक ऐसी ही हक़ीक़त दर्शाने वाली फ़िल्म थी एक जोड़े की जो बम्बई में अपना फ़्लैट ख़रीदने के सपने देखा करते हैं। लेकिन उन्हे किन किन खट्टे-मीठे पड़ावों से गुज़रनी पड़ती है, वही सब इस फ़िल्म में दिखाया गया है। फ़िल्म में जयदेव जी का उम्दा संगीत था और गानें लिखे गुलज़ार साहब ने। भुपेन्द्र और रुना लैला की आवाज़ें थीं। रुना जी की आवाज़ एक ताज़े हवा के झोंके की तरह इस फ़िल्म में आई। ज़रीना वहाब पर फ़िल्माए गए इस फ़िल्म के गानें लोगों को ख़ूब पसंद आए। इस गीत के बोल भी लीग से हट के ही है क्यों कि इसमें प्यार का इक़रार बड़े ही अनोखे तरीक़े से हो रहा है कि "तुम्हे हो ना हो मुझको तो इतना यक़ीं है, मुझे प्यार तुमसे नहीं है नहीं है"। आगे नायिका गाती हैं कि "मुझे प्यार तुमसे नहीं है नहीं है, मगर मैंने ये राज़ अब तक न जाना, कि क्यों प्यारी लगती हैं बातें तुम्हारी, मैं क्यों तुमसे मिलने का ढूंढू बहाना, कभी मैंने चाहा तुम्हे छू के देखूँ, कभी मैंने चाहा तुम्हे पास लाना, मगर फिर भी इस बात का तो यक़ीं है मुझे प्यार तुमसे नहीं है"। देखा आपने, किस तरह की ख़ूबसूरती से गुलज़ार साहब ने शब्द पिरोये हैं. किस तरह के विरोधाभास के ज़रिए नायिका के दिल के भावों को उभारा है! यही सब बातें तो गुलज़ार साहब को दूसरे गीतकारो से अलग करती हैं।
आज रुना लैला की कुछ बातें की जाए। बंगलादेश के सील्हेट में जन्मीं रुना लैला के संगीत की शुरुआती तालीम पाक़िस्तान के कराची में हुई थी क्योंकि उनका परिवार वहाँ स्थानांतरीत हो गया था। उस्ताद क़ादर, जो बाद में पिया रंग के नाम से जाने गए, उनके गुरु थे। रुना लैला ने छोटी उम्र से शास्त्रीय संगीत की तालीम लेनी शुरु कर दी थी और उस्ताद हबीबुद्दिन ख़ान साहब से इस विधा की बारिक़ियाँ सीखीं। ६ साल की उम्र में रुना जी ने अपना पब्लिक परफ़ॊर्मैंस दिया और १२ साल की उम्र में एक पाक़िस्तानी फ़िल्म 'जुगनु' में अपना पहला गाना रिकार्ड करवाया। रुना लैला का गायिका बनना एक हादसा ही था। उनकी ब़ई बहन दीना को पहले ब्रेक मिला था, लेकिन परफ़ॊर्मैंस के दिन उनका गला ख़राब हो गया और रुना को उनकी जगह पर गवाने का निर्णय लिया गया। उस समय रुना इतनी छोटी थी कि उनसे तानपुरा भी संभाला नहीं जा रहा था। तानपुरे को सीधे ज़मीन पर रख कर उन्होने एक ख़याल प्रस्तुत किया था। उसके बाद रुना कराची टीवी के 'ज़िआ मोहिउद्दिन शो' में दिखाई दीं और उसके बाद बहुत सारी पाक़िस्तानी फ़िल्मों में गानें गाईँ ७० के दशक में। बड़ी बहन दीना रुना की तरह गायिका बनना चाहती थीं लेकिन शादी के बाद सब कुछ छोड़ना पड़ा। कर्कट रोग से दीना की मृत्यु हो जाने के बाद उनकी याद में रुना ने बंगलादेश में ६ कॊनसर्ट्स आयोजित किए और उससे प्राप्त धनराशी को ढाका के एक बच्चों के अस्पताल में कैन्सर वार्ड बनवाने के लिए डोनेट कर दिया। जहाँ तक फ़िल्मी गीतों का सवाल है, जिन पाक़िस्तानी फ़िल्मों में उनके गानें मशहूर हुए वे हैं 'कमांडर', 'फिर सुबह होगी', 'हम दोनों', 'अंजुमन', 'मन की जीत', 'अहसास' और 'दिलरुबा'। यहाँ भारत में 'घरोंदा', 'एक से बढ़कर एक', 'यादगार', 'अग्निपथ', 'घरद्वार' और 'शराबी' जैसी फ़िल्मों में उनके गाए गानें बेहद लोकप्रिय हुए। चलिए दोस्तों, अब आज का गीत सुना जाए। यह एक ऐसा गीत है जिसे बार बार सुनने पर भी बोरीयत नहीं होती। जो ख़ास बातें है इस गीत में आप ख़ुद ही सुनते हुए महसूस कीजिए, और पता लग जाए तो हमें भी बताइएगा।
क्या आप जानते हैं...
कि युं तो रुना लैला ने बंगलादेश और पाक़िस्तान में बहुत से पुरस्कार जीते, लेकिन भारत में उनको 'सहगल अवार्ड' से सम्मानित किया गया था।
चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-
1. गीत में एक शब्द है -"निशिगंधा", जो शायद इसी गीत में पहली और आखिरी बार इस्तेमाल हुआ है, गीत पहचानें-३ अंक.
2. व्यवसायिक सिनेमा के सबसे सफल संगीतकारों में से एक ने इस लीक से हट कर बनी फिल्म में शानदार संगीत दिया, बताएं इस जोड़ी का नाम- २ अंक.
3. इस फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ गीतकार का पुरस्कार पाने वाले गीतकार का नाम बताएं-२ अंक.
4. ये गीत इस गायक ने गाया है -२ अंक.
विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।
पिछली पहेली का परिणाम-
बस दो ही जवाब ????, इंदु जी और पदम जी को बधाई
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी
'१० गीत समानांतर सिनेमा के' लघु शृंखला के लिए आज हमने जिस गीत का चुनाव किया है, वह केवल फ़िल्म की दृष्टि से ही लीग से बाहर नहीं है, बल्कि इस गीत को जिस गायिका ने गाया है, वो भी हिंदी फ़िल्मी गीतों में बहुत कम सुनाई दी हैं। आज ज़िक्र गायिका रुना लैला की, और रुना जी की याद आते ही सब से पहले ज़हन में जो चुनिंदा गीत आ जाते हैं वे हैं "फुलोरी बिना चटनी कैसे बनी", "मेरा बाबू छैल छबीला मैं तो नाचूँगी", "दे दे प्यार दे", "दो दीवानें शहर में" और "तुम्हे हो ना हो मुझको तो इतना यक़ीं है"। जी हाँ, यही आख़िरी गीत आज हम सुनने ज रहे हैं। १९७७ की फ़िल्म 'घरोंदा' का यह गीत है। ७० के दशक से इस तरह की 'पैरलेल सिनेमा' या समानांतर सिनेमा मज़बूती पकड़ रही थी, जिनमें आम जनता के जीवन से जुड़ी सामाजिक मुद्दों को उठाया जाने लगा। समाज की सच्चाइयों पर से पर्दा उठाया जाने लगा। 'घरोंदा' एक ऐसी ही हक़ीक़त दर्शाने वाली फ़िल्म थी एक जोड़े की जो बम्बई में अपना फ़्लैट ख़रीदने के सपने देखा करते हैं। लेकिन उन्हे किन किन खट्टे-मीठे पड़ावों से गुज़रनी पड़ती है, वही सब इस फ़िल्म में दिखाया गया है। फ़िल्म में जयदेव जी का उम्दा संगीत था और गानें लिखे गुलज़ार साहब ने। भुपेन्द्र और रुना लैला की आवाज़ें थीं। रुना जी की आवाज़ एक ताज़े हवा के झोंके की तरह इस फ़िल्म में आई। ज़रीना वहाब पर फ़िल्माए गए इस फ़िल्म के गानें लोगों को ख़ूब पसंद आए। इस गीत के बोल भी लीग से हट के ही है क्यों कि इसमें प्यार का इक़रार बड़े ही अनोखे तरीक़े से हो रहा है कि "तुम्हे हो ना हो मुझको तो इतना यक़ीं है, मुझे प्यार तुमसे नहीं है नहीं है"। आगे नायिका गाती हैं कि "मुझे प्यार तुमसे नहीं है नहीं है, मगर मैंने ये राज़ अब तक न जाना, कि क्यों प्यारी लगती हैं बातें तुम्हारी, मैं क्यों तुमसे मिलने का ढूंढू बहाना, कभी मैंने चाहा तुम्हे छू के देखूँ, कभी मैंने चाहा तुम्हे पास लाना, मगर फिर भी इस बात का तो यक़ीं है मुझे प्यार तुमसे नहीं है"। देखा आपने, किस तरह की ख़ूबसूरती से गुलज़ार साहब ने शब्द पिरोये हैं. किस तरह के विरोधाभास के ज़रिए नायिका के दिल के भावों को उभारा है! यही सब बातें तो गुलज़ार साहब को दूसरे गीतकारो से अलग करती हैं।
आज रुना लैला की कुछ बातें की जाए। बंगलादेश के सील्हेट में जन्मीं रुना लैला के संगीत की शुरुआती तालीम पाक़िस्तान के कराची में हुई थी क्योंकि उनका परिवार वहाँ स्थानांतरीत हो गया था। उस्ताद क़ादर, जो बाद में पिया रंग के नाम से जाने गए, उनके गुरु थे। रुना लैला ने छोटी उम्र से शास्त्रीय संगीत की तालीम लेनी शुरु कर दी थी और उस्ताद हबीबुद्दिन ख़ान साहब से इस विधा की बारिक़ियाँ सीखीं। ६ साल की उम्र में रुना जी ने अपना पब्लिक परफ़ॊर्मैंस दिया और १२ साल की उम्र में एक पाक़िस्तानी फ़िल्म 'जुगनु' में अपना पहला गाना रिकार्ड करवाया। रुना लैला का गायिका बनना एक हादसा ही था। उनकी ब़ई बहन दीना को पहले ब्रेक मिला था, लेकिन परफ़ॊर्मैंस के दिन उनका गला ख़राब हो गया और रुना को उनकी जगह पर गवाने का निर्णय लिया गया। उस समय रुना इतनी छोटी थी कि उनसे तानपुरा भी संभाला नहीं जा रहा था। तानपुरे को सीधे ज़मीन पर रख कर उन्होने एक ख़याल प्रस्तुत किया था। उसके बाद रुना कराची टीवी के 'ज़िआ मोहिउद्दिन शो' में दिखाई दीं और उसके बाद बहुत सारी पाक़िस्तानी फ़िल्मों में गानें गाईँ ७० के दशक में। बड़ी बहन दीना रुना की तरह गायिका बनना चाहती थीं लेकिन शादी के बाद सब कुछ छोड़ना पड़ा। कर्कट रोग से दीना की मृत्यु हो जाने के बाद उनकी याद में रुना ने बंगलादेश में ६ कॊनसर्ट्स आयोजित किए और उससे प्राप्त धनराशी को ढाका के एक बच्चों के अस्पताल में कैन्सर वार्ड बनवाने के लिए डोनेट कर दिया। जहाँ तक फ़िल्मी गीतों का सवाल है, जिन पाक़िस्तानी फ़िल्मों में उनके गानें मशहूर हुए वे हैं 'कमांडर', 'फिर सुबह होगी', 'हम दोनों', 'अंजुमन', 'मन की जीत', 'अहसास' और 'दिलरुबा'। यहाँ भारत में 'घरोंदा', 'एक से बढ़कर एक', 'यादगार', 'अग्निपथ', 'घरद्वार' और 'शराबी' जैसी फ़िल्मों में उनके गाए गानें बेहद लोकप्रिय हुए। चलिए दोस्तों, अब आज का गीत सुना जाए। यह एक ऐसा गीत है जिसे बार बार सुनने पर भी बोरीयत नहीं होती। जो ख़ास बातें है इस गीत में आप ख़ुद ही सुनते हुए महसूस कीजिए, और पता लग जाए तो हमें भी बताइएगा।
क्या आप जानते हैं...
कि युं तो रुना लैला ने बंगलादेश और पाक़िस्तान में बहुत से पुरस्कार जीते, लेकिन भारत में उनको 'सहगल अवार्ड' से सम्मानित किया गया था।
चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-
1. गीत में एक शब्द है -"निशिगंधा", जो शायद इसी गीत में पहली और आखिरी बार इस्तेमाल हुआ है, गीत पहचानें-३ अंक.
2. व्यवसायिक सिनेमा के सबसे सफल संगीतकारों में से एक ने इस लीक से हट कर बनी फिल्म में शानदार संगीत दिया, बताएं इस जोड़ी का नाम- २ अंक.
3. इस फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ गीतकार का पुरस्कार पाने वाले गीतकार का नाम बताएं-२ अंक.
4. ये गीत इस गायक ने गाया है -२ अंक.
विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।
पिछली पहेली का परिणाम-
बस दो ही जवाब ????, इंदु जी और पदम जी को बधाई
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
Comments
अनुपम गोयल
both were wel known music director of hindi films.
I am sorry for the Sharaabi song. I always thought all 3 versions (Asha, Kishore & Runa) are part of this film.
Regarding Agnipath, there is one song "alibaba mil gaye" by Runa Laila & Aadesh Shrivastava.
In Ghar Dwar, Runa Laila sang "o mera babu chhail chhabila main to naachoongi" (picturized on Shoma Anand).
Regards,
Sujoy