ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 264
बच्चों पर जब फ़िल्म बनाने या गीत लिखने की बात आती है तो गुलज़ार साहब का नाम बहुत उपर आता है। बच्चों के किरदारों या गीतों को वो इस तरह का ट्रीटमेंट देते हैं कि वो फ़िल्में और वो गानें कालजयी बन कर रह जाते हैं। फिर चाहे वह 'परिचय' हो या 'किताब', या फिर १९८३ की फ़िल्म 'मासूम'। हर फ़िल्म में उन्होने बच्चों के किरदारों को बहुत ही समझकर, बहुत ही नैचरल तरीके से प्रस्तुत किया है। बड़े फ़िल्मकार की यही तो निशानी है कि किस तरह से छोटे से छोटे बच्चो से उनका बेस्ट निकाल लिया जाए! आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर हम ज़िक्र करेंगे एक ऐसी ही फ़िल्म का जिसका निर्माण किया था प्राणलाल मेहता और गुलज़ार ने। पटकथा, निर्देशन और गीत गुलज़ार साहब के थे और संगीत था राहुल देव बर्मन का। जी हाँ, यह फ़िल्म थी 'किताब'। मुख्य भुमिकाओं में थे उत्तम कुमार, विद्या सिंहा, श्रीराम लागू, केष्टो मुखर्जी, असीत सेन, और दो नन्हे किरदार - मास्टर राजू और मास्टर टीटो। 'किताब' की कहानी एक बच्चे के मनोभाव पर केन्द्रित थी। बाबला (मास्टर राजू) अपनी माँ (दीना पाठक) के साथ गाँव में रहता है। उसकी माँ उसे अपनी बड़ी बहन (विद्या सिंहा) के पास शहर भेज देती है ताकी वो अच्छे से स्कूल में पढ़ सके। स्कूल में उसकी दोस्ती पप्पू (मास्टर टीटो) से होती है और दोनों साथ मिल कर ख़ूब मस्ती करते हैं, बदमाशियाँ करते हैं। लेकिन जल्द ही उसके जीजाजी उस पर बहुत नाराज़ रहने लगते हैं क्योंकि उसका ध्यान पढ़ाई के अलावा बाकी सभी चीज़ों में होता है। स्कूल से भी जब शिकायतें आने लगती है तो घर में हालात और बिगड़ जाते हैं। एक दिन वो अपने गाँव वापस जाने की ठान लेता है और भाग कर स्टेशन पहुँच जाता है। टिकट ना होने की वजह से टीटी उसे अगले स्टेशन पर उतार देता है। रात का वक़्त था, ठंड से बचने के लिए वो एक बूढ़ी भिखारन के कंबल के अंदर घुस जाता है और उसी के साथ सुबह तक लेटा रहता है। सुबह सुबह वो उस भिखारन के कटोरे से एक सिक्का लेकर पानी की तलाश में निकलता है। पानी पीते हुए वो देखता है कि उस भिखारन की चारों तरफ़ लोगों की भीड़ जमा हो गई है। वापस आकर उसे अहसास होता है कि रात भर वो उस भिखारन के साथ नहीं बल्कि उसकी लाश के साथ लेटा हुआ था। यह सोच कर वो डर जाता है, सिक्का वापस कटोरे में डाल देता है और भाग कर गाँव अपनी माँ के पास चला जाता है। वहाँ जाकर वो कसम खाता है कि वो मन लगाकर पढ़ाई करेगा और कभी किसी को शिकायत का मौका नहीं देगा।
१९७७ की फ़िल्म 'किताब' की कहानी तो हमने आपको बता दी। और अब इस फ़िल्म के जिस गीत को हम आप तक आज पहुँचा रहे हैं वो भरी हुई है बाबला और पप्पू की शैतानियों से। क्लासरूम में मास्टर जी का मज़ाक उड़ाते हुए यह गीत है "अ आ इ ई अ आ इ ई मास्टर जी की आ गई चिट्ठी...."। दोस्तों, इसे गीत न कहकर अगर बच्चों के लिए लिखा हुआ कोई कविता कहें तो बेहतर होगा। इस तरह का गीत तो गुलज़ार साहब ही लिख सकते हैं। क्या नहीं है इस गीत में। कभी चिट्ठी से बिल्ली निकलती है, कभी कछुआ छाप अगरबत्ती का ज़िक्र है तो कभी वी.आइ.पी अंडरवीयर बनीयान। इस तरह का यह एकमात्र गीत है। पद्मिनी कोल्हापुरी और शिवांगी कोल्हापुरी ने यह गीत गाया था। क्योंकि यह गीत स्कूल की कक्षा में छात्र लोग गाते हैं, तो उसे रीयलिस्टिक बनाने के लिए आर. डी. बर्मन ने हक़ीकत में एक टेबल का इस्तेमाल किया था। तो दोस्तों, सुनिए यह गीत और सलाम कीजिए गुलज़ार साहब की क्रीयटिविटी को! :-)
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (अब तक के चार गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी (दो बार), स्वप्न मंजूषा जी, पूर्वी एस जी और पराग सांकला जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-
१. पहेलियों की भरमार है इस गीत में.
२. हसरत साहब हैं गीतकार.
३. इस मशहूर फिल्म का एक गीत जो नादिरा पर फिल्माया गया थे पहले ही ओल्ड इस गोल्ड में बज चुका है.
पिछली पहेली का परिणाम -
दूसरी बार विजेता बनने का गौरव पाया है हमारे प्रिय शरद जी ने ....ढोल नगाडे बजाने का समय है.....जोरदार तालियाँ शरद जी के जबरदस्त संगीत ज्ञान और तुंरत उत्तर देने की क्षमता के लिए......बधाई... बधाई...दिलीप जी अब समय कम रह गया है आप भी जरा कमर कस लीजिये....
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
बच्चों पर जब फ़िल्म बनाने या गीत लिखने की बात आती है तो गुलज़ार साहब का नाम बहुत उपर आता है। बच्चों के किरदारों या गीतों को वो इस तरह का ट्रीटमेंट देते हैं कि वो फ़िल्में और वो गानें कालजयी बन कर रह जाते हैं। फिर चाहे वह 'परिचय' हो या 'किताब', या फिर १९८३ की फ़िल्म 'मासूम'। हर फ़िल्म में उन्होने बच्चों के किरदारों को बहुत ही समझकर, बहुत ही नैचरल तरीके से प्रस्तुत किया है। बड़े फ़िल्मकार की यही तो निशानी है कि किस तरह से छोटे से छोटे बच्चो से उनका बेस्ट निकाल लिया जाए! आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर हम ज़िक्र करेंगे एक ऐसी ही फ़िल्म का जिसका निर्माण किया था प्राणलाल मेहता और गुलज़ार ने। पटकथा, निर्देशन और गीत गुलज़ार साहब के थे और संगीत था राहुल देव बर्मन का। जी हाँ, यह फ़िल्म थी 'किताब'। मुख्य भुमिकाओं में थे उत्तम कुमार, विद्या सिंहा, श्रीराम लागू, केष्टो मुखर्जी, असीत सेन, और दो नन्हे किरदार - मास्टर राजू और मास्टर टीटो। 'किताब' की कहानी एक बच्चे के मनोभाव पर केन्द्रित थी। बाबला (मास्टर राजू) अपनी माँ (दीना पाठक) के साथ गाँव में रहता है। उसकी माँ उसे अपनी बड़ी बहन (विद्या सिंहा) के पास शहर भेज देती है ताकी वो अच्छे से स्कूल में पढ़ सके। स्कूल में उसकी दोस्ती पप्पू (मास्टर टीटो) से होती है और दोनों साथ मिल कर ख़ूब मस्ती करते हैं, बदमाशियाँ करते हैं। लेकिन जल्द ही उसके जीजाजी उस पर बहुत नाराज़ रहने लगते हैं क्योंकि उसका ध्यान पढ़ाई के अलावा बाकी सभी चीज़ों में होता है। स्कूल से भी जब शिकायतें आने लगती है तो घर में हालात और बिगड़ जाते हैं। एक दिन वो अपने गाँव वापस जाने की ठान लेता है और भाग कर स्टेशन पहुँच जाता है। टिकट ना होने की वजह से टीटी उसे अगले स्टेशन पर उतार देता है। रात का वक़्त था, ठंड से बचने के लिए वो एक बूढ़ी भिखारन के कंबल के अंदर घुस जाता है और उसी के साथ सुबह तक लेटा रहता है। सुबह सुबह वो उस भिखारन के कटोरे से एक सिक्का लेकर पानी की तलाश में निकलता है। पानी पीते हुए वो देखता है कि उस भिखारन की चारों तरफ़ लोगों की भीड़ जमा हो गई है। वापस आकर उसे अहसास होता है कि रात भर वो उस भिखारन के साथ नहीं बल्कि उसकी लाश के साथ लेटा हुआ था। यह सोच कर वो डर जाता है, सिक्का वापस कटोरे में डाल देता है और भाग कर गाँव अपनी माँ के पास चला जाता है। वहाँ जाकर वो कसम खाता है कि वो मन लगाकर पढ़ाई करेगा और कभी किसी को शिकायत का मौका नहीं देगा।
१९७७ की फ़िल्म 'किताब' की कहानी तो हमने आपको बता दी। और अब इस फ़िल्म के जिस गीत को हम आप तक आज पहुँचा रहे हैं वो भरी हुई है बाबला और पप्पू की शैतानियों से। क्लासरूम में मास्टर जी का मज़ाक उड़ाते हुए यह गीत है "अ आ इ ई अ आ इ ई मास्टर जी की आ गई चिट्ठी...."। दोस्तों, इसे गीत न कहकर अगर बच्चों के लिए लिखा हुआ कोई कविता कहें तो बेहतर होगा। इस तरह का गीत तो गुलज़ार साहब ही लिख सकते हैं। क्या नहीं है इस गीत में। कभी चिट्ठी से बिल्ली निकलती है, कभी कछुआ छाप अगरबत्ती का ज़िक्र है तो कभी वी.आइ.पी अंडरवीयर बनीयान। इस तरह का यह एकमात्र गीत है। पद्मिनी कोल्हापुरी और शिवांगी कोल्हापुरी ने यह गीत गाया था। क्योंकि यह गीत स्कूल की कक्षा में छात्र लोग गाते हैं, तो उसे रीयलिस्टिक बनाने के लिए आर. डी. बर्मन ने हक़ीकत में एक टेबल का इस्तेमाल किया था। तो दोस्तों, सुनिए यह गीत और सलाम कीजिए गुलज़ार साहब की क्रीयटिविटी को! :-)
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (अब तक के चार गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी (दो बार), स्वप्न मंजूषा जी, पूर्वी एस जी और पराग सांकला जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-
१. पहेलियों की भरमार है इस गीत में.
२. हसरत साहब हैं गीतकार.
३. इस मशहूर फिल्म का एक गीत जो नादिरा पर फिल्माया गया थे पहले ही ओल्ड इस गोल्ड में बज चुका है.
पिछली पहेली का परिणाम -
दूसरी बार विजेता बनने का गौरव पाया है हमारे प्रिय शरद जी ने ....ढोल नगाडे बजाने का समय है.....जोरदार तालियाँ शरद जी के जबरदस्त संगीत ज्ञान और तुंरत उत्तर देने की क्षमता के लिए......बधाई... बधाई...दिलीप जी अब समय कम रह गया है आप भी जरा कमर कस लीजिये....
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
Comments
आज की पहेली तो बहुत सरल है किन्तु अब मैं उसका जवाब किसी दूसरे के ज़िम्मे छोड्ता हूँ ।
ROHIT RAJPUT
saader
rachana