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कि अब ज़िन्दगी में मोहब्बत नहीं है....कैफ़ इरफ़ानी के शब्दों में दिल का हाल कहा मुकेश ने

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #५९

ज की महफ़िल में हम हाज़िर हैं शरद जी की पसंद की दूसरी नज़्म लेकर। इस नज़्म में जिसने आवाज़ दी है, उसके गुजर जाने के बाद बालीवुड के पहले शो-मैन राज कपूर साहब ने कहा था कि "मुकेश के जाने से मेरी आवाज और आत्मा,दोनों चली गई"। जी हाँ, आज की महफ़िल मुकेश साहब यानि कि "मुकेश चंद माथुर" को समर्पित है। यह देखिए कि शरद जी की बदौलत पिछली बार हमें मन्ना दा का एक गीत सुनना नसीब हुआ था और आज संगीत के दूसरे सुरमा मुकेश साहब का साथ हमें मिल रहा है। तो आज हम मुकेश साहब के बारे में, उनके पहले सफ़ल गीत, अनिल विश्वास साहब और नौशाद साहब से उनकी मुलाकात और सबसे बड़ी बात राज कपूर साहब से उनकी मुलाकात के बारे में विस्तार से जानेंगे।(साभार:लाइव हिन्दुस्तान) मुकेश चंद माथुर का जन्म २२ जुलाई १९२३ को दिल्ली में हुआ था। उनके पिता लाला जोरावर चंद माथुर एक इंजीनियर थे और वह चाहते थे कि मुकेश उनके नक्शे कदम पर चलें. लेकिन वह अपने जमाने के प्रसिद्ध गायक अभिनेता कुंदनलाल सहगल के प्रशंसक थे और उन्हीं की तरह गायक अभिनेता बनने का ख्वाब देखा करते थे। लालाजी ने मुकेश की बहन सुंदर प्यारी को संगीत की शिक्षा देने के लिए एक शिक्षक रखा था। जब भी वह उनकी बहन को संगीत सिखाने घर आया करते थे, मुकेश पास के कमरे में बैठकर सुना करते थे और स्कूल में सहगल के अंदाज में गीत गाकर अपने साथियों का मनोरंजन किया करते थे। इस दौरान मशहूर संगीतकार रोशन हारमोनियम पर उनका साथ दिया करते थे। गीत-संगीत में रमे मुकेश ने किसी तरह दसवीं तक पढाई करने के बाद स्कूल छोड दिया और दिल्ली लोक निर्माण विभाग में सहायक सर्वेयर की नौकरी कर ली. जहां उन्होंने सात महीने तक काम किया। इसी दौरान अपनी बहन की शादी में गीत गाते समय उनके दूर के रिश्तेदार मशहूर अभिनेता मोतीलाल ने उनकी आवाज सुनी और प्रभावित होकर वह उन्हें १९४० में बम्बई ले आए और उन्हें अपने साथ रखकर पंडित जगन्नाथ प्रसाद से संगीत सिखाने का भी प्रबंध किया। इसी दौरान खूबसूरत मुकेश को एक हिन्दी फिल्म निर्दोष(१९४१) में अभिनेता बनने का मौका मिल गया, जिसमें उन्होंने अभिनेता-गायक के रूप में संगीतकार अशोक घोष के निर्देशन मेंअपना पहला गीत.दिल ही बुझ हुआ हो तो.भी गाया। इस फिल्म में उनकी नायिका नलिनी जयवंत थीं, जिनके साथ उन्होंने दो युगल गीत भी गाए। यह फिल्म फ्लाप हो गई और मुकेश के अभिनेता-गायक बनने की उम्मीदों को तगडा झटका लगा।

मुकेश का कैरियर जब डगमगाने लगा था, तभी मोतीलाल प्रसिद्ध संगीतकार अनिल विश्वास के पास उन्हें लेकर गए और उनसे अनुरोध किया कि वह अपनी फिल्म में मुकेश से कोई गीत गवाएं। मुकेश को कामयाबी मिली निर्माता मजहर खान की फिल्म पहली नजर(१९४५) के गीत "दिल जलता है तो जलने दे" से जो संयोग से मोतीलाल पर ही फिल्माया गया था। अनिल विश्वास के संगीत निर्देशन में डा.सफदर सीतापुरी की इस गजल को मुकेश ने सहगल की शैली में ऐसी पुरकशिश आवाज में गाया कि लोगों को भ्रम हो जाता था कि इसके गायक सहगल हैं। और तो और खुद सहगल ने भी इस गजल को सुनने के बाद कहा था अजीब बात है। मुझे याद नहीं आता कि मैंने कभी यह गीत गाया है । इसी गीत को सुनने के बाद सहगल ने मुकेश को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। हालांकि इस गीत ने मुकेश को गायक के रूप में पहचान दिलाई लेकिन उन्हें यह कामयाबी इतनी आसानी से नहीं मिली। फिल्म जब रिलीज के लिए तैयार थी तब वितरकों और समालोचकों ने इसे देखने के बाद कहा कि गीत हीरो की छवि पर फिट नहीं बैठता है। उन्होंने इस गीत को फिल्म से हटाने का सुझाव दिया। यह सुनकर मुकेश की आंखों में आंसू आ गए और उन्होंने निर्माता मजहर खान से ही कोई सुझाव देने का अनुरोध किया। इस पर मजहर खान ने कहा कि यह गीत सिर्फ पहले शो के लिए फिल्म में रखा जाएगा। इस बारे अंतिम निर्णय दर्शकों की प्रतिक्रिया देखने के बाद ही लिया जाएगा। दर्शकों से इस गाने को जब जबरदस्त तारीफ मिली और लोग यह गीत गाते हुए सिनेमाघर से निकलने लगे तब मजहर खान ने कहा मेरी बात याद रखना। एक दिन आएगा जब कोई मेरी फिल्म को याद नहीं रखेगा लेकिन तुम्हारा गीत हमेशा याद रखा जाएगा।
यह बात सच साबित हुई और आज देखिए भले हीं किसी को "पहली नज़र" की जानकारी हो या नहीं हो लेकिन "दिल जलता है तो जलने दे" हर किसी के दिल में जगह बनाए हुए है। और यह भी सच है कि आज ९०% लोग यही सोचते हैं कि इस गाने को खुद सहगल साहब ने गाया था। शायद यही कारण था कि मुकेश साहब अपनी अलग पहचान बनाना चाहते थे। अब इस प्रक्रिया में उनका साथ अनिल विश्वास साहब ने दिया या फिर नौशाद साहब ने, इसमें भयंकर मतभेद है। इसलिए हम दोनों का मत देख लते हैं।

बकौल अनिल विश्वास: मुकेश दूसरा कुंदनलाल सहगल बनने की चाह लिए मेरे पास आया था। उसने सहगल की आवाज में नौशाद का रिकार्ड सुना था, जो शाहजहां फिल्म का गीत "जब दिल ही टूट गया" था। इसलिए मैंने उससे पहली नजर में "दिल जलता है तो जलने दे" सहगल के अंदाज में गवाया। फिर मैंने मुकेश से कहा कि हमने यह बात साबित कर दी है कि हम एक और सहगल बना सकते हैं। पर अब यह साबित करना है कि मुकेश वास्तविक मुकेश है, सहगल की नकल भर नहीं है। मैंने मुकेश को सहगल के रूप में पेश किया और मैंने ही "अनोखा प्यार" में उसकी विशिष्ट आवाज में "जीवन सपना टूट गया" और "अब याद न कर भूल जा ऐ दिल वो फसाना" गवाकर उसे सहगल के प्रभाव से बाहर निकाला।

और नौशाद साहब की यह दलील थी:: मैंने दिलीप कुमार के लिए मेला और अंदाज में मुकेश से पहले-पहल उनकी विशिष्ट शैली में गवाया था। गायक बनने के प्रारंभिक दौर में मुकेश को शराब पीने की बडी हीं बुरी लत थी। एक दिन मैंने उन्हें कारदार स्टूडियो में दिन के समय नशे की हालत में पकड लिया। मैंने उनसे कहा मुकेशचंद तुम "दिल जलता है" से साबित कर चुके हो कि तुम सहगल बन सकते हो लेकिन अब क्या तुम साबित करना चाहते हो कि तुम पीने के मामले में भी सहगल को पछाड सकते हो। यह सुनकर मुकेश की आंखों में आंसू आ गए। मैंने कहा तुम्हारी अपनी अनूठी आवाज है तुम्हें अपनी गायकी को साबित करने के लिए सहगल या किसी दूसरे गायक की आवाज की नकल करने की जरूरत नहीं है।

अब चाहे इस बात का श्रेय जिसे भी मिले, लेकिन यह अच्छा हुआ कि हमें अनोखा एक मुकेश मिल गया जिसकी आवाज़ सुनकर हम आज भी कहीं खो-से जाते हैं, जो दूसरे गायकों को सुनकर कम हीं होता है। वैसे राजकपूर से मुकेश की मुलाकात की कहानी भी बड़ी हीं दिलचस्प है। १९४३ की बात है। उस समय राजकपूर सहायक निर्देशक हुआ करते थे। रंजीत स्टूडियो में जयंत देसाई की फिल्म "बंसरी" के सेट पर एक खूबसूरत नौजवान किन्हीं खयालों में खोया हुआ पियानो पर एक गीत गा रहा था। वहां से गुजर रहे राजकपूर उस गीत को सुनकर कुछ देर के लिए ठिठक गए। पूछने पर पता लगा कि वह युवक मुकेश है। आगे चलकर दोनों के बीच घनिष्ठ मित्रता हो गई और मुकेश आखिरी दम तक राजकपूर की आवाज बने रहे।

चलते-चलते हम मुकेश साहब के बारे में सलिल दा के ख़्यालात जान लेते हैं: जिस क्षण मैंने "सुहाना सफर" की रिकार्डिंग की, उसी समय मैं जान गया था कि मुकेश के स्वर ने "मधुमती" के इस गीत के अल्हड भाव को आत्मसात कर लिया है। मैं "जागते रहो" के "जिंदगी ख्वाब है" और "चार दीवारी" के "कैसे मनाऊं पियवा" को भी इस गीत से कमतर नहीं मानता हूं। बाद के वर्षों में मुकेश ने "आनन्द" के "कहीं दूर जब दिन ढल जाए" में भावनाओं की असीम गहराई को अपने मधुर स्वर से अभिव्यक्ति दी थी। इस गीत को मैं मुकेश के गाए गीतों में सर्वश्रेष्ठ मानता हूं। मुकेश साहब के बारे में कहने को और भी बहुत कुछ है, लेकिन बाकी बातें कभी दूसरे आलेख में करेंगे।

आज की नज़्म के रचनाकार कैफ़ इरफ़ानी साहब के बारे में ज्यादा जानकारी हासिल नहीं हो पाई है। हाँ इतना मालूम हुआ है कि उन्होंने ५०-६० के दशक में बीस से भी ज्यादा फिल्मों में गीत लिखे थे। उनमें से कुछ फिल्मों की फेहरिश्त लगे हाथों पेश किए देता हूँ: आगोश, डाकू की लड़की, धुन, गुल सनोबर, जल तरंग, मल्हार, मिस-५८, नाच, राग-रंग, राजपूत, सरदार, शान, शीशम, शेरू, तराना, तूफ़ान। इन्हीं फिल्मों में से एक "डाकू की लड़की" के एक गीत की कुछ पंक्तियाँ हमारे दिल को छू गई, इसलिए आप सबके सामने उसे लाना लाज़िमी है:

नज़रों से छुप गया है तक़दीर का सवेरा
गिरता है जो भी आँसू लेता है नाम तेरा


दिल में कोई कसक महसूस हुई या नहीं। हुई ना! तो इस कसक को हजार-गुणा करने के लिए दर्द से लबरेज आज की नज़्म पेश-ए-खिदमत है। मुकेश साहब की आवाज़ में छुपी टीस का पान करने के लिए तैयार हो जाईये:

जियेंगे मगर मुस्कुरा ना सकेंगे,
कि अब ज़िन्दगी में मोहब्बत नहीं है
लबों पे ____ अब आ ना सकेंगे,
कि अब ज़िन्दगी में मोहब्बत नहीं है

बहारें चमन में जब आया करेंगी,
नज़ारों की महफ़िल सजाया करेंगी
नज़ारें भी हमको हँसा ना सकेंगे,
कि अब ज़िन्दगी में मोहब्बत नहीं है

जवानी जो लायेगी सावन की रातें,
ज़माना करेगा मोहब्बत की बातें
मगर हम ये सावन मना ना सकेंगे,
कि अब ज़िन्दगी में मोहब्बत नहीं है




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "मुकद्दर" और शेर कुछ यूं था -

ये जानके चुपचाप हैं मेरे मुकद्दर की तरह,
हमने तो इनके सामने खोला था दिल के राज को...

महफ़िल में सबसे पहले हाज़िर हुए शरद कोकास साहब...शरद जी, आपका बहुत-बहुत स्वागत है। यह नज़्म है हीं कुछ ऐसी कि पसंद न आने का सवाल हीं नहीं उठता।

हालांकि महफ़िल की शुरूआत हो चुकी थी, लेकिन महफ़िल की विधिवत शुरूआत (शेर पेश करके) कुलदीप जी ने की। आपने साकी अमरोही साहब का यह शेर पेश किया:

काम आपने मुकद्दर का अँधेरा नहीं होता
सूरज तो निकलता है सवेरा नहीं होता। (साकी साहब के बारे में हमें अंतर्जाल पर कुछ नहीं मिला, आप अगर कुछ जानकारी मुहैया कराएँगे तो अच्छा होगा)

अंजुम साहब के बाद महफ़िल में नज़र आए शामिख जी। ये रहे आपके कुछ शेर:

ज़िन्दगी का मुक़द्दर सफ़र दर सफ़र
आख़िरी साँस तक बेक़रार आदमी (निदा फ़ाज़ली)

हाथ में जाम जहाँ आया मुक़द्दर चमका
सब बदल जायेगा क़िस्मत का लिखा, जाम उठा (बशीर बद्र)

रेखाओं का खेल है मुक़द्दर
रेखाओं से मात खा रहे हो (कैफ़ी आज़मी)

राज जी, आपके जैसे अगर कला के कद्रदान हों तो कोई खुद को अकेला कैसे महसूस कर सकता है। हौसला-आफ़ज़ाई के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया। आप इसी तरह महफ़िल में आते रहें और महफ़िल में चार चाँद लगाते रहें,यही आरजू है हमारी।

मंजु जी, क्या बात है!! वाह, बहुत उम्दा स्वरचित कहा है आपने:

मुकद्दर ने ही संघषों की अमावस्या - सी काली रात को ,
दीये की रोशनी की तरह जीवन में उजाला भर दिया है।

सीमा जी, देर हुई- कोई बात नहीं। शेर कहने से नहीं चूके आप, यह देखकर अच्छा लगा। यह रही आपकी पेशकश:

पेशानियों पे लिखे मुक़द्दर नहीं मिले,
दस्तार कहाँ मिलेंगे जहाँ सर नहीं मिले (राहत इन्दौरी)

क़फ़स में खींच ले जाये मुक़द्दर या नशेमन में।
हमें परवाज़ से मतलब है, चलती हो हवा कोई॥ (सीमाब अकबराबादी)

वाणी जी, आपको नज़्म पसंद आई, इसके लिए एक हीं आदमी हैं, जिनका शुक्रिया अदा करना चाहिए - शरद जी। लेकिन यह देखिए महफ़िल जिसके कारण मुमकिन हो पाई, वही नदारद हैं। कहाँ हैं शरद जी????

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Comments

Shamikh Faraz said…
सही लफ्ज़
"तराने"
Shamikh Faraz said…
एक मैं क्या अभी आयेंगे दीवाने कितने
अभी गूंजेगे मुहब्बत के तराने कितने
ज़िन्दगी तुमको सुनायेगी फ़साने कितने
क्यूं समझती हो मुझे भूल नही पाओगी (जावेद अख्तर)
Shamikh Faraz said…
मेरे सरकश तराने सुन के दुनिया ये समझती है
कि शायद मेरे दिल को इश्क़ के नग़्मों से नफ़रत है (साहिर लुध्यान्वी)
Shamikh Faraz said…
तो दिल ताब-ए-निशात-ए-बज़्म-ए-इश्रत ला नहीं सकता
मैं चाहूँ भी तो ख़्वाब-आवार तराने गा नहीं सकता
sahir ludhyanvi
Shamikh Faraz said…
गूँजे तराने सुबह के इक शोर हो गया
आलम तमाम रस में सराबोर हो गया

kaifi aazmi
Shamikh Faraz said…
चराग़ दिल के जलाओ कि ईद का दिन है
तराने झूम के गाओ कि ईद का दिन है

qateel shifai
Shamikh Faraz said…
ग़ज़ल का रंग फीका हो चला है धुन बदल अपनी
तराने छेड़ ख़ुशबू के, भुलाकर ख़ार चुटकी में

manu betakhallus
तराने हों खुशी के या हों ग़म के इतना तो तय है
उन्हें जब भी मैं सुनता हूँ सुकूं तब दिल को मिलता है । (स्वरचित)
seema gupta said…
जेहनी दलील दिल के तराने को दे दिया,
इक ज़र्बे तीर इस के दुखाने को दे दिया।
unknown

regards
seema gupta said…
अब तुमसे रुख़सत होता हूँ आओ सँभालो साजे़- गजल,
नये तराने छेडो़,मेरे नग्‍़मों को नींद आती है।
(फ़िराक़ गोरखपुरी )
regards
Manju Gupta said…
जवाब -तराने
सूर्योदय की अरुणिम बेला में ,
स्वागत में खगकुल झूम -झूम तराने गाए .(स्वरचित)
sumit said…
bahut he acchi nazm hai ye......
sahi shabd hai tarane par sher abhi yaad nahi.......
Shamikh Faraz said…
sumit ji agar aapko she'r yad nhi ata hai to net par search kr liya karen.km se km 1 she'r to kaha karen. mahfil mazedar lagegi.

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