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दुखी मन मेरे सुन मेरा कहना...जहाँ न गूंजे बर्मन दा के गीत वहां क्या रहना

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 248

ज है ३१ अक्तुबर। १९७५ साल के आज ही के दिन सचिन देव बर्मन हम सब को हमेशा के लिए छोड़ गए थे। आज उनके हमसे बिछड़े लगभग ३५ साल हो चुके हैं, लेकिन ऐसा लगता ही नहीं कि वो हमारे बीच नहीं है। उनके रचे गीत इतने ज़्यादा लोकप्रिय हैं कि आज भी हर रोज़ उनके गानें रेडियो पर सुनने को मिल जाते हैं। किसी ने ठीक ही कहा है कि एक अच्छा कलाकार ना तो कभी बूढ़ा होता है और ना ही मरता है, वो अमरत्व को प्राप्त करता है अपनी कला के ज़रिए, अपनी रचनाओं के ज़रिए, अपनी प्रतिभा के ज़रिए। सचिन देव बर्मन एक ऐसे ही संगीत शिल्पी थे। उनकी सुमधुर संगीत रचनाएँ आज भी हमारे मन की वादियों में अक्सर गूँजते ही रहते हैं। शारीरिक रूप से वो भले ही हमसे बहुत दूर चले गए हों, लेकिन उनकी आत्मा उनके ही रचे संगीत के माध्यम से दुनिया की फ़िज़ाओं में गूँजती रहती है, और गूँजती रहेगी अनंत काल तक। 'जिन पर नाज़ है हिंद को' शृंखला में सचिन देव बर्मन और साहिर लुधियानवी की जोड़ी के गीतों का सफ़र जारी है, और आज जिस सुरीले मोती को हम चुन लाए हैं वह है फ़िल्म 'फ़ंटूश' का, "दुखी मन मेरे सुन मेरा कहना, जहाँ नहीं चैना वहाँ नहीं रहना"। किशोर कुमर के गाए दर्द भरे गीतों में एक बहुत ऊँचा मकाम रखता है यह गीत। किशोर दा की आवाज़ की यही खासियत रही है कि हास्य रस के गीत गाए तो लोगों को हँसा हँसा कर लोट पोट कर दिया, और जब दर्द भरा कोई नग़मा गाया तो जैसे कलेजा चीर कर रख दिया। प्रस्तुत गीत भी कुछ ऐसा ही कलेजा चीरने वाले अंदाज़ का है। और साहिर साहब के दर्दीले अंदाज़ की एक और मिसाल है यह गीत। "दर्द हमारा कोई ना जाने, अपनी गरज के सब हैं दीवाने, किसके आगे रोना रोएँ, देस पराया लोग बेगाने"। युं तो खेमचंद प्रकाश ने किशोर कुमार को पहली बार फ़िल्म में गाने का मौका दिया था, पर सही मायने में किशोर बर्मन दा की खोज हैं। उन्होने ही किशोर को गवाने से पहले कहा था कि अगर वो अपनी आवाज़ से सहगल को अलग कर दें तो उनकी आवाज़ करिश्मा कर सकती है।

'फ़ंटूश' १९५६ की फ़िल्म थी। सचिन देव बर्मन, साहिर लुधियानवी और नवकेतन बैनर का साथ 'बाज़ी' (१९५१), 'टैक्सी ड्राइवर' (१९५४) और 'हाउस नंबर ४४' (१९५५) जैसी हिट म्युज़िकल फ़िल्मों में रही। १९५६ में यह साथ एक बार फिर से रंग लाई 'फ़ंटूश' के रूप में। फ़ंटूश बने देव आनंद, और साथ में थीं कुमकुम और लीला चिटनिस। १९५६ के आते आते किशोर दा ने युं तो कई लोकप्रिय गीत गा चुके थे, लेकिन 'फ़ंटूश' का यह प्रस्तुत गीत उन्हे रातों रात जैसे सितारों पर बिठा दिया। किशोर दा, जो अब तक मूलत: हँसी मज़ाक के गाने गाते चले आ रहे थे, इस गीत से हर किसी को आश्चर्य में डाल दिया। जो संगीतकार उन्हे एक गायक मानने से इंकार कर रहे थे, उनके मुँह पर तो जैसे ताला सा लग गया था इस गीत को सुनने के बाद। दोस्तों, आप को याद होगा जब हमने 'चलती का नाम गाड़ी' फ़िल्म का गीत 'हम थे वो थीं' सुनवाया था, उस कड़ी में हमने अमीन सायानी द्वारा प्रस्तुत 'फ़िल्मी मुक़द्दमा' कार्यक्रम का एक अंश प्रस्तुत किया था जिसमें किशोर दा ने अपने बर्मन दादा के बारे में कई दिलचस्प बातें कहे थे। आइए, आज जब फिर एक बार मौका हाथ लगा है, तो क्यों ना फिर से उसी कार्यक्रम की तरफ़ रुख़ करें, और एक और अंश का आनंद उठाएँ! इस अंश में आज के प्रस्तुत गीत का भी ज़िक्र है, पढ़िए। "सचिन दा ने मुझे पहला गाना गवाया फ़िल्म 'आठ दिन' में, पूरा गाना नहीं था, दो तीन लाइनें थीं। गाना था "बाँका सिपहिया घर ज‍इ हो"। पहला पूरा गाना मैने उनके लिए फ़िल्म 'बहार' में गाया, "क़ुसूर आपका हुज़ूर आपका, मेरा नाम लीजिए ना मेरे बाप का"। मगर यह गाना मैने बम्बई में नहीं बल्कि मद्रास में गाया। वहाँ उन्होने मुझे अपने ही कमरे में ठहराया। और तब मुझे पता चला कि संगीत ही उनका जीवन था। उठते बैठते चलते फिरते हर बात संगीत की होती, हर काम सुरीला होता। सचिन दा मुझे बार बार समझाते 'ए किशोर, ये जा, ऐसा जा, एक्स्प्रेशन के साथ, ज़्यादा मुड़कियाँ तानें मारने से कुछ नहीं होता, सीधा गाएगा तो गाना पब्लिक को ज़्यादा अच्छा लगेगा, समझा न?' फिर मेरे जीवन का वो दौर शुरु हुआ जिसका संबंध ना केवल सचिन दा से था बल्कि देव आनंद की अदाकारी से भी। देव के लिए सचिन दा ने सब से पहले मुझे गाना गवाया फ़िल्म 'बाज़ी' में। वह गाना था "तेरे तीरों में छुपे प्यार के तरानें हैं, नैय्या पुरानी तूफ़ान भी पुराने हैं"। और फिर आई 'फ़ंटूश'। 'फ़ंटूश' में बहुत दुख भरा गाना था। सब कहने लगे कि यह नया लड़का किशोर यह गाना नहीं गा सकेगा। सचिन दा अड़ गए, गाना किशोर ही गाएगा, मैं गाना उसी से गवाउँगा। फिर क्या था, मैने गाया, और उस गीत से सचिन दा मेरे जीवन का एक हिस्सा बन गए। उस गीत से उनमें और मुझमें वो नाता जुड़ा जिसे ना दूरी तोड़ पायी है और ना मौत!"

दोस्तों, कितनी सच्चाई है किशोर दा की इन बातों में! सच ही तो कहा है कि इस गीत ने किशोर दा और सचिन दा के बीच जो रिश्ता गढ़ा है, उसे मौत भी नहीं तोड़ सकी है, और इसका जीता जागता उदाहरण यही है कि हम आज ५५ साल बाद भी इस गीत को उतने ही चाव से सुनते चले जा रहे हैं जितने चाव से उस ज़माने के श्रोता सुना करते होंगे! सुनते हैं यह गीत और सचिन दा को उनकी पुण्य तिथि पर 'हिंद युग्म' की तरफ़ से स्मृति सुमन!



दोस्तों, यूं तो किशोर कुमार के गाये इस गीत को सुनने के बाद कुछ और सुनने की तमन्ना नहीं रहती पर सचिन दा की यादों को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए हमारे नियमित श्रोता दिलीप कवठेकर जी अपनी आवाज़ में आज कुछ सुनाना चाहते हैं, तो दोस्तों स्वागत करें दिलीप जी का और इस गीत को सुनकर हम सब भी याद करें आज हम सब के प्रिय बर्मन दा को.



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (पहले तीन गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी, स्वप्न मंजूषा जी और पूर्वी एस जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. सचिन दा की एक और मधुर धुन.
२. साहिर के शब्द.
३. मुखड़े में शब्द है -"बाहें".

पिछली पहेली का परिणाम -

कल बहुत दिनों बाद ऐसा हुआ जब दो जवाब एक ही समय पर आये और जवाब देने वाले दोनों श्रोता सही भी थे, इसलिए दोनों के खाते में दो-दो अंक जोड़े जायेंगें, दिलीप जी का स्कोर ६ हो गया है वहीँ अवध जी अभी ने कल ही अपना खाता खोला है २ अंकों के साथ, बधाई दोनों को.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Comments

फैली हुई है सपनों की बाहें..
फ़िल्म : हाउस नं 44
सही है. ये पोस्ट अभी अभी दिखाई दी है यहां.

बधाई शरद जी.
AVADH said…
शरद जी का जवाब तो सही प्रतीत होता है परन्तु एक उत्तर यह भी हो सकता है " यह तन्हाई हाय रे हाय जाने फिर आये न आये डाल दो बाहें ".
अवध लाल
Shamikh Faraz said…
बहुत ही अच्छे शरद जी.

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