सुर संगम - 03
जाड़ों की नर्म धूप और आंगन में लेट कर, आँखों पे खींच कर तेरे दामन के साये को, आंधे पड़े रहे, कभी करवट लिए हुए"। गुलज़ार के इन अल्फ़ाज़ों से बेहतर शायद ही कोई अल्फ़ाज़ होंगे जाड़ों की इस सुहानी सुबह के आलम का बयाँ करने के लिए। 'आवाज़' के दोस्तों, सर्दी की इस सुहाने रविवार की सुबह में मैं आप सभी का 'आवाज़' के इस साप्ताहिक स्तंभ 'सुर-संगम' में स्वागत करता हूँ। आज इस स्तंभ का तीसरा अंक है। पहले अंक में आपने उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब का गायन सुना था राग गुनकली में, और दूसरे अंक में उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान और उस्ताद विलायत ख़ान से शहनाई और सितार पर एक भैरवी ठुमरी। आज हम लेकर आये हैं उस्ताद अमीर ख़ान का गायन, राग है मालकौन्स।
उस्ताद अमीर ख़ान का जन्म १५ अगस्त १९१२ को इंदौर में एक संगीत परिवार में हुआ था। पिता शाहमीर ख़ान भिंडीबाज़ार घराने के सारंगी वादक थे, जो इंदौर के होलकर राजघराने में बजाया करते थे। उनके दादा, चंगे ख़ान तो बहादुर शाह ज़फ़र के दरबार में गायक थे। अमीर अली की माँ का देहान्त हो गया था जब वे केवल नौ वर्ष के थे। अमीर और उनका छोटा भाई बशीर, जो बाद में आकाशवाणी इंदौर में सारंगी वादक बने, अपने पिता से सारंगी सीखते हुए बड़े होने लगे। लेकिन जल्द ही उनके पिता ने महसूस किया कि अमीर का रुझान वादन से ज़्यादा गायन की तरफ़ है। इसलिए उन्होंने अमीर अली को ज़्यादा गायन की तालीम देने लगे। ख़ुद इस लाइन में होने की वजह से अमीर अली को सही तालीम मिलने लगी और वो अपने हुनर को पुख़्ता, और ज़्यादा पुख़्ता करते गए। अमीर ने अपने एक मामा से तबला भी सीखा। अपने पिता के सुझाव पर अमीर अली ने १९३६ में मध्यप्रदेश के रायगढ़ संस्थान में महाराज चक्रधर सिंह के पास कार्यरत हो गये, लेकिन वहाँ वे केवल एक वर्ष ही रहे। १९३७ में उनके पिता की मृत्यु हो गई। वैसे अमीर ख़ान १९३४ में ही बम्बई स्थानांतरित हो गये थे और स्टेज पर पर्फ़ॊर्म भी करने लगे थे। साथ ही साथ ६ ७८-आर.पी.एम रेकॊर्ड्स भी जारी करवाये। इसी दौरान वे कुछ वर्ष दिल्ली में और कुछ वर्ष कलकत्ते में भी रहे, लेकिन देश विभाजन के बाद स्थायी रूप से बम्बई में जा बसे।
उस्ताद अमीर ख़ान के गायकी का जहाँ तक सवाल है, उन्होंने अपनी शैली अख़्तियार की, जिसमें अब्दुल वाहिद ख़ान का विलंबित अंदाज़, रजब अली ख़ान के तान और अमन अली ख़ान के मेरुखण्ड की झलक मिलती है। इंदौर घराने के इस ख़ास शैली में आध्यात्मिक्ता, ध्रुपद और ख़याल के मिश्रण मिलते हैं। उस्ताद अमीर ख़ान ने "अतिविलंबित लय" में एक प्रकार की "बढ़त" ला कर सबको चकित कर दिया था। इस बढ़त में आगे चलकर सरगम, तानें, बोल-तानें, जिनमें मेरुखण्डी अंग भी है, और आख़िर में मध्यलय या द्रुत लय, छोटा ख़याल या रुबाएदार तराना पेश किया। उस्ताद अमीर ख़ान का यह मानना था कि किसी भी ख़याल कम्पोज़िशन में काव्य का बहुत बड़ा हाथ होता है, इस ओर उन्होंने 'सुर रंग' के नाम से कई कम्पोज़िशन्स ख़ुद लिखे हैं। अमीर ख़ान ने तराना को लोकप्रिय बनाया। झुमरा और एकताल का प्रयोग अपने गायन में करते थे, और संगत देने वाले तबला वादक से वो साधारण ठेके की ही माँग करते थे।
फ़िल्म संगीत में भी उस्ताद अमीर ख़ान का योगदान उल्लेखनीय है। 'बैजु बावरा', 'शबाब', 'झनक झनक पायल बाजे', 'रागिनी', और 'गूंज उठी शहनाई' जैसी फ़िल्मों के लिए उन्होंने अपना स्वरदान किया। बंगला फ़िल्म 'क्षुधितो पाशाण' में भी उनका गायन सुनने को मिला था। संगीत के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिये उस्ताद अमीर ख़ान को १९६७ में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार और १९७१ में पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। नियती के क्रूर हाथों ने एक सड़क दुर्घटना में ख़ाँ साहब को १३ फ़रवरी १९७४ के दिन हम से हमेशा हमेशा के लिए छीन लिया। तो आइए, उस्ताद अमीर ख़ान का गाया राग मालकौन्स सुनते हैं।
गायन: उस्ताद अमीर ख़ान (राग मालकौन्स)
राग मालकौन्स पर फ़िल्मी संगीतकारों की भी ख़ूब रुचि रही है। कुछ जाने-पहचाने गीत जो इस राग पर आधारित हैं - "अखियन संग अखियाँ लागी आज" (बड़ा आदमी), "आये सुर के पंछी आये" (सुर संगम), "ओ पवन वेग से उड़ने वाले घोड़े" (जय चित्तौड़), "दीप जलाये जो गीतों के मैंने" (कलाकार), "आधा है चंद्रमा रात आधी", "तू छुपी है कहाँ" (नवरंग), "मन तड़पत हरि दर्शन को आज" (बैजु बावरा), "पंख होती तो उड़ आती रे" (सेहरा), आदि। तो लीजिए आज इस राग पर आधारित सुनिये फ़िल्म 'सेहरा' का यही गीत। लता मंगेशकर की आवाज़, हसरत जयपुरी के बोल, और रामलाल चौधरी का अनूठा और अनोखा संगीत ही नहीं, संगीत-संयोजन भी।
गीत - पंख होती तो उड़ आती रे (सेहरा)
तो ये था, आज का 'सुर-संगम'। अगले रविवार किसी और दिग्गज शास्त्रीय फ़नकार को लेकर हम उपस्थित होंगे इस स्तंभ में। आपकी और मेरी फिर मुलाकात होगी आज शाम को ही 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में। तो बने रहिये 'आवाज़' के साथ और फ़िल्हाल मुझे अनुमति दीजिये, नमस्कार!
आप बताएं
फिल्म "दिया और तूफ़ान" एक गीत जो हमने हाल ही में ओल्ड इस गोल्ड पर सुनवाया था, इसी राग पर आधारित था...बूझिये तो ज़रा
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
उस्ताद अमीर ख़ान ने "अतिविलंबित लय" में एक प्रकार की "बढ़त" ला कर सबको चकित कर दिया था। इस बढ़त में आगे चलकर सरगम, तानें, बोल-तानें, जिनमें मेरुखण्डी अंग भी है, और आख़िर में मध्यलय या द्रुत लय, छोटा ख़याल या रुबाएदार तराना पेश किया।
जाड़ों की नर्म धूप और आंगन में लेट कर, आँखों पे खींच कर तेरे दामन के साये को, आंधे पड़े रहे, कभी करवट लिए हुए"। गुलज़ार के इन अल्फ़ाज़ों से बेहतर शायद ही कोई अल्फ़ाज़ होंगे जाड़ों की इस सुहानी सुबह के आलम का बयाँ करने के लिए। 'आवाज़' के दोस्तों, सर्दी की इस सुहाने रविवार की सुबह में मैं आप सभी का 'आवाज़' के इस साप्ताहिक स्तंभ 'सुर-संगम' में स्वागत करता हूँ। आज इस स्तंभ का तीसरा अंक है। पहले अंक में आपने उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब का गायन सुना था राग गुनकली में, और दूसरे अंक में उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान और उस्ताद विलायत ख़ान से शहनाई और सितार पर एक भैरवी ठुमरी। आज हम लेकर आये हैं उस्ताद अमीर ख़ान का गायन, राग है मालकौन्स।
उस्ताद अमीर ख़ान का जन्म १५ अगस्त १९१२ को इंदौर में एक संगीत परिवार में हुआ था। पिता शाहमीर ख़ान भिंडीबाज़ार घराने के सारंगी वादक थे, जो इंदौर के होलकर राजघराने में बजाया करते थे। उनके दादा, चंगे ख़ान तो बहादुर शाह ज़फ़र के दरबार में गायक थे। अमीर अली की माँ का देहान्त हो गया था जब वे केवल नौ वर्ष के थे। अमीर और उनका छोटा भाई बशीर, जो बाद में आकाशवाणी इंदौर में सारंगी वादक बने, अपने पिता से सारंगी सीखते हुए बड़े होने लगे। लेकिन जल्द ही उनके पिता ने महसूस किया कि अमीर का रुझान वादन से ज़्यादा गायन की तरफ़ है। इसलिए उन्होंने अमीर अली को ज़्यादा गायन की तालीम देने लगे। ख़ुद इस लाइन में होने की वजह से अमीर अली को सही तालीम मिलने लगी और वो अपने हुनर को पुख़्ता, और ज़्यादा पुख़्ता करते गए। अमीर ने अपने एक मामा से तबला भी सीखा। अपने पिता के सुझाव पर अमीर अली ने १९३६ में मध्यप्रदेश के रायगढ़ संस्थान में महाराज चक्रधर सिंह के पास कार्यरत हो गये, लेकिन वहाँ वे केवल एक वर्ष ही रहे। १९३७ में उनके पिता की मृत्यु हो गई। वैसे अमीर ख़ान १९३४ में ही बम्बई स्थानांतरित हो गये थे और स्टेज पर पर्फ़ॊर्म भी करने लगे थे। साथ ही साथ ६ ७८-आर.पी.एम रेकॊर्ड्स भी जारी करवाये। इसी दौरान वे कुछ वर्ष दिल्ली में और कुछ वर्ष कलकत्ते में भी रहे, लेकिन देश विभाजन के बाद स्थायी रूप से बम्बई में जा बसे।
उस्ताद अमीर ख़ान के गायकी का जहाँ तक सवाल है, उन्होंने अपनी शैली अख़्तियार की, जिसमें अब्दुल वाहिद ख़ान का विलंबित अंदाज़, रजब अली ख़ान के तान और अमन अली ख़ान के मेरुखण्ड की झलक मिलती है। इंदौर घराने के इस ख़ास शैली में आध्यात्मिक्ता, ध्रुपद और ख़याल के मिश्रण मिलते हैं। उस्ताद अमीर ख़ान ने "अतिविलंबित लय" में एक प्रकार की "बढ़त" ला कर सबको चकित कर दिया था। इस बढ़त में आगे चलकर सरगम, तानें, बोल-तानें, जिनमें मेरुखण्डी अंग भी है, और आख़िर में मध्यलय या द्रुत लय, छोटा ख़याल या रुबाएदार तराना पेश किया। उस्ताद अमीर ख़ान का यह मानना था कि किसी भी ख़याल कम्पोज़िशन में काव्य का बहुत बड़ा हाथ होता है, इस ओर उन्होंने 'सुर रंग' के नाम से कई कम्पोज़िशन्स ख़ुद लिखे हैं। अमीर ख़ान ने तराना को लोकप्रिय बनाया। झुमरा और एकताल का प्रयोग अपने गायन में करते थे, और संगत देने वाले तबला वादक से वो साधारण ठेके की ही माँग करते थे।
फ़िल्म संगीत में भी उस्ताद अमीर ख़ान का योगदान उल्लेखनीय है। 'बैजु बावरा', 'शबाब', 'झनक झनक पायल बाजे', 'रागिनी', और 'गूंज उठी शहनाई' जैसी फ़िल्मों के लिए उन्होंने अपना स्वरदान किया। बंगला फ़िल्म 'क्षुधितो पाशाण' में भी उनका गायन सुनने को मिला था। संगीत के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिये उस्ताद अमीर ख़ान को १९६७ में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार और १९७१ में पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। नियती के क्रूर हाथों ने एक सड़क दुर्घटना में ख़ाँ साहब को १३ फ़रवरी १९७४ के दिन हम से हमेशा हमेशा के लिए छीन लिया। तो आइए, उस्ताद अमीर ख़ान का गाया राग मालकौन्स सुनते हैं।
गायन: उस्ताद अमीर ख़ान (राग मालकौन्स)
राग मालकौन्स पर फ़िल्मी संगीतकारों की भी ख़ूब रुचि रही है। कुछ जाने-पहचाने गीत जो इस राग पर आधारित हैं - "अखियन संग अखियाँ लागी आज" (बड़ा आदमी), "आये सुर के पंछी आये" (सुर संगम), "ओ पवन वेग से उड़ने वाले घोड़े" (जय चित्तौड़), "दीप जलाये जो गीतों के मैंने" (कलाकार), "आधा है चंद्रमा रात आधी", "तू छुपी है कहाँ" (नवरंग), "मन तड़पत हरि दर्शन को आज" (बैजु बावरा), "पंख होती तो उड़ आती रे" (सेहरा), आदि। तो लीजिए आज इस राग पर आधारित सुनिये फ़िल्म 'सेहरा' का यही गीत। लता मंगेशकर की आवाज़, हसरत जयपुरी के बोल, और रामलाल चौधरी का अनूठा और अनोखा संगीत ही नहीं, संगीत-संयोजन भी।
गीत - पंख होती तो उड़ आती रे (सेहरा)
तो ये था, आज का 'सुर-संगम'। अगले रविवार किसी और दिग्गज शास्त्रीय फ़नकार को लेकर हम उपस्थित होंगे इस स्तंभ में। आपकी और मेरी फिर मुलाकात होगी आज शाम को ही 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में। तो बने रहिये 'आवाज़' के साथ और फ़िल्हाल मुझे अनुमति दीजिये, नमस्कार!
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फिल्म "दिया और तूफ़ान" एक गीत जो हमने हाल ही में ओल्ड इस गोल्ड पर सुनवाया था, इसी राग पर आधारित था...बूझिये तो ज़रा
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.
Comments
विलंब से टिप्पणी कर रहा हूँ, क्योंकि आज हीं इन गानों को सुन पाया हूँ। इसमें दो राय है हीं नहीं कि हर रविवार को आप "बेहतरीन पेशकश" के साथ हाज़िर हो रहे हैं। इसके लिए आप बधाई के पात्र हैं।
मुझे यह बात समझ नहीं आ रही कि "ओल्ड इज गोल्ड" के इतने सारे प्रशंसक हैं, जो यह मानते और जानते हैं कि पुराने गानों की बात हीं कुछ और थी और इसका कारण था उन गानों का "भारतीय रागों" पर आधारित होना.. तो फिर अगर ऐसी बात है तो वे सारे प्रशंसक "सुर संगम" का हिस्सा क्यों नहीं बन रहे? मेरे हिसाब से "सुर संगम" एक "अमोल निधि" है, जिसकी तुलना "ओल्ड इज गोल्ड" या "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" से नहीं की जा सकती.... और इसीलिए "टिप्पणियों" और "प्रोत्साहन" की आवश्यकत इसी श्रृंखला को है।
या फिर ऐसा है कि जब तक "सवाल" न पूछे जाएँ "पढने" और "सुनने" वाले उस आलेख में रूचि नहीं दिखाते। मैं यह प्रश्न सभी सुधिजनों से पूछ रहा हूँ। कृपया अपने उत्तरों से मुझे अवगत कराईयेगा।
धन्यवाद,
विश्व दीपक