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फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी – ७

स्वरगोष्ठी – ९६ में आज लौकिक और आध्यात्मिक भाव का बोध कराती ठुमरी ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो जाय...’ चौथे से लेकर छठें दशक तक की हिन्दी फिल्मों के संगीतकारों ने राग आधारित गीतों का प्रयोग कुछ अधिक किया था। उन दिनों शास्त्रीय मंचों पर या ग्रामोफोन रेकार्ड के माध्यम से जो बन्दिशें, ठुमरी, दादरा आदि बेहद लोकप्रिय होती थीं, उन्हें फिल्मों में कभी-कभी यथावत और कभी अन्तरे बदल कर प्रयोग किये जाते रहे। चौथे दशक के कुछ संगीतकारों ने फिल्मों में परम्परागत ठुमरियों का बड़ा स्वाभाविक प्रयोग किया था। फिल्मों में आवाज़ के आगमन के इस पहले दौर में राग आधारित गीतों के गायन के लिए सर्वाधिक यश यदि किसी गायक को प्राप्त हुआ, तो वह कुन्दनलाल (के.एल.) सहगल ही थे। उन्होने १९३८ में प्रदर्शित ‘न्यू थियेटर’ की फिल्म ‘स्ट्रीट सिंगर’ में शामिल पारम्परिक ठुमरी- ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो जाय...’ गाकर उसे कालजयी बना दिया। ‘स्वरगोष्ठी’ के आज के अंक में आप संगीत-प्रेमियों के बीच, मैं कृष्णमोहन मिश्र, भैरवी की इसी ठुमरी से जुड़े कुछ तथ्यों पर चर्चा करूँगा। अ वध के नवाब वाजिद अली शाह संगीत-नृत

'सिने पहेली' में आज बारी एक फ़िल्मी वर्ग पहेली की...

सिने-पहेली # 46  (17 नवंबर, 2012)  'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी पाठकों और श्रोताओं को सुजॉय चटर्जी का सप्रेम नमस्कार। दोस्तों, सुबह-सुबह एक गरम चाय की प्याली हाथ में लेकर ताज़े अख़्बार की वर्ग पहेली को सुलझाने का मज़ा ही कुछ और है, क्यों है न? आप में से कईयों को वर्ग पहेली या crossword puzzle को सुलझाने का शौक भी होगा, तभी तो हम 'सिने पहेली' प्रतियोगिता के हर सेगमेण्ट में कम से कम एक वर्ग पहेली का निर्माण ज़रूर करते हैं ताकि वर्ग पहेली के शौकीनों को भी हम संतुष्ट कर सके। वर्ग पहेली को सुलझाने में जितना मज़ा आता है, इसे तैयार करने में भी सच पूछिये मुझे तो बहुत ही आनन्द आता है। हाँ, समय ज़्यादा ज़रूर लगता है! फिर भी इस प्रतियोगिता में विविधता बनाये रखने की चाहत हमें मजबूर करती है हर अंक में कुछ नया करने की। तो हो जाइए तैयार सुलझाने के लिए हमारी आज की वर्ग पहेली.... आज की पहेली : फ़िल्मी वर्ग-पहेली नीचे दिये गये सूत्रों के माध्यम से सुलझाइये इस वर्ग पहेली को। आज के कुल अंक हैं 11। बायें से दायें 1. सन् 1991 की इस हिन्दी फ़िल्म में बहुत सी ब

लौट चलें बचपन की ओर, बच्चों की आवाजों में कुछ दुर्लभ रचनाओं संग

शब्दों में संसार - एपिसोड 03 - बचपन      दोस्तों, शब्दों में संसार को आपका ढेर सारा प्यार मिल रहा है, यकीन मानिये इसके हर एपिसोड को तैयार करने में एक बड़ी टीम को जमकर मेहनत जोतनी पड़ती है, पर इसे अपलोड करने के बाद हम में हर किसी को एक गजब की आत्म संतुष्टी का अनुभव भी अवश्य होता है, और आपके स्नेह का प्रोत्साहन पाकर ये खुशी दुगनी हो जाती है. दो दिन पहले हमने 'बाल दिवस' मनाया था तो इस माह का ये विशेष एपिसोड बच्चों के नाम करना लाजमी ही था.  हमारी उम्र बढ गई, हम बड़े हो गए और इस तरह हमने अपने-आप को उन ख्यालों, सपनों और कोशिशों तक हीं सीमित कर लिया जहाँ हक़ीक़त का मुहर लगना अनिवार्य होता है। हम हरेक बात को संभव और असंभव के पलड़े पर तोलने लगे और जब भी कुछ असंभव की तरफ बढता दिखा तो हमने उससे कन्नी काट ली। हमने बस उसे हीं सच और सही कहा, जो हमारी नज़रों के सामने था या फिर जिसके होने से हमारे मस्तिष्क को बल मिला। बाकी बातों, घटनाओं एवं कल्पनाओं को हमने बचकानी घोषित कर दिया। ऐसा करके हमें लगा कि हमने कोई तीर मार दिया है, लेकिन सही मायने में हमने उसी दिन अपनी मासूमियत खो दी। हम बड़