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सिनेमा के सौ साल – 23 : भाई दूज पर विशेष

भूली-बिसरी यादें भाई-बहन के सम्बन्धों पर बनी आरम्भिक दौर की फिल्में भारतीय सिनेमा के शताब्दी वर्ष में आयोजित विशेष श्रृंखला, ‘स्मृतियों के झरोखे से : भारतीय सिनेमा के सौ साल’ के एक नये अंक के साथ मैं कृष्णमोहन मिश्र, अपने साथी सुजॉय चटर्जी के साथ आपके बीच उपस्थित हूँ और आपका हार्दिक स्वागत करता हूँ। आज मास का तीसरा गुरुवार है और इस दिन हम आपके लिए मूक और सवाक फिल्मों की कुछ रोचक दास्तान लेकर आते हैं। आज भाई-बहनों का महत्त्वपूर्ण पर्व ‘भाईदूज’ है। इस विशेष अवसर पर आज हम आपके लिए लेकर आए हैं ‘भूली बिसरी यादें’ का एक विशेष अंक। आज हमारे साथी सुजॉय चटर्जी शुरुआती दौर की कुछ ऐसी फिल्मों का ज़िक्र कर रहे हैं जिनमें ‘भाईदूज’ पर्व का उल्लेख हुआ है। भा ई और बहन के अटूट रिश्ते को और भी अधिक मजबूत बनाने के लिए साल में दो त्योहार मनाये जाते हैं, रक्षाबन्धन और भाईदूज। वैसे तो इन दोनों त्योहारों के रस्म लगभग एक जैसे ही हैं, फिर भी रक्षाबन्धन को भाईदूज से ज़्यादा महत्त्व दिया जाता है। एक पौराणिक कथा के अनुसार भाईदूज के दिन यमराज अपनी बहन यमी के घर जाते हैं और यमी उसके मा

विष्णु बैरागी की यह उजास चाहिए मुझे

'बोलती कहानियाँ' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में आचार्य चतुरसेन की कहानी अब्बाजान का प्रसारण सुना था। आज हम लेकर आये हैं "विष्णु बैरागी" की कहानी "यह उजास चाहिए मुझे", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। कहानी का कुल प्रसारण समय है: 12 मिनट 39 सेकंड। इस कथा का मूल आलेख विष्णु जी के ब्लॉग एकोऽहम् पर पढ़ा जा सकता है| यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं तो अधिक जानकारी के लिए कृपया admin@radioplaybackindia.com पर सम्पर्क करें। भ्रष्टाचार का लालच मनुष्य की आत्मा को मार देता है। ~ विष्णु बैरागी हर सप्ताह यहीं पर सुनें एक नयी कहानी “चारों के चारों, मेरे इस नकार को, घुमा-फिराकर मेरी कंजूसी साबित करना चाह रहे हैं। मुझे हँसी आती है किन्तु हँस नहीं पाता। डरता हूँ कि ये सब बुरा न मान जाएँ।” ( विष्णु बैरागी की "

प्लेबैक वाणी - संगीत समीक्षा - जब तक है जान

प्लेबैक वाणी - संगीत समीक्षा - जब तक है जान  “तेरी आँखों की नमकीन मस्तियाँ, तेरी हँसी की बेपरवाह गुस्ताखियाँ, तेरी जुल्फों की लहराती अंगडाईयाँ, नहीं भूलूँगा मैं...जब तक है जान...”, दोस्तों सिने प्रेमी भी यश चोपड़ा और उनकी यादगार फिल्मों को वाकई नहीं भूलेंगें...जब तक है जान...यश जी की हर फिल्म उसके बेहतरीन संगीत के लिए भी दर्शकों और श्रोताओं के दिलो जेहन में हमेशा बसी रहेगीं. उन्होंने फिल्म और कहानी की जरुरत के मुताबिक अपने गीतकार संगीतकार चुने, मसलन आनंद बख्शी और लक्ष्मीकांत प्यारेलाल की जबरदस्त सफलता के दौर में उन्होंने एल पी के साथ साहिर की जोड़ी बनायीं “दाग” के लिए और परिणाम जाहिर है उत्कृष्ट ही रहा. वहीँ उन्होंने आनंद बख्शी को मिलाया शिव हरी से और अद्भुत गीत निकलवाये. स्क्रिप्ट लेखक जावेद अख्तर को गीतकार बनाया. खय्याम को “कभी कभी” और उत्तम सिंह को “दिल तो पागल है” के रूप में वो व्यावसयिक कामयाबी दिलवाई जिसके के वो निश्चित ही हकदार थे. मदन मोहन की बरसों पुरानी धुनों को नयी सदी में फिर से जिंदा कर मदन जी को आज के श्रोताओं से रूबरू करवाया. ये सब सिर्फ और सिर्फ यशी जी ही कर