Skip to main content

Posts

फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी – २

     स्वरगोष्ठी – ९१ में आज  बेगम अख्तर की ९९वें जन्मदिवस पर स्वरांजलि ‘भर भर आईं मोरी अँखियाँ पिया बिन...’ रस, रंग और भाव की सतरंगी छटा बिखेरती ठुमरी पर केन्द्रित लघु श्रृंखला ‘फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी’ के एक नए अंक में कृष्णमोहन मिश्र का अभिवादन स्वीकार कीजिए। ‘स्वरगोष्ठी’ पर जारी इस श्रृंखला के आज के अंक में हम ठुमरी और गजल की साम्राज्ञी बेगम अख्तर को उनके ९९वें जन्मदिन पर स्मरण कर रहे हैं। आज इस अवसर पर बेगम साहिबा की गायी ठुमरी और ग़ज़ल से हम उन्हें स्वरांजलि अर्पित करते हैं। श्रृं गार और भक्ति रस से सराबोर ठुमरी और गजल शैली की अप्रतिम गायिका बेगम अख्तर का जन्म ७ अक्तूबर, १९१४ उत्तर प्रदेश के फ़ैज़ाबाद नामक एक छोटे से नगर (तत्कालीन अवध) में एक कट्टर मुस्लिम परिवार में हुआ था। परिवार में किसी भी सदस्य को न तो संगीत से अभिरुचि थी और न किसी को संगीत सीखना-सिखाना पसन्द था। परन्तु अख्तरी (बचपन में उन्हें इसी नाम से पुकारा जाता था) को तो मधुर कण्ठ और संगीत के प्रति अनुराग जन्मजात उपहार के रूप में प्राप्त था। एक बार सुविख्य

'सिने पहेली' की आज हो रही है 40 सप्ताह पूर्ति...

सिने-पहेली # 40  (6 अक्टूबर, 2012)  'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी पाठकों और श्रोताओं को सुजॉय चटर्जी का सप्रेम नमस्कार, और स्वागत है आप सभी का आपके मनपसंद स्तंभ 'सिने पहेली' में। दोस्तों, देखते ही देखते, पहेलियाँ सुलझाते हुए आज हम आ पहुँचे हैं 'सिने पहेली' के चौथे सेगमेण्ट के अंतिम चरण पर। आज 'सिने पहेली' की 40-वीं कड़ी है। पिछले 40 हफ़्तों से आप सब ने जिस तरह से अपना योगदान इस स्तंभ को दिया है, जिस तरह इस प्रतियोगिता में निरंतर भाग लेकर इसे अब तक सफल बनाया है, हम आप सब के आभारी हैं और आप से अनुरोध करते हैं कि अगले सेगमेण्ट में भी इसी तरह का साथ बनाये रखें। नये खिलाड़ियों का आह्वान नये प्रतियोगी, जो इस मज़ेदार खेल से जुड़ना चाहते हैं, उनके लिए हम यह बता दें कि अभी भी देर नहीं हुई है। इस प्रतियोगिता के नियम कुछ ऐसे हैं कि किसी भी समय जुड़ने वाले प्रतियोगी के लिए भी पूरा-पूरा मौका है महाविजेता बनने का। अगले सप्ताह से नया सेगमेण्ट शुरू हो रहा है, इसलिए नये खिलाड़ियों का आज हम एक बार फिर आह्वान करते हैं। अपने मित्रों, दफ़्तर के कलीग, औ

स्मृतियों के झरोखे से : भारतीय सिनेमा के सौ साल – 17

भूली-बिसरी यादें भारतीय सिनेमा के शताब्दी वर्ष में आयोजित विशेष श्रृंखला ‘स्मृतियों के झरोखे से’ के एक नये अंक के साथ मैं कृष्णमोहन मिश्र अपने साथी सुजॉय चटर्जी के साथ आपके बीच उपस्थित हुआ हूँ। आज मास का पहला गुरुवार है और पहले व तीसरे गुरुवार को हम आपके लिए मूक और सवाक फिल्मों की कुछ रोचक दास्तान लेकर आते हैं। तो आइए पलटते हैं, भारतीय फिल्म-इतिहास के कुछ सुनहरे पृष्ठों को। यादें मूक फिल्मों के युग की : नवयुवक सालुंके बने थे तारामती अन्ततः 3मई, 1913 को मुम्बई के कोरोनेशन सिनेमा में दादा साहब फालके द्वारा निर्मित प्रथम मूक फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’ का पहला सार्वजनिक प्रदर्शन हुआ। विदेशी उपकरणों की सहायता से किन्तु भारतीय कथानक पर भारतीय कलाकारों द्वारा इस फिल्म का निर्माण हुआ था। ढुंडिराज गोविन्द फालके, उपाख्य दादा साहब फालके भारतीय फिल्म जगत के पहले निर्माता-निर्देशक ही नहीं बल्कि पहले पटकथा लेखक, कैमरामैन, मेकअप मैन, कला निर्देशक, सम्पादक आदि भी थे। फिल्म का एक उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि भारत की इस पहली फिल्म के नायक दत्तात्रेय दामोदर दबके थे जबकि नायि