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अपने हाथों करें 'अनुगूँज' का विमोचन

साहित्यप्रेमियो, हिन्द-युग्म विगत 20 महीनों से प्रकाशन में सक्रिय है। हम अपने यहाँ से प्रकाशित पुस्तकों के ऑनलाइन विमोचन का अनूठा कार्यक्रम संयोजित करते हैं, जिससे हर पाठक लोकार्पण करने का सुख प्राप्त कर लेता है। आज हम हिन्द-युग्म प्रकाशन की नवीनतम पुस्तक 'अनुगूँज' का ऑनलाइन विमोचन कर रहे हैं। इस पुस्तक में 28 कवियों की प्रतिनिधि कविताएँ संकलित हैं। संग्रह के लिए कविताओं का संकलन और संपादन रश्मि प्रभा ने किया है। रश्मि प्रभा संग्रह पर टिप्पणी करते हुए कहती हैं- एक कदम के साथ मिलते क़दमों की गूँज अनुगूँज हिंदी साहित्य की साँसों को प्रकृति से जोड़ता है.... वैसे सच तो ये है कि हिंदी के बीज हम क्या लगायेंगे, हिंदी तो हमारा गौरव है- हिंदी साहित्य की जड़ें इतनी पुख्ता रही हैं कि इसे कितना भी काटो, पर इसके पनपने की क्षमता अक्षुण है .... हिन्दुस्तान की मिट्टी हमेशा उर्वरक रही है, बस बीज डालना है और उस पर उग आए अनचाहे विचारों को हटाना है- यही इन्कलाब अनुगूँज है और इसमें शामिल क़दमों को देखकर- साहित्य से जुड़े स्वर कह उठते हैं - 'नहीं है नाउम्मीद इकबाल अपनी किश्ते वीरां से ज़रा नम हो

अब कोई गुलशन न उजड़े....एक आशावादी गीत आज के इस बदलते भारत की उथल पुथल में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 730/2011/170 शृं खला ‘वतन के तराने’ की समापन कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र आपका हार्दिक स्वागत करता हूँ। दोस्तों, स्वतन्त्रता की 64वीं वर्षगाँठ के उपलक्ष्य में यह श्रृंखला हमने उन बलिदानियों को समर्पित किया है, जिन्होने देश को विदेशी सत्ता से मुक्त कराने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। इनके बलिदानों के कारण ही 15अगस्त, 1947 को विदेशी शासकों को भारत छोड़ कर जाना पड़ा। आज़ादी के 64वर्षों में हम किसी विदेशी सत्ता के गुलाम तो नहीं रहे, किन्तु स्वयं द्वारा रची गई अनेक विसंगतियों के गुलाम अवश्य हो गए हैं। इस गुलामी से मुक्त होने के लिए हमे अपने पूर्वजों के त्याग और बलिदान का स्मरण करते हुए राष्ट्र-निर्माण के लिए नए संकल्प लेने पड़ेंगे। श्रृंखला की इस समापन कड़ी में हम एक ऐसे बलिदानी का परिचय आपके साथ बाँटना चाहेंगे जो महान पराक्रमी, अद्वितीय युद्धविशारद, कुशल वक्ता के साथ-साथ प्रबुद्ध शायर भी था। उस महान बलिदानी का नाम है रामप्रसाद ‘बिस्मिल’। प्रथम विश्वयुद्ध के समय देश को गुलामी से मुक्त कराने का एक प्रयास हुआ था, जिसे ‘मैनपुरी षड्यंत्र काण्ड’ के नाम से जाना गया थ

अपनी आजादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं - शकील ने लिखी दृढ संकल्प की गाथा इस गीत में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 729/2011/169 ‘ओ ल्ड इज गोल्ड’ पर जारी श्रृंखला ‘वतन के तराने’ की नौवीं कड़ी में एक और बलिदानी की अमर गाथा और अपनी आज़ादी की रक्षा का संकल्प लेने वाले एक प्रेरक गीत के साथ मैं कृष्णमोहन मिश्र आपके सम्मुख उपस्थित हूँ। आज के अंक में हम आपको फिल्म जगत के जाने-माने शायर और गीतकार शकील बदायूनी का एक संकल्प गीत सुनवाएँगे और साथ ही स्वतन्त्रता संग्राम के एक ऐसे सिपाही का स्मरण करेंगे जिसे जीते जी अंग्रेज़ गिरफ्तार न कर सके। उस वीर सपूत को हम चन्द्रशेखर आज़ाद के नाम से जानते हैं। लोगों ने आज़ाद को 1921 के असहयोग आन्दोलन से पहचाना। उन दिनों अंग्रेज़ युवराज के बहिष्कार का अभियान चल रहा था। काशी (वाराणसी) में पुलिस आन्दोलनकारियों को गिरफ्तार कर रही थी। पुलिस ने एक पन्द्रह वर्षीय किशोर को पकड़ा और मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया। कम आयु देख कर मजिस्ट्रेट ने पहले तो चेतावनी देकर छोड़ दिया, किन्तु जब वह किशोर दोबारा पकड़ा गया तो मजिस्ट्रेट ने उसे 15 बेंतों की सजा दी। मजिस्ट्रेट के नाम पूछने पर उस किशोर ने ‘आज़ाद’ और निवास स्थान पूछने पर उसने उत्तर दिया था ‘जेलखाना’। यही किशोर आगे

है प्रीत जहाँ की रीत सदा....इन्दीवर साहब ने लिखा ये राष्ट गौरव गान

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 728/2011/168 दे शभक्ति भावों से अभिमंत्रित गीतों की श्रृंखला ‘वतन के तराने’ की आठवीं कड़ी में हम आपका हार्दिक स्वागत करते हैं। आज हम आपसे भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के एक ऐसे व्यक्तित्व पर चर्चा करेंगे, जिसने अपने बौद्धिक बल से अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिये। श्रृंखला की पिछली कड़ी में हमने आपसे चर्चा की थी कि 1951 में पेशवा बाजीराव का निधन हो गया था। उनके बाद अंग्रेजों ने दत्तक पुत्र नाना साहब को उत्तराधिकारी तो मान लिया, किन्तु पेंशन देना स्वीकार नहीं किया। अंग्रेजों की इस अन्यायपूर्ण कार्यवाही के विरुद्ध लार्ड डलहौजी को कई पत्र लिखे गए, किन्तु कोई परिणाम नहीं निकला। ऐसी स्थिति में उन्होने अपने चतुर वकील अजीमुल्ला खाँ को इंग्लैण्ड भेजा, ताकि वहाँ की अदालत में पेंशन के लिए मुकदमा दायर किया जा सके। आगे चल कर 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम में अज़ीमुल्ला खाँ की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हो गई थी। इंग्लैण्ड की अदालत में अज़ीमुल्ला खाँ, नाना साहब की पेंशन तो बहाल न करा सके, किन्तु इस मुकदमे के बहाने समृद्ध भारतीय परम्परा, बौद्धिक सम्पदा और संस्कृति का पूरे इंग्लैण्ड

सीमा सिंघल के कविता-संग्रह 'अर्पिता' का विमोचन अपने कर-कमलों द्वारा करें

सभी साहित्यप्रेमियों को जन्माष्टमी की बधाइयाँ! आज हम इस अवसर पर हिन्द-युग्म प्रकाशन की नवीनतम पुस्तक 'अर्पिता' का ऑनलाइन विमोचन कर रहे हैं। यह पुस्तक युवा कवयित्री सीमा सिंघल का प्रथम काव्य-संग्रह है। चूँकि हिन्द-युग्म का यह मंच ज्यादा बोलने-सुनने और कम लिखने का है। इसलिए हम पुस्तक पर अधिक कलम न चलाकर, सर्वप्रथम तो आपको विमोचन का अवसर प्रदान करते हैं। उसके पश्चात अर्चना चावजी की आवाज़ में पुस्तक पर उनके विचार जानते हैं और उनकी आवाज़ में चुनिंदा कविताएँ सुनते हैं। पहले यहाँ से फीटा काटकर विधिवत लोकार्पण करें। अब नीचे के प्लेयर से अर्चना जी की आवाज़ में पुस्तक-चर्चा सुनें।

वतन पे जो फ़िदा होगा....जब आनंद बख्शी की कलम ने स्वर दिए मंगल पाण्डेय की कुर्बानी को

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 727/2011/167 ‘ओ ल्ड इज गोल्ड’ पर जारी श्रृंखला ‘वतन के तराने’ की सातवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र आपका हार्दिक स्वागत करता हूँ। दोस्तों, इस श्रृंखला में देशभक्ति से परिपूर्ण गीतों के माध्यम से हम अपने उन पूर्वजों का स्मरण कर रहे हैं, जिनके त्याग और बलिदान के कारण आज हम उन्मुक्त हवा में साँस ले रहे हैं। आज के अंक में हम 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम के नायक और प्रथम बलिदानी मंगल पाण्डेय के अदम्य साहस और आत्मबलिदान की चर्चा करेंगे, साथ ही गीतकार आनन्द बक्शी का इन्हीं भावों से ओतप्रोत एक प्रेरक गीत भी सुनवाएँगे। कानपुर के बिठूर में निर्वासित जीवन बिता रहे पेशवा बाजीराव द्वितीय का निधन 14जनवरी, 1851 को हो गया था। उनके दत्तक पुत्र नाना साहब को पेशवा का पद प्राप्त हुआ। अंग्रेजों ने नाना साहब को पेशवा बाजीराव का वारिस तो मान लिया था, किन्तुपेंशन देना स्वीकार नहीं किया। तत्कालीन राजनीतिक परिस्थिति के जानकार नाना साहब अन्दर ही अन्दर अंग्रेजों के विरुद्ध क्रान्ति की योजना बनाने लगे। तीर्थयात्रा के बहाने उन्होने स्थान-स्थान पर अंग्रेजों के विरुद्ध क्रान्ति के लिए लोगों को

ए वतन ए वतन हमको तेरी कसम....प्रेम धवन ने दी बलिदानियों के जज़्बात को जुबाँ

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 726/2011/166 शृं खला ‘वतन के तराने’ की छठी कड़ी में आपका पुनः स्वागत है। इस श्रृंखला के गीतों के माध्यम से हम उन बलिदानियों का पुण्य स्मरण कर रहे हैं, जिन्होंने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध संघर्ष में अपने प्राणों की आहुतियाँ दी। जिनके त्याग, तप और बलिदान के कारण ही हम उन्मुक्त हवा में साँस ले पा रहे हैं। आज जो गीत हम आपके लिए प्रस्तुत करने जा रहे हैं, वह भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के एक ऐसे महानायक से सम्बन्धित है, जिसे नाम के स्थान पर दी गई ‘शहीद-ए-आजम’ की उपाधि से अधिक पहचाना जाता है। जी हाँ, आपका अनुमान बिलकुल ठीक है, हम अमर बलिदानी भगत सिंह की स्मृति को आज स्वरांजलि अर्पित करेंगे। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के अमर बलिदानी भगत सिंह का जन्म एक देशभक्त परिवार में 28सितम्बर, 1907 को ग्राम बंगा, ज़िला लायलपुर (अब पाकिस्तान में) हुआ था। उनके पूर्वज महाराजा रणजीत सिंह की सेना के योद्धा थे। भगत सिंह के दो चाचा स्वर्ण सिंह व अजीत सिंह तथा पिता किशन सिंह ने अपना पूरा जीवन अंग्रेजों की सत्ता उखाड़ने में लगा दिया। ऐसी पारिवारिक पृष्ठभूमि से निकले भगतसिंह के हृदय में अंग्रेज