ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 714/2011/154 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार! सजीव सारथी की लिखी कविताओं की किताब ' एक पल की उम्र लेकर ' से चुनी हुई १० कविताओं पर आधारित शृंखला की आज चौथी कड़ी में हमनें जिस कविता को चुना है, उसका शीर्षक है ' मिलन '। हम मिलते रहे रोज़ मिलते रहे तुमने अपने चेहरे के दाग पर्दों में छुपा रखे थे मैंने भी सब ज़ख्म अपने बड़ी सफ़ाई से ढाँप रखे थे मगर हम मिलते रहे - रोज़ नए चेहरे लेकर रोज़ नए जिस्म लेकर आज, तुम्हारे चेहरे पर पर्दा नहीं आज, हम और तुम हैं, जैसे दो अजनबी दरअसल हम मिले ही नहीं थे अब तक देखा ही नहीं था कभी एक-दूसरे का सच आज मगर कितना सुन्दर है - मिलन आज, जब मैंने चूम लिए हैं तुम्हारे चेहरे के दाग और तुमने भी तो रख दी है मेरे ज़ख्मों पर - अपने होठों की मरहम। मिलन की परिभाषा कई तरह की हो सकती है। कभी कभी हज़ारों मील दूर रहकर भी दो दिल आपस में ऐसे जुड़े होते हैं कि शारीरिक दूरी उनके लिए कोई मायने नहीं रखती। और कभी कभी ऐसा भी होता है कि वर्षों तक साथ रहते हुए भी दो शख्स एक दूजे के लिए अजनबी ही रह जाते हैं। और कभी कभी मिलन की आस लिए द