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अदभुत प्रतिभा की धनी गायिका मिलन सिंह से बातचीत

ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 50 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी दोस्तों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार, और स्वागत है आप सभी का इस 'शनिवार विशेषांक' में। दोस्तों, यूं तो यह साप्ताहिक विशेषांक है, पर इस बार का यह अंक वाक़ई बहुत बहुत विशेष है। इसके दो कारण हैं - पहला यह कि आज यह स्तंभ अपना स्वर्ण जयंती मना रहा है, और दूसरा यह कि आज हम जिस कलाकार से आपको मिलवाने जा रहे हैं, वो एक अदभुत प्रतिभा की धनी हैं। इससे पहले कि हम आपका परिचय उनसे करवायें, हम चाहते हैं कि आप नीचे दी गई ऑडिओ को सुनें। मेडली गीत कभी मोहम्मद रफ़ी, कभी किशोर कुमार, कभी गीता दत्त, कभी शम्शाद बेगम, कभी तलत महमूद और कभी मन्ना डे के गाये हुए इन गीतों की झलकियों को सुन कर शायद आपको लगा हो कि चंद कवर वर्ज़न गायक गायिकाओं के गाये ये संसकरण हैं। अगर ऐसा ही सोच रहे हैं तो ज़रा ठहरिए। हाँ, यह ज़रूर है कि ये सब कवर वर्ज़न गीतों की ही झलकियाँ थीं, लेकिन ख़ास बात यह कि इन्हें गाने "वालीं" एक ही गायिका हैं। जी हाँ, यह सचमुच चौंकाने वाली ही बात है कि इस गायिका को पुरुष और स्त्री कंठों में बख़ूबी गा सकने की अ

अनुराग शर्मा की कहानी "टोड"

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की कहानी " लागले बोलबेन " का पॉडकास्ट उन्हीं की आवाज़ में सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं अनुराग शर्मा की एक कहानी " टोड ", उन्हीं की आवाज़ में। कहानी "टोड" का कुल प्रसारण समय 8 मिनट 4 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। इस कथा का टेक्स्ट बर्ग वार्ता ब्लॉग पर उपलब्ध है। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। पतझड़ में पत्ते गिरैं, मन आकुल हो जाय। गिरा हुआ पत्ता कभी, फ़िर वापस ना आय।। ~ अनुराग शर्मा हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी "देखो, देखो, वह टोड मास्टर और उसकी क्लास!" ( अनुराग शर्मा की "टोड" से एक अंश ) नीचे के प्लेयर से सुनें. (प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ल

रस के भरे तोरे नैन....हिंदी फ़िल्मी गीतों में ठुमरी परंपरा पर आधारित इस शृंखला को देते हैं विराम इस गीत के साथ

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 700/2011/140 भा रतीय फिल्मों में ठुमरियों के प्रयोग पर केन्द्रित श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" के समापन अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| पिछली 19 कड़ियों में हमने आपको फिल्मों में 40 के दशक से लेकर 80 के दशक तक शामिल की गईं ठुमरियों से न केवल आपका परिचय कराने का प्रयत्न किया, बल्कि ठुमरी शैली की विकास-यात्रा के कुछ पड़ावों को रेखांकित करने का प्रयत्न भी किया| आज के इस समापन अंक में हम आपको 1978 में प्रदर्शित फिल्म "गमन" की एक मनमोहक ठुमरी का रसास्वादन कराएँगे; परन्तु इससे पहले वर्तमान में ठुमरी गायन के सशक्त हस्ताक्षर पण्डित छन्नूलाल मिश्र से आपका परिचय भी कराना चाहते हैं| एक संगीतकार परिवार में 3 अगस्त,1936 को उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जनपद में जन्में छन्नूलाल मिश्र की प्रारम्भिक संगीत-शिक्षा अपने पिता बद्रीप्रसाद मिश्र से प्राप्त हुई| बाद में उन्होंने किराना घराने के उस्ताद अब्दुल गनी खान से घरानेदार गायकी की बारीकियाँ सीखीं| जाने-माने संगीतविद ठाकुर जयदेव सिंह का मार्गदर्शन भी श्री मिश्र को मिला| निरन्तर शोधपूर्ण प्रवृत्ति के कारण उनकी ख्याल ग

"सैयाँ रूठ गए, मैं मनाती रही..." रूठने और मनाने के बीच विरहिणी नायिका का अन्तर्द्वन्द्व

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 699/2011/139 उ पशास्त्रीय संगीत की अत्यन्त लोकप्रिय शैली -ठुमरी के फिल्मों में प्रयोग विषयक श्रृंखला "रस के भरे तोते नैन" की उन्नीसवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र आपका हार्दिक स्वागत करता हूँ| दोस्तों; आज का अंक आरम्भ करने से पहले आपसे दो बातें करने की इच्छा हो रही है| इस श्रृंखला को प्रस्तुत करने की योजना जब सुजॉय जी ने बनाई तब से सैकड़ों फ़िल्मी ठुमरियाँ मैंने सुनी, किन्तु इनमे से भक्तिरस का प्रतिनिधित्व करने वाली एक भी ठुमरी नहीं मिली| जबकि आज मुख्यतः श्रृंगार, भक्ति, आध्यात्म और श्रृंगार मिश्रित भक्ति रस की ठुमरियाँ प्रचलन में है| पिछली कड़ियों में हमने -कुँवरश्याम, ललनपिया, बिन्दादीन महाराज आदि रचनाकारों का उल्लेख किया था, जिन्होंने भक्तिरस की पर्याप्त ठुमरियाँ रची हैं| परन्तु फिल्मों में सम्भवतः ऐसी ठुमरियों का अभाव है| पिछले अंकों में हम यह भी चर्चा कर चुके हैं कि उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों से तवायफों के कोठे से हट कर जनसामान्य के बीच ठुमरी का प्रचलन आरम्भ हो चुका था| देश के स्वतंत्र होने तक ठुमरी अनेक राष्ट्रीय और प्रादेशिक महत्त्व के

कान्हा मैं तोसे हारी...कृष्णलीला से जुड़ी श्रृंगारपूर्ण ठुमरी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 698/2011/138 इ स श्रृंखला की आरम्भिक कड़ियों में ठुमरी शैली के विकास के प्रसंग में हमने अवध के नवाब वाजिद अली शाह के दरबार की चर्चा की थी| कथक नृत्य और ठुमरी का विकास नवाब के संरक्षण में ही हुआ था| श्रृंखला की चौथी कड़ी में हमने नवाब के दरबार में सुप्रसिद्ध पखावजी कुदऊ सिंह और नौ वर्षीय बालक बिन्दादीन के बीच अनोखे मुकाबले का प्रसंग प्रस्तुत किया था| यही बालक आगे चल कर कथक नृत्य के लखनऊ घराने का संस्थापक बना| मात्र नौ वर्ष की आयु में दिग्गज पखावजी कुदऊ सिंह से मुकाबला करने वाला बिन्दादीन 12 वर्ष की आयु तक तालों का ऐसा ज्ञाता हो गया, जिससे बड़े-बड़े तबला और पखावज वादक घबराते थे| बिन्दादीन के भाई थे कालिका प्रसाद| ये भी एक कुशल तबला वादक थे| आगे चल कर बिंदादीन कथक नृत्य को शास्त्रोक्त परिभाषित करने में संलग्न हो गए और तालपक्ष कालिका प्रसाद सँभालते थे| विन्ददीन द्वारा विकसित कथक नृत्य में ताल पक्ष का अनोखा चमत्कार भी था और भाव अभिनय की गरिमा भी थी| उन्होंने लगभग 1500 ठुमरियों की रचना भी की, जिनका प्रयोग परम्परागत रूप में आज भी किया जाता है| बिन्दादीन निःसन्तान थे, कि

ठाढ़े रहियो ओ बाँके यार...लोक-रस से अभिसिंचित ठुमरी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 697/2011/137 'ओ ल्ड इज गोल्ड' पर जारी श्रृंखला 'रस के भरे तोरे नैन' की सत्रहवीं कड़ी में समस्त ठुमरी-रसिकों का स्वागत है| श्रृंखला के समापन सप्ताह में हम 70 के दशक की फिल्मों में शामिल ठुमरियों से और वर्तमान में सक्रिय कुछ वरिष्ठ ठुमरी गायक-गायिकाओं से आपका परिचय करा रहे हैं| कल के अंक में हमने पूरब अंग की ठुमरियों की सुप्रसिद्ध गायिका सविता देवी और उनकी माँ सिद्धेश्वरी देवी से आपका परिचय कराया था| आज के अंक में हम विदुषी गिरिजा देवी से आपका परिचय करा रहे हैं| गिरिजा देवी का जन्म 8 मई 1929 को कला और संस्कृति की नगरी वाराणसी (तत्कालीन बनारस) में हुआ था| पिता रामदेव राय जमींदार थे और संगीत-प्रेमी थे| उन्होंने पाँच वर्ष की आयु में ही गिरिजा देवी के संगीत-शिक्षा की व्यवस्था कर दी थी| गिरिजा देवी के प्रारम्भिक संगीत-गुरु पण्डित सरयूप्रसाद मिश्र थे| नौ वर्ष की आयु में पण्डित श्रीचन्द्र मिश्र से उन्होंने संगीत की विभिन्न शैलियों की शिक्षा प्राप्त करना आरम्भ किया| नौ वर्ष की आयु में ही एक हिन्दी फिल्म "याद रहे" में गिरिजा देवी ने अभिनय भी किया

"बैयाँ ना धरो.." श्रृंगार का ऐसा रूप जिसमें बाँह पकड़ने की मनाही भी है और आग्रह भी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 696/2011/136 श्रृं खला "रस के भरे तोरे नैन" के तीसरे और समापन सप्ताह के प्रवेश द्वार पर खड़ा मैं कृष्णमोहन मिश्र आप सभी संगीतानुरागियों का अभिनन्दन करता हूँ| पिछले तीन सप्ताह की 15 कड़ियों में हमने आपको बीसवीं शताब्दी के चौथे दशक से लेकर सातवें दशक तक की फिल्मों में शामिल ठुमरियों का रसास्वादन कराया है| श्रृंखला के इस समापन सप्ताह की कड़ियों में हम आठवें दशक की फिल्मों से चुनी हुई ठुमरियाँ लेकर उपस्थित हुए हैं| श्रृंखला के पिछले अंकों में हम यह चर्चा कर चुके हैं कि 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम तक भारतीय संगीत शैलियों को समुचित राजाश्रय न मिलने और तवायफों के कोठों पर फलने-फूलने के कारण सुसंस्कृत समाज में यह उपेक्षित रहा| ऐसे कठिन समय में भारतीय संगीत के दो उद्धारकों ने जन्म लिया| आम आदमी को संगीत सुलभ कराने और इसे समाज में प्रतिष्ठित स्थान दिलाने में पं. विष्णु नारायण भातखंडे (1860) तथा पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर (1872) ने पूरा जीवन समर्पित कर दिया| इन दोनों 'विष्णु' को भारतीय संगीत का उद्धारक मानने में कोई मतभेद नहीं| भातखंडे जी ने पूरे देश