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ओल्ड इस गोल्ड -शनिवार विशेष - संगीतकार दान सिंह को भावभीनी श्रद्धाजंली

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी दोस्तों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार, और स्वागत है आप सभी का इस 'शनिवार विशेषांक' में। फ़िल्म-संगीत के सुनहरे दौर के बहुत से ऐसे कमचर्चित संगीतकार हुए हैं जिन्होंने बहुत ही गिनी चुनी फ़िल्मों में संगीत दिया, पर संख्या में कम होने की वजह से ये संगीतकार धीरे धीरे हमारी आँखों से ओझल हो गये। हम भले इनके रचे गीतों को यदा-कदा सुन भी लेते हैं, पर इनके व्यक्तिगत जीवन के बारे में बहुत कम लोगों को पता होता है। यहाँ तक कि कई बार इनकी खोज ही नहीं मिल पाती, ये जीवित हैं या नहीं, सटीक रूप से कहा भी नहीं जा सकता। और जिस दिन ये संगीतकार इस जगत को छोड़ कर चले जाते हैं, उस दिन उनके परिवार वालों के सहयोग से किसी अख़्बार के कोने में यह ख़बर छप जाती है कि फ़लाना संगीतकार नहीं रहे। पिछले महीने एक ऐसे ही कमचर्चित संगीतकार हमसे हमेशा के लिए जुदा हो गये। लीवर की बीमारी से ग्रस्त, ७८ वर्ष की आयु में संगीतकार दान सिंह नें १८ जून को अंतिम सांस ली। दान सिंह का नाम लेते ही फ़िल्म 'माइ लव' के दो गीत "वो तेरे प्यार का ग़म" और "ज़िक्र होता है जब क़यामत का&quo

अनुराग शर्मा की कहानी "लागले बोलबेन"

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने जयशंकर प्रसाद की कहानी " कला " का पॉडकास्ट अनुराग शर्मा की आवाज़ में सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं अनुराग शर्मा की एक सामयिक कहानी " लागले बोलबेन ", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। कहानी "लागले बोलबेन" का कुल प्रसारण समय 1 मिनट 19 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। इस कथा का टेक्स्ट बर्ग वार्ता ब्लॉग पर उपलब्ध है। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। पतझड़ में पत्ते गिरैं, मन आकुल हो जाय। गिरा हुआ पत्ता कभी, फ़िर वापस ना आय।। ~ अनुराग शर्मा हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी उन महाशय ने पहले तो आँखें तरेर कर देखा फ़िर वापस अपने अखबार में मुंह छिपाकर बड़ी बेरुखी से बोले, "लागले बोलबेन" ( अनुराग शर्मा की "लागले बो

फूल गेंदवा ना मारो... - रसूलन बाई के श्रृंगार रस में हास्य रस का रंग भरते मन्ना डे

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 695/2011/135 "ओ ल्ड इज गोल्ड" पर जारी श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" की आज की इस नई कड़ी में कृष्णमोहन मिश्र की ओर से आप सभी पाठकों / श्रोताओं का स्वागत है| कल के अंक में हमने पूरब अंग ठुमरी की अप्रतिम गायिका रसूलन बाई के कृतित्व से आपका परिचय कराया था| आज हम पूरब अंग की ठुमरी पर चर्चा जारी रखते हुए एक ऐसे व्यक्तित्व से परिचय प्राप्त करेंगे, जिन्हें ठुमरी की "बनारसी शैली के प्रवर्तक" के रूप में मान्यता दी गई है| ठुमरी के इस शिखर-पुरुष का नाम है जगदीप मिश्र| इनका जन्म आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश) के एक कथक परिवार में हुआ था| संगीत के संस्कार उन्हें अपने संगीतजीवी परिवार से ही मिले| बाद में इनका परिवार वाराणसी आकर बस गया| जगदीप जी, भैया गणपत राव के समकालीन थे और उन्ही के समान ठुमरी गायन में बोलों के बनाव अर्थात बोलों में निहित भावों को स्वरों की सहायता से अभिव्यक्त करने के पक्ष में थे| वाराणसी के संगीत परिवेश के जानकार और ठुमरी गायक रामू जी (रामप्रसाद मिश्र) के अनुसार मौजुद्दीन खाँ ने प्रारम्भ में जगदीप मिश्र को सुन-सुन कर ही ठुमरी गाना सीखा थ

जा मैं तोसे नाहीं बोलूँ....मान-मनुहार की ठुमरी का मोहक अन्दाज़

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 694/2011/134 पि छली कुछ कड़ियों में हमने आपसे "बोल-बाँट" या "बन्दिश" की ठुमरियों और इस शैली के प्रमुख रचनाकारों के विषय में चर्चा की है| आज के इस अंक में हम आपसे "बोल-बनाव" की ठुमरियों पर कुछ बातचीत करेंगे| दरअसल बोल-बनाव की ठुमरियों का विकास बनारस में हुआ| इस प्रकार की ठुमरियों में शब्द बहुत कम होते हैं और यह विलम्बित लय से शुरू होती हैं| इनमें स्वरों के प्रसार की बहुत गुंजाइश होती है| छोटी-छोटी मुरकियाँ, खटके, मींड का प्रयोग ठुमरी की गुणबत्ता को बढाता है| कुशल गायक ठुमरी के शब्दों से अभिनय कराते हैं| गायक कलाकार ठुमरी के कुछ शब्दों को लेकर अलग-अलग भावपूर्ण अन्दाज़ में प्रस्तुत करते हैं| अन्त में कहरवा ताल की लग्गी के साथ ठुमरी समाप्त होती है| ठुमरी के इस भाग में तबला संगतिकार को अपनी प्रतिभा दिखाने का भरपूर मौका मिलता है| बात जब बोल-बनाव ठुमरी की हो तो रसूलन बाई का ज़िक्र आवश्यक हो जाता है| पूरब अंग की गायकी- ठुमरी, दादरा, होरी, चैती, कजरी आदि शैलियों की अविस्मरणीय गायिका रसूलन बाई बनारस (वाराणसी) की रहनेवाली थीं| संगीत का संस्कार इ

चाहे तो मोरा जिया लईले....राग पीलू में निखरता श्रृंगार का एक और रूप

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 693/2011/133 फि ल्मों में ठुमरी के प्रयोग पर केन्द्रित श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" की तेरहवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार फिर आपका स्वागत करता हूँ| कल की कड़ी में हमने "पछाहीं ठुमरी" की कुछ प्रमुख विशेषताओं और रचनाकारों से आपका परिचय कराया था| आज हम इसी प्रसंग को आगे बढ़ाते हुए ठुमरी के क्रमशः विस्तृत होते क्षेत्र पर भी चर्चा करेंगे| उन्नीसवी शताब्दी के अन्तिम दशक में नज़र अली और उनके भाई कदर अली ठुमरी के बड़े प्रवीण गायक हुए| ये दोनों भाई संगीतजीवी वर्ग के थे और मूलतः लखनऊ-निवासी थे| बाद में दोनों भाई ग्वालियर जाकर बस गए| नज़र अली ने "नज़रपिया" नाम से अनेक ठुमरियों की रचना की| इनकी अधिकतर ठुमरियाँ बोल-बाँट की हैं| ग्वालियर के सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ राजभैया पुँछवाले ने भी नज़रपिया से ठुमरी गायन सीखा था| उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक जनसामान्य में ठुमरी गायन इतना लोकप्रिय हो चला था कि तवायफों के अतिरिक्त उस समय देश के अनेक घरानेदार और प्रतिष्ठित ध्रुवपद तथा ख़याल गायकों ने इसे बड़े शौक से अपनाया| ध्रुवपद गायकों में मथुरा के चन

"गोरी तोरे नैन काजर बिन कारे..." श्रृंगार का एक अन्दाज़ यह भी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 692/2011/132 भा रतीय संगीत की अत्यन्त लोकप्रिय उपशास्त्रीय शैली "ठुमरी" का फिल्मों में प्रयोग विषयक जारी श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" के इस नए अंक में आपका स्वागत है| कल हमने "पछाहीं ठुमरी" के बेमिसाल रचनाकार और गायक ललनपिया का आपसे परिचय कराया था| मध्यलय और द्रुतलय में गायी जाने वाली बोल-बाँट या बन्दिश की पछाहीं ठुमरियों में लय का चमत्कार और चपलता का गुण होता है| आज की कड़ी में पछाहीं ठुमरियों पर चर्चा को आगे बढाते हैं| पछाहीं ठुमरियाँ अधिकतर ब्रज भाषा में होती हैं| पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ब्रज और बुन्देलखण्ड क्षेत्र के लोक संगीत का इन ठुमरियों पर विशेष प्रभाव पड़ा| दूसरी ओर इनकी रचना करने में घरानेदार गायकों, सितारवादकों और कथक-नर्तकों का विशेष योगदान होने के कारण इन पर परम्परागत राग-संगीत का भी प्रभाव पड़ा| इसलिए बोल-बाँट की ठुमरी रचनाओं में विविधता दिखाई देती है| कुछ ठुमरियों में ध्रुवपद की तरह आड़ और दुगुन आदि लयकारियों का प्रयोग भी मिलता है| पूरब की ठुमरियाँ लोकधुनों और चंचल-हलकी प्रकृति के रागों तक सीमित हैं, वहीं पछांह की ठ

जब साहित्यिक और पौराणिक किरदारों को अपना "रंग" दिया एफ टी एस के कलाकारों ने

पिछले दिनों हिंद युग्म के खबर पृष्ठ पर हमने रंग महोत्सव के बारे में जानकारी दी थी. फिल्म एंड थियटर सोसायटी द्वारा आयोजित यह पहला वार्षिक आर्ट फेस्टिवल् जिसे "रंग" नाम दिया गया था, दिल्ली के लोधी रोड स्तिथ अलायेंज फ्रंकाईस और इंडिया हेबिटाट सभागारों में धूम धाम से संपन्न हुआ. इसमें कुल ५ नाटकों का मंचन हुआ और एक शाम रही संगीत बैंड ब्रह्मनाद के सजीव परफोर्मेंस के नाम. काफी संख्या में दर्शकों ने इस अनूठे आयोजन का आनद लिया. ५ नाटकों में से एक "सिद्धार्थ" (जिसे अशोक छाबड़ा ने निर्देशित किया है) को छोड़कर अन्य सभी नाटक युवा निर्देशक अतुल सत्य कौशिक द्वारा निर्देशित हैं, और अधिकतर कलाकार भी अपेक्षाकृत नए ही हैं रंगमंच की दुनिया में मगर सबकी कर्मठता, जुझारूपन और खुद को साबित करने की लगन उनके अभिनय में साफ़ देखी जा सकती है. अधिकतर नाटक नामी साहित्यकारों की रचनाओं से प्रेरित हैं पर निर्देशक और उनकी टीम ने उसमें अपना 'रंग' भी भरा है. नाटकों को बेहद व्यवाहरिक और मनोरंजक अंदाज़ में प्रस्तुत किया गया है ताकि दर्शक एक पल के लिए भी ऊब महसूस न करे. यानी किरदार और विषय गंभीर