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कुछ अनजाने अफ़साने सुना रही है आवाज़ की संगीत टीम अपनी नयी अल्बम "मन जाने" में

Taaza Sur Taal (TST) - 19/2011 - Mann Jaane दोस्तों, संगीत की विविधताओं से भरे इस देश में ये दुर्भाग्य ही है कि आज कल हमें संगीत के नाम पर केवल फिल्म संगीत ही सुनने को मिल रहा है. और बहुत से कारणों के चलते इसमें भी कोई विविधता नज़र नहीं आ रही है. यहाँ तक कि फिल्म संगीत के सबसे बुरे माने जाने वाले ८० के दशक में भी गैर फ़िल्मी ग़ज़लों की अल्बम्स एक अलग तरह के श्रोताओं की जरूरतें पूरी कर रहीं थी, और उस दौर के युवा श्रोताओं के लिए भी बहुत सी गैर फ़िल्मी अल्बम्स जो रोक्क्, पॉप, डिस्को, आदि जोनर का प्रतिनिधित्व कर रहीं थी, उपलब्ध थी. पर आज के इस दौर में तो लगता है, गैर फ़िल्मी संगीत लगभग गायब हो चुका है क्योंकि सबपर फिल्म संगीत हावी हो चुका है. ढेरों टेलंट की खोजों के नाम पर बहुत से नए कलाकारों को एक मंच तो दिया जा रहा है पर कितने इंडियन आइडल्स को हम आज सुन पा रहे हैं कुछ नया करते हुए. संगीत के इस सूखे दौर में फिल्मों से इतर जो संगीत की कोशिशें हो रही है उनको पर्याप्त प्रोत्साहन मिलना चाहिए, ताकि सचमुच ये तथाकथित नया टेलंट वाकई में कुछ नया करने की गुन्जायिश पैदा कर सके और श्रोताओं को भी कुछ

भैरवी के सुरों में कृष्ण ने राह चलती राधा की चुनरी रंग डारी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 690/2011/130 आ ज सप्ताहान्त की प्रस्तुति में एक बार फिर आप सभी संगीत प्रेमियों का स्वागत है| पिछले सप्ताह आपसे किये वायदे का पालन करते हुए आज भी हम एक मनमोहक ठुमरी भैरवी के साथ उपस्थित हैं| उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशक में जब "बनारसी ठुमरी" के विकास के साथ-साथ लखनऊ से पूर्व की ओर, बनारस से लेकर बंगाल तक विस्तृत होती जा रही थी, वहीं दूसरी ओर लखनऊ से पश्चिम दिशा में दिल्ली तक "पछाहीं अंग" की "बोल-बाँट" और "बन्दिशी" ठुमरी का प्रचलन बढ़ता जा रहा था| 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद लखनऊ के सनदपिया रामपुर दरबार चले गए थे, जहाँ कुछ समय रह कर उन्होंने ठुमरी का चलन शुरू किया| रामपुर दरबार के सेनिया घराने के संगीतज्ञ बहादुर हुसेन खाँ और उस्ताद अमीर खाँ इस नई गायन शैली से बहुत प्रभावित हुए और इसके विकास में अपना योगदान किया| इसी प्रकार ठुमरी शैली का दिल्ली के संगीत जगत में न केवल स्वागत हुआ, बल्कि अपनाया भी गया| उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दो दशकों में दिल्ली में ठुमरी के कई गायक और रचनाकार हुए, जिन्होंने इस शैली को स

सजन संग काहे नेहा लगाए...उलाहना भाव में करुण रस की अनुभूति कराती ठुमरी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 689/2011/129 श्रृं खला "रस के भरे तोरे नैन" की नौवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सभी संगीत-प्रेमियों का स्वागत करता हूँ| कल के अंक में आपने रईसों और जमींदारों की छोटी-छोटी महफ़िलों में फलती-फूलती ठुमरी शैली की जानकारी प्राप्त की| इस समय तक ठुमरी गायन की तीन प्रकार की उप-शैलियाँ विकसित हो चुकी थी| नृत्य के साथ गायी जाने वाली ठुमरियों में लय और ताल का विशेष महत्त्व होने के कारण ऐसी ठुमरियों को "बन्दिश" या "बोल-बाँट" की ठुमरी कहा जाने लगा| इस प्रकार की ठुमरियाँ छोटे ख़याल से मिलती-जुलती होती हैं, जिसमे शब्द का महत्त्व बढ़ जाता है| ऐसी ठुमरियों को सुनते समय ऐसा लगता है, मानो तराने पर बोल रख दिए गए हों| ठुमरी का दूसरा प्रकार जो विकसित हुआ उसे "बोल-बनाव" की ठुमरी का नाम मिला| ऐसी ठुमरियों में शब्द कम और स्वरों का प्रसार अधिक होता है| गायक या गायिका कुछ शब्दों को चुन कर उसे अलग-अलग अन्दाज़ में प्रस्तुत करते हैं| धीमी लय से आरम्भ होने वाली इस प्रकार की ठुमरी का समापन द्रुत लय में कहरवा की लग्गी से किया जाता है| ठुमरी के यह

"भर भर आईं अँखियाँ..." - जब महफ़िलों की शान बनी ठुमरी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 688/2011/128 क ल की कड़ी में हमने आपसे ठुमरी शैली के अत्यन्त प्रतिभाशाली कलासाधक और प्रचारक भैया गणपत राव के बारे में जानकारी बाँटी थी| फिल्मों में ठुमरी विषय पर जारी श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन.." की आज की आठवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र आपका पुनः स्वागत करता हूँ और भैया गणपत राव के एक शिष्य मौज़ुद्दीन खां के विषय में कुछ जानकारी देता हूँ| जिस प्रकार भैया जी अपने गुरु सादिक अली खां की ठुमरी का पाठान्तर करते थे, उसी तरह मौज़ुद्दीन खां अपने गुरु भैया जी की ठुमरी की अपने ढंग से व्याख्या करते थे| मौज़ुद्दीन खां ठुमरी के विलक्षण कलाकार थे| मात्र 33 वर्ष की उम्र में दिवंगत होने से पहले मौज़ुद्दीन खां ने ठुमरी शैली को इतना समृद्ध कर दिया था कि आज के ठुमरी गायक भी सम्मान के साथ उनकी गायन शैली को स्वीकार करते हैं| आइए आपको मौज़ुद्दीन खां से जुड़ा एक रोचक प्रसंग सुनाते हैं| बात 1909 की है, बनारस (अब वाराणसी) के प्रसिद्ध रईस और संगीत-प्रेमी मुंशी माधवलाल की विशाल कोठी में संगीत की महफ़िल का आयोजन हुआ था जिसमे उस समय की प्रसिद्ध गायिकाएँ राजेश्वरी बाई, हुस्ना

"कासे कहूँ मन की बात..." - रंगमंच पर आने को आतुर ठुमरी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 687/2011/127 फि ल्मों में ठुमरी विषयक श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" में इन दिनों हम ठुमरी शैली के विकास- क्रम पर चर्चा कर रहे हैं| बनारस में ठुमरी पर चटक लोक-रंग चढ़ा| यह वह समय था जब अंग्रेजों के विरुद्ध 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम विफल हो गया था और एक-एक कर देशी रियासतें ब्रिटिश शासन के कब्जे में आते जा रहे थे| कलाकारों से राजाश्रय छिनता जा रहा था| भारतीय कलाविधाओं को अंग्रेजों ने हमेशा उपेक्षित किया| ऐसे कठिन समय में तवायफों ने, भारतीय संगीत; विशेष रूप से ठुमरी शैली को जीवित रखने में अमूल्य योगदान किया| भारतीय फिल्मों के प्रारम्भिक तीन-चार दशकों में अधिकतर ठुमरियाँ तवायफों के कोठे पर ही फिल्माई गई| पिछले अंक में अवध के जाने-माने संगीतज्ञ उस्ताद सादिक अली खां का जिक्र हुआ था| अवध की सत्ता नवाब वाजिद अली शाह के हाथ से निकल जाने के बाद सादिक अली ने ही "ठुमरी" का प्रचार देश के अनेक भागों में किया था| सादिक अली खां के एक परम शिष्य थे भैयासाहब गणपत राव; जो हारमोनियम वादन में दक्ष थे| सादिक अली से प्रेरित होकर गणपत राव हारमोनियम जैसे वि

"नज़र लागी राजा तोरे बंगले पर.." - ठुमरी जब लोक-रंग में रँगी हो

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 686/2011/126 'ओ ल्ड इज गोल्ड' पर जारी श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" के दूसरे सप्ताह में मैं कृष्णमोहन मिश्र आप सभी संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ| पिछले अंकों में हमने आपके साथ "ठुमरी" के प्रारम्भिक दौर की जानकारी बाँटी थी| यह भी चर्चा हुई थी कि उस दौर में "ठुमरी" कथक नृत्य का एक हिस्सा बन गई थी| परन्तु एक समय ऐसा भी आया जब "ठुमरी" की विकास-यात्रा में थोड़ा व्यवधान भी आया| इस शैली के पृष्ठ-पोषक नवाब वाजिद अली शाह को 1856 में अंग्रेजों ने अपनी साम्राज्यवादी नीतियों के कारण बन्दी बना लिया गया| नवाब को बन्दी बना कर कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) के मटियाबुर्ज नामक स्थान पर भेज दिया गया| नवाब यहाँ पर मृत्यु-पर्यन्त (1887) तक स्थायी रूप से रहे| नवाब वाजिद अली शाह के लखनऊ छूटने से पहले तक "ठुमरी" की जड़ें जमीन को पकड़ चुकी थीं| इस दौर में केवल संगीतज्ञ ही नहीं बल्कि शासक, दरबारी, सामन्त, शायर, कवि आदि सभी "ठुमरी" की रचना, गायन और उसके भावाभिनय में प्रवृत्त हो गए थे| वाजिद अली शाह के रिश्ते

सुर संगम में आज - वैदिककालीन तंत्रवाद्य रूद्रवीणा के साधक उस्ताद असद अली खाँ के तंत्र-स्वर शान्त हुए

सुर संगम - 26 - उस्ताद असद अली खाँ वे भगवान शिव को रूद्रवीणा का निर्माता मानते थे| सा प्ताहिक स्तम्भ 'सुर संगम' के इस विशेष अंक में आज हम रूद्रवीणा के अनन्य साधक उस्ताद असद अली खाँ को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए उपस्थित हुए हैं, जिनका गत 14 जून को दिल्ली में निधन हो गया| उनके निधन से हमने वैदिककालीन वाद्य रूद्रवीणा को परम्परागत रूप से आधुनिक संगीत जगत में प्रतिष्ठित कराने वाले एक अप्रतिम कलासाधक को खो दिया है| उस्ताद असद अली खाँ जयपुर बीनकार (वीणावादकों) घराने की बारहवीं पीढी के कलासाधक थे | यह घराना जयपुर के सेनिया घराने का ही एक हिस्सा है| असद अली खाँ का जन्म 1937 में अलवर (राजस्थान) रियासत में हुआ था, परन्तु उनकी संगीत-शिक्षा रामपुर में हुई| उनके पिता उस्ताद सादिक अली खाँ रामपुर दरबार में रूद्रवीणा के प्रतिष्ठित वादक थे| उनके प्रपितामह उस्ताद रज़ब अली खाँ जयपुर घराने के दरबारी वीणावादक थे तथा रूद्रवीणा के साथ-साथ सितार और दिलरुबावादन में भी दक्ष थे| असद अली खाँ के पितामह उस्ताद मुशर्रफ अली खाँ को भी जयपुर के दरबारी वीणावादक के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त थी| आज हम जिसे सं