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हटो काहे को झूठी बनाओ बतियाँ...मेलोडी और हास्य के मिश्रण वाले ऐसे गीत अब लगभग लुप्त हो चुके हैं

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 649/2010/349 म न्ना डे के गीतों की चर्चा महमूद के बिना अधूरी रहेगी। हास्य अभिनेता महमूद नें रुपहले परदे पर बहुतेरे गीत गाये, जिन्हें मन्ना डे ने ही स्वर दिया। एक समय ऐसा लगता था, मानो मन्ना डे, महमूद की आवाज़ बन चुके हैं। परन्तु बात ऐसी थी नहीं। इसका स्पष्टीकरण फिल्म "पड़ोसन" के प्रदर्शन के बाद स्वयं महमूद ने दिया था। पत्रकारों के प्रश्न के उत्तर में महमूद ने कहा था -"मन्ना डे साहब को मेरी नहीं बल्कि मुझे उनकी ज़रुरत होती है। उनके गाये गानों पर स्वतः ही अच्छा अभिनय मैं कर पाता हूँ। महमूद के इस कथन में शत-प्रतिशत सच्चाई थी। यह तो निर्विवाद है कि उन दिनों शास्त्रीय स्पर्श लिये गानों और हास्य मिश्रित गानों के लिए मन्ना डे के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं था। उस दौर के प्रायः सभी हास्य अभिनेताओं के लिए मन्ना डे ने पार्श्वगायन किया था। 1961 में एक फिल्म आई थी "करोड़पति', जिसमें किशोर कुमार नायक थे। किशोर कुमार उन दिनों गायक के रूप में कम, अभिनेता बनने के लिए अधिक प्रयत्न कर रहे थे। फिल्म में संगीत शंकर-जयकिशन का था। मन्ना डे नें उस फिल्म में हास

लागा चुनरी में दाग छुपाऊं कैसे....देखिये कैसे लौकिक और अलौकिक स्वरों के बीच उतरते डूबते मन्ना दा बाँध ले जाते हैं हमारा मन भी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 648/2010/348 'अ पने सुरों में मेरे सुरों को बसा लो' - मन्ना डे को समर्पित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस शृंखला की आठवीं कड़ी में मैं, कृष्णमोहन मिश्र आप सभी का स्वागत करता हूँ। शंकर-जयकिशन और अनिल विश्वास के अलावा एक और अत्यन्त सफल संगीतकार थे, जो मन्ना डे की प्रतिभा के कायल थे।| उस संगीतकार का नाम था- रोशनलाल नागरथ, जिन्हें फिल्म संगीत के क्षेत्र में रोशन के नाम से खूब ख्याति मिली थी। अभिनेता राकेश रोशन और संगीतकार राजेश रोशन उनके पुत्र हैं तथा अभिनेता ऋतिक रोशन पौत्र हैं। रोशन जी की संगीत शिक्षा लखनऊ के भातखंडे संगीत महाविद्यालय (वर्तमान में विश्वविद्यालय) से हुई थी। उन दिनों महाविद्यालय के प्रधानाचार्य डा. श्रीकृष्ण नारायण रातनजनकर थे। रोशन जी डा. रातनजनकर के प्रिय शिष्य थे। संगीत शिक्षा पूर्ण हो जाने के बाद रोशन ने दिल्ली रेडियो स्टेशन में दिलरुबा (एक लुप्तप्राय गज-तंत्र वाद्य) वादक की नौकरी की। उनका फ़िल्मी सफ़र 1948 में केदार शर्मा की फिल्म 'नेकी और बदी' से आरम्भ हुआ, किन्तु शुरुआती फिल्मे कुछ खास चली नहीं। मन्ना डे से रोशन का साथ 1957 की

द अवेकनिंग सीरीस की पहली पेशकश आतंकवाद के खिलाफ - दोहराव

हिंद युग्म ने आधारशिला फिल्म्स के साथ सहयोग कर अलग अलग मुद्दों को दर्शाती एक लघु शृंखला "द अवेकनिंग सीरिस" शुरू की है. अभी शुरुआत में ये एक जीरो बजेट प्रयोगात्मक रूप में ही है, जैसे जैसे आगे बढ़ेगें इसमें सुधार की संभावना अवश्य ही बनेगी. इस शृंखला में ये पहली कड़ी है जिसका शीर्षक है -दोहराव. विचार बीज और कविता है सजीव सारथी की, संगीत है ऋषि एस का, संपादन है जॉय कुमार का और पार्श्व स्वर है मनुज मेहता का. फिल्म संक्षिप्त में इस विचार पर आधारित है - जब किसी इलाके में मच्छर अधिक हो जाए तो सरकार जाग जाती है और डी टी पी की दवाई छिडकती है, ताकि मच्छर मरे और जनता मलेरिया से बच सके. आतंकवाद रुपी इस महामारी से निपटने के लिए सरकार अभी और कितने लोगों की बलि का इंतज़ार कर रही है ? क्या हम सिर्फ सरकार के जागने का इंतज़ार कर सकते हैं या कुछ और....