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एक बंगला बने न्यारा...एक और आशावादी गीत के एल सहगल की आवाज़ में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 625/2010/325 १९३५ में पार्श्वगायन की नीव रखने वाली फ़िल्म 'धूप छाँव' के संगीतकार थे राय चंद बोराल और उनके सहायक थे पंकज मल्लिक साहब। इस फ़िल्म में के. सी. डे, पारुल घोष, सुप्रभा सरकार, उमा शशि और पहाड़ी सान्याल के साथ साथ कुंदन लाल सहगल नें भी गाया था "अंधे की लाठी तू ही है"। सन् '३५ में प्रदर्शित 'देवदास' का ज़िक्र तो हम कल ही कर चुके हैं। इसी साल संगीतकार मिहिरकिरण भट्टाचार्य के संगीत में 'कारवाँ-ए-हयात' में सहगल साहब नें कई ग़ज़लें गायीं। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर जारी है सहगल साहब पर केन्द्रित लघु शृंखला 'मधुकर श्याम हमारे चोर'। १९३६ में एक बार फिर बोराल साहब और पंकज बाबू के संगीत से सजी मशहूर फ़िल्म आई 'करोड़पति', जिसका सहगल साहब का गाया "जगत में प्रेम ही प्रेम भरा है" गीत बहुत लोकप्रिय हुआ। इसी साल तिमिर बरन के संगीत में फ़िल्म 'पुजारिन' का ज़िक्र हम कल की कड़ी में कर चुके हैं। साल १९३७ सहगल साहब के करीयर का एक और महत्वपूर्ण पड़ाव बना, क्योंकि इसी साल आई फ़िल्म 'प्रेसिडेण्ट'

दुख के दिन अब बीतत नाहीं.....सहगल की आवाज़ और दर्द की रिश्ता भी काफी गहरा था

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 624/2010/324 अ गर हम "पैथोस" शब्द का पर्यायवाची शब्द "सहगल" कहें तो शायद यह जवाब बहुत ग़लत नहीं होगा। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार और बहुत बहुत स्वागत है कुंदन लाल सहगल को समर्पित इस लघु शृंखला 'मधुकर श्याम हमारे चोर' की चौथी कड़ी में। न्यु थिएटर्स के संगीतकारों में एक नाम तिमिर बरन का भी है। १९३३ में 'पूरन भगत' और १९३४ में 'चंडीदास' के कालजयी गीतों के बाद १९३५ में तो सहगल साहब ने जैसे तहलका ही मचा दिया। सहगल साहब की फ़िल्मों की फ़ेहरिस्त में शायद सब से हिट फ़िल्म रही है १९३५ की पी. सी. बरुआ निर्देशित फ़िल्म 'देवदास'। तिमिर बरन को इस फ़िल्म में संगीत देने का ज़िम्मा सौंपा गया और किदार शर्मा नें गीत लिखे। इस गीतकार-संगीतकार जोड़ी के कलम और साज़ों पे सवार होकर सहगल साहब के गाये इस फ़िल्म के नग़में पहूँचे घर घर में। फ़िल्म 'देवदास' के बंगला वर्ज़न में सहगल साहब ने कविगुरु रबीन्द्रनाथ ठाकुर की एक रचना को स्वर दिया था, जिसके बोल थे "गोलाप होये उठुक फूले"। 'देवदास' की अपार का

साहिब मेरा एक है.. अपने गुरू, अपने साई, अपने साहिब को याद कर रही है कबीर, आबिदा परवीन और गुलज़ार की तिकड़ी

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #११२ न शे इकहरे ही अच्छे होते हैं। सब कहते हैं दोहरे नशे अच्छे नहीं। एक नशे पर दूसरा नशा न चढाओ, पर क्या है कि एक कबीर उस पर आबिदा परवीन। सुर सरूर हो जाते हैं और सरूर देह की मिट्टी पार करके रूह मे समा जाता है। सोइ मेरा एक तो, और न दूजा कोये । जो साहिब दूजा कहे, दूजा कुल का होये ॥ कबीर तो दो कहने पे नाराज़ हो गये, वो दूजा कुल का होये ! गुलज़ार साहब के लिए यह नशा दोहरा होगा, लेकिन हम जानते हैं कि यह नशा उससे भी बढकर है, यह तिहरा से किसी भी मायने में कम नहीं। आबिदा कबीर को गा रही हैं तो उनकी आवाज़ के सहारे कबीर की जीती-जागती मूरत हमारे सामने उभर आती है, इस कमाल के लिए आबिदा की जितनी तारीफ़ की जाए कम है। लेकिन आबिदा गाना शुरू करें उससे पहले सबा के झोंके की तरह गुलज़ार की महकती आवाज़ माहौल को ताज़ातरीन कर जाती है, इधर-उधर की सारी बातें फौरन हीं उड़न-छू हो जाती है और सुनने वाला कान को आले से उतारकर दिल के कागज़ पर पिन कर लेता है और सुनता रहता है दिल से.. फिर किसे खबर कि वह कहाँ है, फिर किसे परवाह कि जग कहाँ है! ऐसा नशा है इस तिकड़ी में कि रूह पूरी की पूरी डूब जाए, मदमाती रहे औ