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तुम बिन कल न आवे मोहे.....पियानो की स्वरलहरियों में कानन की मधुर आवाज़

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 592/2010/292 आ धुनिक पियानो के आविष्कार का श्रेय दिया जाता है इटली के बार्तोलोमियो क्रिस्तोफ़ोरी (Bartolomeo Chritofori) को, जो साज़ों के देखरेख के काम के लिए नियुक्त थे Ferdinando de' Medici, Grand Prince of Tuscany में। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, जैसा कि कल से हमने पियानो पर केन्द्रित शृंखला की शुरुआत की है, आइए पियानो के विकास संबंधित चर्चा को आगे बढ़ाते हैं। तो बार्तोलोमेओ को हार्प्सिकॊर्ड बनाने में महारथ हासिल थी और पहले की सभी स्ट्रिंग्ड इन्स्ट्रुमेण्ट्स संबंधित तमाम जानकारी उनके पास थी। इस बात की पुष्टि नहीं हो पायी है कि बार्तोलोमियो ने अपना पहला पियानो किस साल निर्मित किया था, लेकिन उपलब्ध तथ्यों से यह सामने आया है कि सन् १७०० से पहले ही उन्होंने पियानो बना लिया था। बार्तोलोमियो का जन्म १६५५ में हुआ था और उनकी मृत्यु हुई थी साल १७३१ में। उनके द्वारा निर्मित पियानो की सब से महत्वपूर्ण विशेषता यह थी कि उन्होंने पियानो के डिज़ाइन की तब तक की मूल त्रुटि का समाधान कर दिया था। पहले के सभी पियानो में हैमर स्ट्रिंग् पर वार करने के बाद उसी से चिपकी

झुकी आई रे बदरिया सवान की...जब पियानो के सुर छिड़े तो बने ढेरों फ़िल्मी गीत....

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 591/2010/291 न मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक और तरो-ताज़ा सप्ताह के साथ हम उपस्थित हैं और आप सभी का स्वागत करते हैं इस महफ़िल में। साज़ों की अगर बात छेड़ें तो दुनिया भर के सभी देशों को मिलाकार फ़ेहरिस्त शायद हज़ारों में पहुँच जाए। लेकिन एक साज़ जिसे साज़ों का राजा कहलाने का गौरव प्राप्त है, वह है पियानो। और यह इसलिए साज़ों का राजा है क्योंकि पियानो ऒर्केस्ट्रा के किसी साज़ का सम्पूर्ण स्पेक्ट्रम कवर कर लेता है; डबल बसून के सब से नीचे के नोट से लेकर पिकोलो के सब से ऊँचे नोट तक। पियानो की मेलडी उत्पन्न करने की क्षमता, उसकी विस्तृत डायनामिक रेंज, तथा आकार में भी सब से बड़ा होना पियानो को साज़ों में सब से उपर का स्थान देता है। सब से ज़्यादा वर्सेटाइल और सब से मज़ेदार है यह साज़। जहाँ तक हिंदी फ़िल्म संगीतकारों की बात है, तो लगभग सभी दिग्गज संगीतकारों ने समय समय पर कहानी, सिचुएशन और मूड के मुताबिक़ फ़िल्मी रचनाओं में पियानो का इस्तेमाल किया। ज़्यादातर गीतों में पियानो के छोटे मोटे पीसेस सुनने को मिले, लेकिन बहुत से गानें ऐसे भी थे जिनमें मुख्य साज़ ही पियानो

सुर संगम में आज - बेगम अख्तर की आवाज़ में ठुमरी और दादरा का सुरूर

सुर संगम - 07 कुछ लोगों का यह सोचना है कि मॊडर्ण ज़माने में क्लासिकल म्युज़िक ख़त्म हो जाएगी; उसे कोई तवज्जु नहीं देगा, पर मैं कहती हूँ कि यह ग़लत बात है। ग़ज़ल भी क्लासिकल बेस्ड है। अगर सही ढंग से पेश किया जाये तो इसका जादू भी सर चढ़ के बोलता है। "आ प सभी को मेरा सलाम, मुझे आप से बातें करते हुए बेहद ख़ुशनसीबी महसूस हो रही है। मुझे ख़ुशी है कि मैंने ऐसे वतन में जनम लिया जहाँ पे फ़न और फ़नकार से प्यार किया जाता है, और मैंने आप सब का शुक्रिया अपनी गायकी से अदा किया है"। मलिका-ए-ग़ज़ल बेगम अख़्तर जी के इन शब्दों से, जो उन्होंने कभी विविध भारती के किसी कार्यक्रम में श्रोताओं के लिए कहे थे, आज के 'सुर-संगम' का हम आगाज़ करते हैं। बेगम अख़्तर एक ऐसा नाम है जो किसी तारुफ़ की मोहताज नहीं। उन्हें मलिका-ए-ग़ज़ल कहा जाता है, लेकिन ग़ज़ल गायकी के साथ साथ ठुमरी और दादरा में भी उन्हें उतनी ही महारथ हासिल है। ३० अक्तुबर १९७४ को वो इस दुनिया-ए-फ़ानी से किनारा तो कर लिया, लेकिन उनकी आवाज़ का जादू आज भी सर चढ़ कर बोलता है। आज के संगीत में जब चारों तरफ़ शोर-शराबे का माहौल है, ऐसे में बेग