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सुनो कहानी - उखड़े खंभे - हरिशंकर परसाई

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में उभरते लेखक गिरिजेश राव की कहानी " गेट " का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार हरिशंकर परसाई का व्यंग्य " उखड़े खंभे ", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। कहानी का कुल प्रसारण समय 5 मिनट 48 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। इस कथा का टेक्स्ट हिन्दी समय पर उपलब्ध है। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। मेरी जन्म-तारीख 22 अगस्त 1924 छपती है। यह भूल है। तारीख ठीक है। सन् गलत है। सही सन् 1922 है। । ~ हरिशंकर परसाई (1922-1995) हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी राजा ने जवाब दिया,”नहीं,ऐसा नहीं होगा। फाँसी देना निजी क्षेत्र का उद्योग अभी नहीं हुआ है।” ( हरिशंकर परसाई की "उखड़े खंभे" स

भंवरा बड़ा नादान, बगियन का मेहमान.....और वो मेहमान गुरु दत्त दुनिया के बगियन को छोड़ चुप चाप चला गया

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 550/2010/250 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और स्वागत है आप सभी का आप ही के इस मनपसंद स्तंभ की ५५०-वीं कड़ी में। पिछले चार दिनों से हम ज़िक्र कर रहे हैं गुरु दत्त द्वारा अभिनीत, निर्मित एवं निर्द्शित फ़िल्मों का, और कल की कड़ी में आ हम पहुँचे थे १९६० की फ़िल्म 'चौदहवीं का चांद' तक। दोस्तों, 'काग़ज़ के फूल' से गुरु दत्त को जो आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा था, वह रकम कुछ १७ लाख की थी जो उन दिनों से हिसाब से बहुत बड़ी रकम थी। युं तो 'चौदहवीं का चांद' ने अच्छा व्यापार किया लेकिन इससे हुए मुनाफ़े से वह घाटा ज़्यादा था। ख़ैर, गुरु दत्त ने भले ही निर्देशन का बंद कर दिया था लेकिन निर्माण का काम जारी रहा। १९६२ में वो लेकर आये एक और यादगार कृति 'साहब, बीवी और ग़ुलाम'। बिमल मित्र के लिखे इसी नाम से बांगला उपन्यास पर आधारित इस फ़िल्म को राष्ट्रपति का सिल्वर मेडल तथा बंगाल फ़िल्म पत्रकार ऐसोसिएशन की तरफ़ से 'फ़िल्म ऒफ़ दि ईयर' का ख़िताब मिला। इसके अलावा बर्लिन फ़िल्म फ़ेस्टिवल में यह फ़िल्म दिखाई गई और ऒस्कर के लिए यह फ़िल्म

चौदहवीं का चाँद हो, या आफताब हो....अभिनेता के रूप में भी खासे सफल रहे गुरु दत्त

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 549/2010/249 गु रु दत्त के फ़िल्मी सफ़र का लेखा जोखा इन दिनों आप पढ़ रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में। कल की कड़ी में हम आ पहँचे थे गुरु दत्त साहब के जीवन के उस मुकाम तक जहाँ पर उन्होंने आगे कोई भी फ़िल्म निर्देशित ना करने की क़सम खा ली थी। ऐसे में ६० के दशक की शुरुआत हुई गुरु दत्त निर्मित फ़िल्म 'चौदहवीं का चाँद' से, जिसके लिए उन्होंने निर्देशक चुना सादिक़ साहिब को। मुस्लिम परिवेश की इस फ़िल्म ने ज़बरदस्त कामियाबी बटोरी और फ़िल्म के सभी के सभी गानें सुपर-डुपर हिट हुए। ओ. पी. नय्यर और सचिन देव बर्मन के बाद गुरु दत्त ने इस फ़िल्म में बतौर संगीतकार लिया रवि को। और रवि उनकी सारी उम्मीदों पर खरे उतरे। 'काग़ज़ के फूल' की असफलता और 'चौदहवीं का चांद' की अपार सफलता पर गुरु दत्त ने कहा था - "लाइफ़ में, यार, क्या है? दो ही तो चीज़ें हैं - कामयाबी और हार। इन दोनों के बीच में कुछ नहीं है।" 'चौधहवीं का चांद' फ़िल्म के लिए बरोदा में लोकेशन्स ढूंढते हुए उन्होंने कहा था - "देखो ना, मुझे डिरेक्टर बनना था, डिरेक्टर बन गया, ऐक्टर