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चेहरा छुपा लिया है किसी ने हिजाब में....मजलिस-ए-कव्वाली के माध्यम से सभी श्रोताओं को ईद मुबारक

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 480/2010/180 आ प सभी को 'आवाज़' परिवार की तरफ़ से ईद-उल-फ़ित्र की दिली मुबारक़बाद। यह त्योहार आप सभी के जीवन में ख़ुशियाँ लेकर आए ऐसी हम कामना करते हैं। ईद-उल-फ़ित्र के साथ रमज़ान के महीने का अंत होता है और इसी के साथ क़व्वालियों की इस ख़ास मजलिस को भी आज हम अंजाम दे रहे हैं। ४० के दशक से शुरु कर क़व्वालियों का दामन थामे हर दौर के बदलते मिज़ाज का नज़ारा देखते हुए आज हम आ गए हैं ८० के दशक में। जिस तरह से ८० के दशक में फ़िल्म संगीत का सुनहरा दौर ख़त्म होने की कगार पर था, वही बात फ़िल्मी क़व्वालियों के लिए भी लागू थी। क़व्वालियों की संख्या भी कम होती जा रही थी। फ़िल्मों में क़व्वालियों के सिचुएशन्स आने ही बंद होते चले गए। कभी किसी मुस्लिम सबजेक्ट पर फ़िल्म बनती तो ही उसमें क़व्वाली की गुंजाइश रहती। कुछ गिनी चुनी फ़िल्में ८० के दशक की जिनमें क़व्वालियाँ सुनाई दी - निकाह, नूरी, परवत के उस पार, फ़कीरा, नाख़ुदा, नक़ाब, ये इश्क़ नहीं आसाँ, ऊँचे लोग, दि बर्निंग्‍ ट्रेन, अमृत, दीदार-ए-यार, आदि। इस दशक की क़व्वालियों का प्रतिनिधि मानते हुए आज की कड़ी के लिए हमने चु

राज़ की बात कह दूं तो जाने महफ़िल में फिर क्या हो....अजी महफ़िल में तो धूम ही मचेगी जब जन्मदिन हो आशा जी का

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 479/2010/179 दो स्तों नमस्कार! रमज़ान का पाक़ महीना चल रहा है और हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों पेश कर रहे हैं कुछ शानदार फ़िल्मी क़व्वालियों से सजी लघु शृंखला 'मजलिस-ए-क़व्वाली'। कल की क़व्वाली में यह कहा गया था कि जीना उसी का जीना होता है जिसे यह राज़ मालूम हो कि औरों के काम आने में ही सच्चा सुख है। कल चलते चलते हमनें यह भी कहा था कि आज की कड़ी में भी हम किसी राज़ की बात बताने वाले हैं। तो लीजिए अब वह वक़्त आ गया है। लेकिन राज़ की बात हम बता तो देंगे, पर फिर महफ़िल में जाने क्या हो! राज़ की बात यह कि आज है आशा भोसले का जन्मदिन। तो 'आवाज़' परिवार की तरफ़ से हम आशा जी को दे रहे हैं जन्मदिन की ढेरों शुभकामनाएँ। ईश्वर उन्हें दीर्घायु करें और उत्तम स्वास्थ्य प्रदान करें। उनकी संगीत साधना को सलाम करते हुए आज और कल, दोनों दिन हम उनकी गाई क़व्वाली का आनंद लेंगे। अब एक और राज़ की बात यह कि अब हम आपको क़व्वाली के इतिहास की कुछ और बातें बताने वाले हैं। जैसा कि दूसरी कड़ी में हमने बताया था कि क़व्वाली का जन्म करीब करीब उसी वक़्त से माना जाता है जब

परीशाँ हो के मेरी ख़ाक आख़िर दिल न बन जाए.. पेश-ए-नज़र है अल्लामा इक़बाल का दर्द मेहदी हसन की जुबानी

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९९ सि तारों के आगे जहाँ और भी हैं, अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं| अगर खो गया एक नशेमन तो क्या ग़म मक़ामात-ए-आह-ओ-फ़ुग़ाँ और भी हैं| गए दिन के तन्हा था मैं अंजुमन में यहाँ अब मेरे राज़दाँ और भी हैं| हमारे यहाँ कुछ शायर ऐसे हुए हैं, जिन्हें हमने उनकी कुछ ग़ज़लों (कभी-कभी तो महज़ एक ग़ज़ल या एक नज़्म) तक हीं बाँधकर रखा है। ऐसे हीं एक शायर हैं, "मोहम्मद इक़बाल"। अभी हमने ऊपर जो शेर पढे, उन शेरों में से कम-से-कम एक शेर तो (पहला शेर हीं) अमूमन हर इंसान की जुबान पर काबिज़ है ,लेकिन ऐसे कितने हैं, जिन्हें इन शेरों के शायर का नाम पता है। हाँ, "इक़बाल" के नाम से सभी वाकिफ़ हैं, लेकिन कितनों की इसकी जानकारी है कि "सितारों के आगे... " कहकर लोगों में आशा की एक नई लहर पैदा करने वाला शायर "इक़बाल" हीं है। हमारे लिए तो इक़बाल बस "सारे जहां से अच्छा" तक हीं सीमित हैं। और यही कारण है कि जब हम बड़े शायरों की गिनती करते हैं तो ग़ालिब के दौर के शायरों को गिनने के बाद सीधे हीं फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ तक पहुँच जाते हैं, लेकिन भूल जाते हैं कि इन दो

जीना तो है उसी का जिसने ये राज़ जाना....कि गाते सुनते गुनगुनाते उम्र गुजरे तो है सफर ये सुहाना

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 478/2010/178 'म जलिस-ए-क़व्वाली' की आज की कड़ी में हम क़दम रख रहे हैं ७० के दशक में। ७० के दशक का प्रतिनिधित्व करने वाले संगीतकारों में एक महत्वपूर्ण नाम है राहुल देव बर्मन का। और जहाँ तक उनके बनाए क़व्वालियों की बात है, तो उन्होंने कई फ़िल्मों में हिट क़व्वालियाँ दी हैं और दो ऐसी क़व्वालियाँ तो उनके फ़िल्मों के शीर्षक गीत भी थे। ये दो फ़िल्में हैं 'ज़माने को दिखाना है' और 'हम किसी से कम नहीं'। फ़िल्म 'दि बर्निंग् ट्रेन' में "पल दो पल का साथ हमारा" और 'आंधी' फ़िल्म में "सलाम कीजिए आली जनाब आए हैं" भी दो उत्कृष्ट क़व्वालियाँ हैं पंचम के बनाए हुए। लेकिन आज जो हम उनकी क़व्वाली लेकर आए हैं वह एक ऐसी क़व्वाली है जिसे बहुत ज़्यादा नहीं सुना गया। यह एक दार्शनिक क़व्वाली है; इस विषय पर बहुत सारे गीत लिखे गए हैं, लेकिन क़व्वाली की बात करें तो इस तरह की यह एकमात्र फ़िल्मी क़व्वाली ही मानी जाएगी। १९७१ की फ़िल्म 'अधिकार' की यह क़व्वाली है "जीना तो है उसी का जिसने यह राज़ जाना, है काम आदमी का औरों के का

अंजाना अंजानी की कहानी सुनाकर फिर से हैरत में डाला है विशाल-शेखर ने.. साथ है गीतकारों की लंबी फ़ौज़

ताज़ा सुर ताल ३४/२०१० विश्व दीपक - 'ताज़ा सुर ताल' में आज उस फ़िल्म की बारी जिसकी इन दिनों लोग, ख़ास कर युवा वर्ग, बड़ी बेसबरी से इंतज़ार कर रहे हैं। रणबीर कपूर और प्रियंका चोपड़ा अभिनीत फ़िल्म 'अंजाना अंजानी', जिसमें विशाल शेखर के संगीत से लोग बहुत कुछ उम्मीदें रखे हुए हैं। सुजॊय - और अक्सर ये देखा गया है कि जब इस तरह के यूथ अपील वाले रोमांटिक फ़िल्मों की बारी आती है, तो विशाल शेखर अपना कमाल दिखा ही जाते हैं। और इस फ़िल्म के निर्देशक सिद्धार्थ आनंद हैं जिनकी पिछली तीन फ़िल्मों - सलाम नमस्ते, ता रा रम पम, बचना ऐ हसीनों - में विशाल शेखर का ही संगीत था, और इन तीनों फ़िल्मों के गानें हिट हुए थे। विश्व दीपक - ये तीनों फ़िल्में, जिनका ज़िक्र आपने किया, ये यश राज बैनर की फ़िल्में थीं, लेकिन 'अंजाना अंजानी' के द्वारा सिद्धार्थ क़दम रख रहे हैं यश राज के बैनर के बाहर। यह नडियाडवाला की फ़िल्म है, और इस बैनर ने भी 'हाउसफ़ुल', 'हे बेबी', 'कमबख़्त इश्क़' और 'मुझसे शादी करोगी' जैसी कामयाब म्युज़िकल फ़िल्में दी हैं। इसलिए 'अंजाना अंजानी&#

अल्लाह ये अदा कैसी है इन हसीनों में....कव्वाली का एक नया अंदाज़ पेश किया एल पी और लता ने

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 477/2010/177 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' में जारी है रमज़ान के मौके पर कुछ शानदार फ़िल्मी क़व्वालियों की ख़ास शृंखला 'मजलिस-ए-क़व्वाली'। क़व्वाली का जो मूल उद्देश्य है, उसे लोगों तक पहुँचाना क़व्वालों का काम है। अब जहाँ पर फ़ारसी भाषा का इस्तेमाल लोग आम बोलचाल में नहीं करते हैं, वहाँ पर क़व्वाली का अर्थ लोगों तक पहुँचाने के लिए संगीत और रीदम का सहारा लिया जाने लगा और उस रूप को, उस शैली को इतना ज़्यादा प्रभावशाली बनाया कि क़व्वाली सुनते हुए लोग ट्रान्स में चले जाने लगे। लोगों को सारे अल्फ़ाज़ भले ही समझ में ना आते हों, लेकिन संगीत और रीदम कुछ ऐसे सर चढ़ के बोलता है क़व्वालियों में कि सुनने वाला उसके साथ बह निकलता है और क़व्वाली के ख़त्म होने के बाद ही होश में वापस आता है। और इसी तरह से क़व्वाली का विकास हुआ और धीरे धीरे संगीत की एक महत्वपूर्ण धारा बन गई। पिछले पाँच दशकों में पाक़िस्तान में क़व्वालियों की शैलियों में बदलाव लाने वाले क़व्वाल गोष्ठियों में ६ नाम प्रमुख हैं और ये नाम हैं - उस्ताद फ़तेह अली व मुबारक अली ख़ान, उस्ताद करम दीन टोपई वाले, उस्ताद छज्

ऐ मेरी ज़ोहरा-जबीं, तुझे मालूम नहीं, तू अभी तक है हसीं...बिलकुल वैसे ही जैसे सुनहरे दौर का लगभग हर एक गीत है

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 476/2010/176 र मज़ान का मुबारक़ महीना चल रहा है और इस पाक़ मौक़े पर आपके इफ़्तार की शामों को और भी रंगीन और सुरीला बनाने के लिए इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर हम पेश कर रहे हैं कुछ शानदार फ़िल्मी क़व्वालियों से सजी लघु शृंखला 'मजलिस-ए-क़व्वाली'। अब तक आपने इसमें पाँच क़व्वालियाँ सुनी। ४० के दशक के मध्य भाग से शुरू कर हम आ पहुँचे थे १९६० में और उस साल बनी दो बेहद मशहूर क़व्वालियाँ आपको हमने सुनवाई फ़िल्म 'मुग़ल-ए-आज़म' और 'बरसात की रात' से। अब थोड़ा और आगे बढ़ते हैं और आ जाते है साल १९६५ में। इस साल बनी थी हिंदी फ़िल्म इतिहास की पहली मल्टिस्टरर फ़िल्म 'वक़्त'। सुनिल दत्त, साधना, राज कुमार, शशि कपूर, शर्मिला टैगोर, बलराज साहनी, निरुपा रॊय, मोतीलाल और रहमान जैसे मंझे हुए कलाकारों के पुर-असर अभिनय से सजा थी 'वक़्त'। पहले बी. आर. चोपड़ा इस फ़िल्म को पृथ्वीराज कपूर और उनके तीन बेटे राज, शम्मी और शशि को लेकर बनाना चाहते थे, लेकिन हक़ीक़त में केवल शशि कपूर को ही फ़िल्म में 'कास्ट' कर पाए। और पिता के किरदार में पृथ्वी