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ये क्या जगह है दोस्तों.....शहरयार, खय्याम और आशा की तिकड़ी और उस पर रेखा की अदाकारी - बेमिसाल

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 452/2010/152 'से हरा में रात फूलों की' - ८० के दशक की कुछ यादगार ग़ज़लों की इस लघु शृंखला की दूसरी कड़ी में आप सभी का स्वागत है। जैसा कि कल हमने कहा था कि इस शृंखला में हम दस अलग अलग शायरों के क़लाम पेश करेंगे। कल हसरत साहब की लिखी ग़ज़ल आपने सुनी, आज हम एक बार फिर से सन् १९८१ की ही एक बेहद मक़बूल और कालजयी फ़िल्म की ग़ज़ल सुनने जा रहे हैं। यह वह फ़िल्म है दोस्तों जो अभिनेत्री रेखा के करीयर की सब से महत्वपूर्ण फ़िल्म साबित हुई। और सिर्फ़ रेखा ही क्यों, इस फ़िल्म से जुड़े सभी कलाकारों के लिए यह एक माइलस्टोन फ़िल्म रही। अब आपको फ़िल्म 'उमरावजान' के बारे में नई बात और क्या बताएँ! इस फ़िल्म के सभी पक्षों से आप भली भाँति वाक़ीफ़ हैं। और इस फ़िल्म में शामिल होने वाले मुजरों और ग़ज़लों के तो कहने ही क्या! आशा भोसले की गाई हुई ग़ज़लों में किसे किससे उपर रखें समझ नहीं आता। "दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिए" या फिर "इन आँखों की मस्ती के", या "जुस्तजू जिसकी थी उसको तो ना पाया हमने" या फिर "ये क्या जगह है दोस्तों"। ए

मोहब्बत रंग लाएगी जनाब आहिस्ता आहिस्ता....इसी विश्वास पे तो कायम है न दुनिया के तमाम रिश्ते

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 451/2010/151 फ़ि ल्म संगीत का सुनहरा दौर ४० के दशक के आख़िर से लेकर ५० और ६० के दशकों में पूरे शबाब पर रहने के बाद ७० के दशक के आख़िर से धीरे धीरे ख़त्म होता जाता है। और इस बारे में यही आम धारणा भी है। ८० के दशक में फ़िल्मों की कहानी ही कहिए, फ़िल्म और संगीत के बदलते रूप ही कहिए, या लोगों की रुचि ही कहिए, जो भी है, हक़ीक़त तो यही है कि ८० के दशक में फ़िल्म संगीत एक बहुत ही बुरे वक़्त से गुज़रा। कुछ फ़िल्मों, कुछ गीतों और कुछ गिने चुने गीतकारों और संगीतकारों को छोड़ कर ज़्यादातर गानें ही चलताऊ क़िस्म के बने। लेकिन जैसा कि हमने "कुछ' शब्द का प्रयोग किया, तो कुछ गानें ऐसे भी बनें उस दशक में दोस्तों जो उतने ही सुनहरे हैं जितने कि फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर के गीत। दोस्तों, कुछ ऐसे ही सुनहरी ग़ज़लों को चुन कर आज से अगले दस कड़ियों में पिरो कर हम आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नई लघु शृंखला 'सेहरा में रात फूलों की'। चारों तरफ़ वीरानी हो, और ऐसे में कहीं से फूलों की ख़ुशबू आ कर हमारी सांसों को महका जाए, कुछ ऐसी ही बात थी इन ग़

रविवार सुबह की कॉफी और रफ़ी साहब के अंतिम सफर की दास्ताँ....दिल का सूना साज़

३१ जुलाई को सभी रफ़ी के चाहने वाले काले दिवस के रूप मानते आये हैं और मनाते रहेंगे क्यूंकि इस दिन ३१ जुलाई १९८० को रफ़ी साब हम सब को छोड़ कर चले गए थे लेकिन इस पूरे दिन का वाकया बहुत कम लोग जानते हैं आज उस दिन क्या क्या हुआ था आपको उसी दिन कि सुबह के साथ ले चलता हूँ. ३१ जुलाई १९८० को रफ़ी साब जल्दी उठ गए और तक़रीबन सुबह ९:०० बजे उन्होंने नाश्ता लिया. उस दिन श्यामल मित्रा के संगीत निर्देशन तले वे कुछ बंगाली गीत रिकॉर्ड करने वाले थे इसलिए नाश्ते के बाद उसी के रियाज़ में लग गए. कुछ देर के बाद श्यामल मित्रा उनके घर आये और उन्हें रियाज़ करवाया. जैसे ही मित्रा गए रफ़ी साब को अपने सीने में दर्द महसूस हुआ. ज़हीर बारी जो उनके सचिव थे उनको दवाई दी वहीँ दूसरी तरफ ये बताता चलूँ के इससे पहले भी रफ़ी साब को दो दिल के दौरे पड़ चुके थे लेकिन रफ़ी साब ने उनको कभी गंभीरता से नहीं लिया. मगर हाँ नियमित रूप से वो एक टीका शुगर के लिए ज़रूर लेते थे और अपने अधिक वज़न से खासे परेशान थे. सुबह ११:०० बजे डॉक्टर की सलाह से उनको अस्पताल ले जाया गया जहाँ एक तरफ रफ़ी साब ने अपनी मर्ज़ी से माहेम नेशनल अस्पताल जाना मंज़