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ये कौन आता है तन्हाईयों में जाम लिए.. मख़्दूम मोहिउद्दीन के लफ़्ज़ औ' आबिदा की पुकार..वाह जी वाह!

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९३ दि न से महीने और फिर बरस बीत गये फिर क्यूं हर शब तन्हाई आंख से आंसू बनकर ढल जाती है फिर क्यूं हर शब तेरे शे’र तेरी आवाज गूंजा करती है फजाओं में आसमानों में मुझे यूं महसूस होता है जैसे तू हयात बन गया है और मैं मर गया हूं। अपने पिता "मख़्दूम मोहिउद्दीन" को याद करते हुए उनके जन्म-शताब्दी के मौके पर उनके पुत्र "नुसरत मोहिउद्दीन" की ये पंक्तियाँ मख़्दूम की शायरी के दीवानों को अश्कों और जज़्बातों से लबरेज कर जाती हैं। मैंने "मख़्दूम की शायरी के दीवाने" इसलिए कहा क्योंकि आज भी हममें से कई सारे लोग "मख़्दूम" से अनजाने हैं, लेकिन जो भी "मख्दूम" को जानते हैं उनके लिए मख़्दूम "शायर-ए-इंक़लाब" से कम कुछ भी नहीं। जिसने भी "मख़्दूम" की शायरी पढी या सुनी है, वह उनका दीवाना हुए बिना रह नहीं सकता। हैदराबाद से ताल्लुक रखने वाला यह शायर "अंग्रेजों" और "निज़ाम" की मुखालफ़त करने के कारण हमेशा हीं लोगों के दिलों में रहा है। उर्दू अदब में कई सारे ऐसे शायर हुए हैं, जिन्हें बस लिखने से काम था, तो कई ऐसे

दो चमकती आँखों में कल ख्वाब सुनहरा था जितना.....आईये याद करें गीत दत्त को आज उनकी पुण्यतिथि पर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 443/2010/143 "दो चमकती आँखों में कल ख़्वाब सुनहरा था जितना, हाये ज़िंदगी तेरी राहों में आज अंधेरा है उतना"। गीता दत्त के गाए इस गीत को सुनते हुए दिल उदास हो जाता है क्योंकि ऐसा लगता है कि जैसे यह गीत गीता जी की ही दास्ताँ बता रहा है। "हमने सोचा था जीवन में कोई चांद और तारे हैं, क्या ख़बर थी साथ में इनके कांटें और अंगारे हैं, हम पे क़िस्मत हँस रही है, कल हँसे थे हम जितना"। उफ़! जैसे कलेजा निकाल दे! आज २० जुलाई, गीता जी का स्मृति दिवस है। उनकी सुर साधना को 'आवाज़' की तरफ़ से श्रद्धा सुमन! दोस्तों, 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों जारी है लघु शृंखला 'गीत अपना धुन पराई'। आइए आज गीता जी की याद में उन्ही की आवाज़ में फ़िल्म 'डिटेक्टिव' का यही गीत सुनते हैं जो शायद उनके जीवन के आख़िरी दिनों की कहानी कह जाए! इस फ़िल्म के संगीतकार थे गीता जी के ही भाई मुकुल रॊय और इस गीत को लिखा शैलेन्द्र जी ने। 'डिटेक्टिव' बनी थी सन् १९५८ में। निर्देशक शक्ति सामंत ने तब तक 'इंस्पेक्टर', 'हिल स्टेशन' और 'शेरू

बाई दि वे, ऑन दे वे, "आयशा" से हीं कुछ सुनते-सुनाते चले जा रहे हैं जावेद साहब.. साथ में हैं अमित भी

ताज़ा सुर ताल २७/२०१० विश्व दीपक - नमस्कार दोस्तों! 'ताज़ा सुर ताल' में आज हम जिस फ़िल्म के गीतों को लेकर आए हैं, उसके बारे में तो हमने पिछली कड़ी में ही आपको बता दिया था, इसलिए बिना कोई भूमिका बाँधे आपको याद दिला दें कि आज की फ़िल्म है 'आयशा'। सुजॊय - अमित त्रिवेदी के संगीत से सजे फ़िल्म 'उड़ान' के गानें पिछले हफ़्ते हमने सुने थे, और आज की फ़िल्म 'आयशा' में भी फिर एक बार उन्ही का संगीत है। शायद अब तक हम 'उड़ान' के गीतों को सुनते नहीं थके थे कि एक और ज़बरदस्त ऐल्बम के साथ अमित हाज़िर हैं। मैं कल जब 'आयशा' के गीतों को सुन रहा था विश्व दीपक जी, मुझे ऐसा लगा कि 'देव-डी' और 'उड़ान' से ज़्यादा वरायटी 'आयशा' में अमित ने पैदा की है। इससे पहले कि वो ख़ुद को टाइप-कास्ट कर लेते और उनकी तरफ़ भी उंगलियाँ उठनी शुरु हो जाती, उससे पहले ही वे अपने स्टाइल में नयापन ले आए। विश्व दीपक - 'आयशा' के गानें लिखे हैं जावेद अख़्तर साहब ने। पार्श्वगायक की हैसियत से में इस ऐल्बम में नाम शामिल हैं अमित त्रिवेदी, अनुष्का मनचन्दा, नोमा

जीवन है मधुबन....इस गीत की प्रेरणा है मशहूर के सरा सरा गीत की धुन

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 442/2010/142 अं ग्रेज़ी में एक कहावत है - "1% inspiration and 99% perspiration makes a man successful". अर्थात् परिश्रम के मुक़ाबले प्रेरणा को बहुत कम महत्व दिया गया है। यह कहावत दूसरे क्षेत्रों में भले ही कारगर साबित हो, लेकिन जहाँ तक फ़िल्म संगीत के क्षेत्र में ज़्यादातर ऐसा देखा गया है कि विदेशी धुनों से प्रेरीत गीत जल्दी ही लोगों की ज़ुबान पर चढ़ जाते हैं, यानी कामयाब हो जाते हैं। इन गीतों में उपर्युक्त कहावत की सार्थकता दूर दूर तक नज़र नहीं आता। लेकिन हमारे फ़िल्म जगत में कुछ बहुत ही गुणी संगीतकार भी हुए हैं, जिन्होने अपने संगीत सफ़र में विदेशी धुनों का ना के बराबर सहारा लिया और अगर एक आध गीतों में लिया भी है तो उनमें उन्होने अपना भी भरपूर योगदान दिया और उसका पूरी तरह से भारतीयकरण कर दिया, जिससे कि गीत बिलकुल देसी बन गया। ऐसे ही एक बेहद प्रतिभावान संगीतकार रहे अनिल बिस्वास, जिन्हे फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर के संगीतकारों का भीष्म पितामह भी कहा जाता है। युं तो अनिल दा के गानें मुख्य रूप से भारतीय शास्त्रीय संगीत और देश के विभिन्न प्रांतों के लोक सं

लहरों पे लहर, उल्फत है जवाँ....हेमंत दा इस गीत में इतनी भारतीयता भरी है कि शायद ही कोई कह पाए ये गीत "इंस्पायर्ड" है

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 441/2010/141 न मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक नई सप्ताह के साथ हम फिर एक बार हाज़िर हैं। दोस्तों, हमारे देश का संगीत विश्व का सब से पुराना व स्तरीय संगीत रहा है। प्राचीन काल से चली आ रही भारतीय शास्त्रीय संगीत पूर्णत: वैज्ञानिक भी है और यही कारण है कि आज पूरा विश्व हमारे इसी संगीत पर शोध कर रही है। जब फ़िल्म संगीत का जन्म हुआ, तब फ़िल्मी गीत इसी शास्त्रीय संगीत को आधार बनाकर तैयार किए जाने लगे। फिर सुगम संगीत का आगमन हुआ और फ़िल्मी गीतों में शास्त्रीय राग तो प्रयोग होते रहे लेकिन हल्के फुल्के अंदाज़ में। लोकप्रियता को देखते हुए मूल शास्त्रीय संगीत धीरे धीरे फ़िल्मी गीतों से ग़ायब होता चला गया। फिर पश्चिमी संगीत ने भी फ़िल्मी गीतों में अपनी जगह बना ली। इस तरह से कई परिवर्तनों से होते हुए फ़िल्म संगीत ने अपना लोकप्रिय पोशाक धारण किया। पश्चिमी असर की बात करें तो हमारे संगीतकारों ने ना केवल पश्चिमी साज़ों का इस्तेमाल किया, बल्कि समय समय पर विदेशी धुनों को भी अपने गीतों का आधार बनाया। ऐसे गीतों को हम सभ्य भाषा में 'इन्स्पायर्ड सॊंग्‍स' कहते हैं, जब कि

सुनो कहानी: एक गधे की वापसी - कृश्न चन्दर - भाग 2/3

सुनो कहानी: एक गधे की वापसी - कृश्न चन्दर - भाग 2/3 'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अर्चना चावजी की आवाज़ में प्रेमचंद की अमर कहानी "मंत्र" का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं कृश्न चन्दर की कहानी "एक गधे की वापसी" , जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। एक गधे की वापसी का प्रथम भाग पढने के लिये कृपया यहाँ क्लिक करें कहानी के इस अंश का कुल प्रसारण समय 18 मिनट 27 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। यह तो कोमलांगियों की मजबूरी है कि वे सदा सुन्दर गधों पर मुग्ध होती हैं ~ पद्म भूषण कृश्न चन्दर (1914-1977) हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए एक नयी कहानी मैं महज़ एक गधा आवारा हूँ। ( "एक गधे की वापसी" से एक अंश ) नीचे के प्लेयर से सुनें. (प्लेयर पर एक बार क्लिक

बस करना है खुद पे यकीं....शारीरिक विकलांगता से जूझते लोगों के लिए बिस्वजीत, ऋषि और सजीव ने दिया एक नया मन्त्र

Season 3 of new Music, Song # 14 विकलांगता कोई अभिशाप नहीं है, न ये आपके पूर्वजन्मों के पापों की सजा है न आपके परिवार को मिला कोई श्राप. वास्तविकता यह है कि इस दुनिया में कोई भी परिपूर्ण नहीं है, कोई न कोई कमी हर इंसान में मौजूद होती है, कुछ नज़र आ जाती है तो कुछ छुपी रहती है. इसी तरह हर इंसान में कुछ न कुछ अलग काबिलियत भी होती है. अपनी कमियों को समझकर उस पर विजय पाना ही हर जिंदगी का लक्ष्य है. इंसान वही है जो अपनी खूबियों का पलड़ा भारी कर अपनी कमियों को पछाड़ देता है, और दिए हुए संदर्भों में खुद को मुक्कम्मल साबित करता है. पर ये भी सच है कि सामजिक धारणाओं और संकुचित सोच के चलते शारीरिक विकलांगता के शिकार लोगों को समाज में अपनी खुद की समस्याओं के आलावा भी बहुत सी परेशानियों का सामना करना पड़ता है. आवाज़ महोस्त्सव के चौदहवें गीत में आज हम इन्हीं हालातों से झूझ रहे लोगों के लिए ये सन्देश लेकर आये हैं हिम्मत और खुद पे विश्वास कर अगर वो चलें तो कुछ भी मुश्किल नहीं है. सजीव सारथी के झुझारू बोलों को सुरों में पिरोया है ऋषि एस ने और आपनी आवाज़ से इस गीत में एक नया जोश भरा है बिश्वजीत नंदा ने.